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और अब वे उसके साथ बहुत जल्दी विवाह करनेवाले हैं । इस बातकी खबर पाकर खण्डेलवाल पंचायती चौंक पड़ी और उनले प्रक्षय उदयलालजीको जन्मभर के लिए जातिसे खारिज कर दिया और साथ ही यह आज्ञा भी जारी कर दी कि उनका मन्दिरसम्बन्ध भी बन्द है, अर्थात् वे अब जैनमन्दिरमें दर्शनादि भी न कर सकेंगे !.
जैनहितैषी -
[ भाग १४
रिवाजका दिगम्बर सम्प्रदायकी एक बहुत ही प्रतिष्ठित जाति अनुकरण कर रही है । किसीका देवदर्शन बन्द कर देना, उसकी आत्मोन्नति के एक प्रचलित मार्गमें रुकावट डालदेना, और फलतः उसे जैनधर्मके आश्रयसे दू फेंकनेकी कोशिश करना कहाँ तक उचित और शास्त्रविहित है तथा इसका कौनसा अच्छा परिणाम होगा इसका उत्तर तो जैनधर्म के धुरन्धर विद्वान ही दे सकेंगे; परन्तु हमारी समझ में बम्बईकी खंडेलवाल पंचायतने इस आज्ञाके जारी करनेमें कुछ जल्दी अवश्य की है । जिस मन्दिरसे पंडित उदयलालजी बन्द किये गये हैं, उसमें दक्षिण के सेतवाल, चतुर्थ और पंचम आदि जाति के लोग ' बराबर दर्शन करनेके लिए आते हैं और उनमें कई सौ वर्षों से विधवा-विवाह की प्रथा जोरों के साथ जारी है और सेतवाल जातिका तो यह हाल है कि उसमें तलाक तकका रिवाज जारी है, अर्थात् उनमें बहुतसी स्त्रियाँ अपने पतियोंके जीते जी भी - उनसे न बनने पर – दूसरोंके यहाँ चली जाती हैं ! क्या पंचायतीने इस बात पर विचार करने का कष्ट उठाया है ? क्या वह पंडितजीकी विधवाविवाहकी तैयारीको उक्त जातियोंके विधवाविवाह और तलाक ( छोड़छुट्टी ) के रिवाज से भी बुरा समझती है ? अथवा उसको यह सच्चा ज्ञान हो गया है कि जो रिवाज पुराने हो जातें हैं और जिनको जातिके एक से अधिक सभ्य स्वीकार कर लेते हैं, वे जायज हो जाते हैं - उनमें दोषकल्पना नहीं हो सकती ?
जब पण्डितजींने विधवाको बुला लिया है और वे उसके साथ विवाह करनेकी तैयारीमें हैं। तब यह आशा तो कोई भी समझदार नहीं कर सकता था कि वे जातिच्युत न किये जावेंगे । वह दिन अभी इतने निकट नहीं मालूम होता जब कुरीतियों के कीचड़ में फँसी हुई ये पंचायतियाँ एक आपद्धर्मके रूपमें भी विधवाविवाहके प्रति स्वेच्छापूर्वक सहानुभूति प्रकट करने लगेंगी । उनमें अभी इतनी समझ ही कहाँ है ? इतना हृदय ही कहाँ है ? अतः पण्डितजीको जातिच्युत करना पंचायतका एक बहुत ही मामूली काम हुआ है, इसके विषय में हम कुछ भी नहीं कहा चाहते; परन्तु उसने जो उन्हें मन्दिर भी बन्द कर दिया है यह खंडेलवाल जातिके इतिहास में बिलकुल नई बात है - इस विषय में वह एक कदम और भी आगे बढ़ गई है ।
यह मन्दिर बन्द करनेका दण्ड परवार और गोलापूरब आदि दो एक बुन्देलखण्डकी जातियोंमें प्रचलित है। इसे सुनकर हमारे कई खंडेलचाल मित्र बड़ा आश्चर्य करते थे और इस प्रथा के विषयमें उक्त जातियोंका परिहास भी किया करते थे; परन्तु हम समझते हैं अब उन्हें वह आश्चर्य न होगा और न परिहास करनेका ही साहस होगा । क्यों कि इस दण्डविधिको अब स्वयं उनकी खण्डेलवाल सभाने जायज करार दिया है । परवार भाइयों को इस समाचार से अवश्य ही -सन्तोष होगा कि उनकी जातिके एक अद्वितीय
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१३ जैनहितैषी भी जैनपत्र नहीं है !
कलकतेकी दिगम्बर जैनसभाने आखिर अपनी भूल सुधार ली । पहले उसने ' जातिप्रबोधक ' और 'सत्योदय ' को ही अतर एक सहरमा
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