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________________ चौदहवाँ भाग । अंक ९ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । जैनहितैषी । न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी ' ॥ Pass सहानुभूति' । Jain Education International ( अनु०-श्रीयुक्त ठा॰ कल्याणसिंह बी. ए. 1) जब तुम अपनी आत्माको देखो तो कड़ी और तीव्र दृष्टिके साथ देखो; परन्तु जब दूसरोंको देखा तो अनुकम्पासे देखो । जैसे दलदल भूमिसे काई निकलती है उसी प्रकार साधारण मनुष्यों के मुँहसे गालियाँ और उलने निकलते हैं। उन्हें तुम मत निकालो । - इला व्हीलर विलकाक्स । पीडित मनुष्यसे मैं यह नहीं पूछता कि तुम्हारी पीड़ा कैसी है, बल्कि मैं स्वयं पीडित बन जाता हूँ और पीड़ाका अनुभव करने लगता हूँ । - वाल्ट व्हाइटमेन । हमने जितना आत्म-दमन प्राप्त कर लिया है उतना ही हम दूसरोंसे सहानुभूति रख सकते १ जेम्स एलेनकृत Byways of Blessedness ( आनन्दको पगडंडियाँ) नामक पुस्तकका 'एक अध्याय । यह पुस्तक हिन्दी ग्रन्थ- रत्नाकर कार्यालयकी ओरसे हाल ही प्रकाशित हुई हैं। ९-१० आषाढ़ २४४६ जून १९२० हैं । जब तक हम अपने पर ही दया करते रहें और अपने से ही सहानुभूति रखते रहे तब तक दूसरोंका विचार नहीं कर सकते हैं । यदि ह स्वयं अपनी ही प्रशंसा, अपनी ही रक्षा, अपनी ही सम्मतिका विचार करें तो दूसरोंके साथ प्रेमका व्यवहार नहीं कर सकते । दूसरोंका विचार करना और अपना विचार भूलना इसीको सहानुभूति कहते हैं । दूसरोंके साथ सहानुभूति रखने के लिये पहले हमें उनकी दशा समझनी चाहिये और उनकी दशा समझनेके लिये हमें उनके विषयमें पहलेहीसे बुरे विचार नहीं बाँध लेने चाहिये-जैसे वे हैं उनको उसी प्रकार देखना चाहिये । हमें दूसरोंकी आन्तरिक दशाके अन्दर प्रविष्ट होना चाहिये और उनके नेत्रोंसे देखकर तथा उनके अनुभवके अनुक्रमको समझकर उन जैसा हो जाना चाहिये । निस्सन्देह ऐसा व्यवहार हम ऐसे मनुष्य के साथ तो कर ही नहीं सकते जिसकी बुद्धि और अनुभव हमसे बढ़कर हैं और न ऐसे के साथ ऐसा व्यवहार कर सकते हैं जिससे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522882
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages32
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size5 MB
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