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________________ २७८ जैनहितैषी [भाग १४ ४९-वास्तवमें गृहस्थ जीवन ही धर्म जीवन अपने घरकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित रखती है वही है। अन्य आश्रम भी यदि वे निर्दोष हैं तो स्त्री वास्तवमें सच्ची गृहिणी है । ऐसे पति"उत्तम हो सकते हैं। पत्नीमें जो प्रेम होता है वह अक्षय और ५०-जो गृहस्थ गृहस्थाश्रमके नियमोंका पूर्ण स्थायी होता है। • रूपसे पालन करता है वह इस लोकमें, मनुष्योंमें ५७-स्त्रीको अपने धर्म और शीलकी रक्षा देवताओंके सदृश है। आप करनी चाहिए। उसके लिये किसी प्रका६-गृहिणी-सुख । रके परदेकी या रोककी आवश्यकता नहीं है। ( लोगोंका यह विचार कि स्त्रियोंको पर५१-वही स्त्री गृहिणी होनेके योग्य है, जिसमें देमें रखनेसे और उन्हें घरसे बाहर न निकगृहिणीके समस्त गुण हों और जो अपने पतिकी , " लने देनेसे उनके धर्मकी रक्षा होगी, भ्रम है। भागले अनसार व्यय करती हो । (गुरुभाक्त, जिन स्त्रियोंको अपने शीलकी रक्षाका विचार अतिथिसत्कार, निर्धन और निराश्रित जनोंके होता है, वे खुले मुँह बाजारमें फिरकर भी अपने प्रति दया-अनुकम्पाका व्यवहार तथा आवश्य शीलकी रक्षा कर सकती हैं, परन्तु जिन्हें इस कतानुसार सामग्रीका संचय करना और पाक बातका ध्यान नहीं है उन्हें चाहे सात तालोंके विधिमें चातुर्य इत्यादि गुण गृहिणीमें होने अंदर बंद करके रख दिया जाय, फिर भी वे चाहिए।) सुरक्षित नहीं रह सकती। ५२-जिस घरकी गृहिणीमें उपर्युक्त गुण न हों तो चाहे जितनी धन सम्पदा होने पर भी _ ५८-जो स्त्री अपने पतिकी शुद्ध अन्त:उस घरमै प्रकाश नहीं हो सकता। करणसे भक्ति करती है अर्थात जो स्त्री सनी ५३-जिस घरमें गृहिणी में उपर्युक्त गण हैं पतिव्रता है उसकी देवता तक भी पूजा "करते हैं। उसमें फिर किस बातकी कमी है ? अर्थात् किसी . ५९-जिस पुरुषकी स्त्री अपने धर्म और बातकी कमी नहीं । परंतु जिस घरमें गृहिणीमें . कुलकी प्रतिष्ठाको सुरक्षित नहीं रख सकती है उक्त गुण नहीं हैं उसमें क्या धरा है ? अर्थात् । वह अपने शत्रुओं और द्वेषियोंके सामने सिंहके उसमें कुछ भी नहीं है। समान निर्भय होकर खड़ा नहीं हो सकता है। ५४-जिस मनुष्यके घरमें पतिव्रता विदुषी ६०-घरकी प्रतिष्ठा पतिव्रता विदुषी गृहिणीसे स्त्री है उसके लिये उससे बढ़कर फिर संसारमें है और उसकी शोभा गुणी और सदाचारी और कौन वस्तु है ? सन्तानसे है। ५५-जो स्त्री नित्य प्रातःकाल उठकर पति के चरणारविन्दोंको नमस्कार करती है और पतिको ७-सन्तान । छोड़कर अन्य किसी देवी देवताके आगे ६१-चतुर और सद्गुणी सन्तानसे बढ़कर सिर नहीं झुकाती है, वह यदि यह कहे कि संसारमें कोई सुख नहीं है । वर्षा हो तो तत्काल वर्षा होने लगेगी । (पाति- ६२-जिस मनुष्यके ऐसी सुंदर, सुशील व्रत धर्मकी ऐसी ही महिमा है।) और सद्गुणी सन्तान है कि जिसमें किसीको । ५६-जो स्त्री अपने धर्म और शीलकी रक्षा कोई दोष दिखलाई नहीं देता, उसको सात करती है, पतिभक्तिमें लीन रहती है, और जन्म तक भी कोई दुख नहीं हो सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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