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________________ २५६ जैनहितैषी - [ भाग १४ परिचित जान पड़ते हैं । कर दिया है । पुरुषार्थ सि० से तो वे बहुत ही षार्थसि ० की आर्यायें दी हैं । इससे मालूम होता है कि मेघविजयजी पु० सि० को श्रावकाचार कहते हैं । और ' संघो कोविन तारइ ' को भी श्रावकाचारकी गाथा लिखी है । यह चिन्त्य है । 1 २-महोपाध्याय मेघविजयगणि नामक श्वेताबराचार्यका बनाया हुआ एक स्वोपज्ञसंस्कृतटीकायुक्त प्राकृत ग्रन्थ है । उसकी सातवीं गाथाकी टीकामें लिखा है- "श्रावकाचारे अमृतचन्द्रेोप्याहसंघो कोविन तारइ कट्टो मूलो तहेव निप्पिच्छो । अप्पा तारइ अप्पा तम्हा अप्पा दु झादव्वो ॥ १ ॥ " इससे मालूम होता है कि अमृतचन्द्रका बनाया हुआ कोई श्रावकाचार भी है और वह प्राकृत में है । उक्त गाथा तत्त्वानुशासनादिसंग्रह ' ढाढसी गाथा' नामक ग्रन्थमें भी है और उसका २० वाँ नम्बर है । ढाढसी गाथायें किसकी बनाई हुई हैं यह अबतक मालूम नहीं हुआ है । आश्चर्य नहीं जो उसके कर्त्ता अमृतचन्द्र ही हों । ३- यदि उक्त 'संघो कोवि' आदि गाथा अमृतचन्द्रकी ही है तो इससे उनके समय निर्णयमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है । इसमें काष्ठासंघ और नि:पिच्छिकका उल्लेख है । यदि ! देवसेनका बतलाया हुआ समय ठीक है तो वि० सं० ९५३ में निःपिच्छिकों ( माथुरसंघ ) की उत्पत्ति हुई है और इसलिए अमृतचन्द्र इसके पीछे के ग्रन्थकर्त्ता सिद्ध होते हैं । यदुवाच अमृतचन्द्रः - (सातवीं गाथाकी टीका) सव्वे भावा जम्हा पचक्खाई परित्ति नाऊण । तम्हा पञ्चक्खाणं गाणं नियमा मुणेयव्वं ॥ १ ॥” यह गाथा प्राभृतत्रयमें तो है नहीं, इसलिए मालूम होता है कि यह भी अमृतचन्द्र के किसी प्राकृत ग्रन्थसे ली गई है । 66 ५ - युक्तिप्रबोध ( पत्र १५ ) में एक जगह — श्रावकाचारे अमृतचन्द्राचार्योक्तिरपि दिगम्बरनये ' लिखकर ' या मूर्च्छानामेयं' आदि पुरु ६ - राजवार्तिक सूत्र २२ की टीका ( पृष्ठ २८४ ) में नीचे लिखी गाथा ' उक्तं च ' रूपमें दी गई है: ४-युक्तिप्रबोधमें नीचे लिखी गाथा भी आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशी॑षु । अमृतचन्द्र के नाम से दी हैं: सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ॥ ६६ ॥ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम् ॥६७॥ Jain Education International रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिदं समये । तेसिं चेदुप्पत्ती हिंसेति जिणेहिं णिद्दिा || इसी आशयका श्लोक पुरुषार्थसिद्धुपायमें भी है— अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ इसी तरह प्रवचनसारकी तात्पर्यवृत्ति में दो गाथायें हैं: . पक्केसु अ आमेसु अ विपश्च्चमाणासु मांसपेसीसु । संत्तत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥ जो पक्कमपक्कं वा पेसी मंसस्स खादि पासदि वा । सो किल हिदि पिंड जीवाणमणेगकोडीणं ॥ ( पृष्ठ ३१३ ) इन गाथाओं की टीका अमृतचद्रसूरिने नहीं की है, इससे मालूम होता है कि ये मूल प्रवचनसारकी नहीं हैं । इनकी बिलकुल छाया पुरुषार्थसिद्धयुपायमें देखिए: इनसे मालूम होता है कि या तो अमृतचन्द्रसूरिने स्वयं कोई श्रावकाचार प्राकृतमें बनाया है और उसीका अनुवाद संस्कृत में भी किया है और या अन्य किसीके प्राचीन ग्रन्थकी छाया लेकर पुरुषार्थसि० को रचा है । मेघविजयजीके उल्लेखोंसे तो यही मालूम होता है कि प्राकृतमें भी उनका कोई ग्रन्थ है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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