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________________ लायब्रेरी। २५७ यदि राजवार्तिकोक्त गाथा अमृतचन्द्रकी हा लायब्रेरी । है तो वे अकलंकदेवजीसे भी पहलेके ठहरते हैं । ७-राजवार्तिक पृष्ठः ३६१ में 'उक्तं च' रूपसे (ले०-श्रीयुक्त नाथूराम प्रेमी।) नीचे लिखा श्लोक दिया है: चन्दननगरमें 'नृत्यगोपालस्मतिमन्दिर' नाम " दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। की एक लायब्रेरी खुली है। उसके खोलनेके समय कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुरः।" बंगालके सुप्रसिद्ध विद्वान महामहोपाध्याय पं० यह श्लोक अमृतचन्द्रसूरिकृत तत्त्वार्थसारके हरिप्रसाद शास्त्री एम० ए० ने एक बड़ा ही महत्त्वमोक्षतत्त्वप्रकरणका ७ वाँ श्लोक है। इससे पूर्ण व्याख्यान दिया था । हमारे पाठक लायब्रेभी मालूम होता है कि वे अकलंकभट्टसे रियोंके इतिहाससे परिचित हो जावें और उनके पहलेके ग्रन्थकर्ता हैं। मालूम नहीं राजवातिकके महत्त्वको समझने लगें, इसलिए हम उसके सारसंशोधक पं० गजाधरलालजीने इस श्लोकको भागका अनुवाद यहाँ प्रकाशित करते हैंप्रक्षिप्त कैसे समझ लिया है और यह निर्णय " यह सभी जानते हैं कि जितने प्रकारके कैसे कर लिया है कि अमृतचन्द्र अकलंकदेवसे दान हैं उनमें विद्यादान सबसे बड़ा है । इसी पीछे हुए हैं। लिए आज कल अनेक लोग स्कूल आदि ८-इसी तरह तत्त्वार्थसारके मोक्षतत्त्व प्रकरण- स्थापित करके विद्यादान किया करते हैं। की भी ३२ कारिकायें राजवार्तिककारने ग्रन्था- सुसभ्य जातियोंको छोड़कर दूसरे लोग इस न्तमें उद्धृत की हैं। उनसे भी मालम होता दानके माहात्म्यको नहीं समझ सकते । जो है कि राजवार्तिकसे तत्त्वार्थसारके कर्ता पहले सुसभ्य नहीं हैं वे अन्नदान, भूमिदान, जलदान आदिसे ही सन्तुष्ट रहते हैं । वे नहीं समझते हुए हैं । इन कारिकाओंकों भी प्रक्षिप्त मान कि विद्यादानसे अन्य सब दान अपने आप ही लेनेका कोई कारण नहीं है। हो जाते हैं। विद्यादानमें लायब्रेरी-दान और तत्त्वार्थाधिगम भाष्यके अन्तमें भी-जो स्वयं भी श्रेष्ठ है। क्यों कि लायबेरियाँ विद्याकी मूल उमास्वातिका बनाया हुआ कहा जाता है ना जाता हैं। विद्याकी यदि वृक्षके साथ तुलना की जाय तत्त्वार्थसारके पूर्वोक्त ( मोक्षतत्त्ववर्णनके नं० . तो लायब्ररी उसकी जड़ है । विद्याकी यदि नदीके साथ तुलना की जाय तो लायब्रेरी उसका २० नं० से ५५ तककी ) कारिकायें दो चार चार उद्गमस्रोत-अनन्त जलराशिका आधार है। शलोंके हेर फेरसे दी गई हैं। कई श्वेता० इसलिए जो लोग लायब्रेरी-दान करते हैं वे टीकाकारोंने इनकी टीका भी लिखी है । फिर श्रेष्ठसे श्रेष्ठ दान करते हैं। स्कूलोंमें जो विद्यादान भी जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि तत्त्वा- होता है वह लड़कोंके लिए; परन्तु लायबेरीका धिगमभाष्य स्वयं उमास्वातिका है, तब दान बालक-बूढ़े सबके लिए होता है । स्कूलोंका तक यह कैसे कहा जा सकता है कि पर्वोक्त जो विद्यादान होता है उसे लड़के नियमित वर्षों कारिकायें अमृतचन्द्रकी नहीं हैं। ५-८-२० । तक ही ग्रहण कर सकते हैं; परन्तु लायब्रेरीमें जो विद्यादान होता है उसे मनुष्य जब तक जीता है-बारह मास तीन सौ साठ दिन–लिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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