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मकानत
एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरोग । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिव गोपी॥
गुणमुरब्य
विधि-दृष्टि
उभयानुभय-दृष्टि
अनेकान्तर्यात्मका
निपधाऽनुभय-होष्ट
दावार
उभयानुभय।
विधेयन
तत्त्व
वादिनी
तत्व
निषेध-दृष्टि
Saini
निषेध्यानुभव
तत्त्व
अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व
नियेध्य तत्त्व
विध्यनुभयष्टि
उभय-दृष्टि (क्रमार्पिता)
प्र
अनुमय दृष्टि
सहार्पिना)
.PDESDC
उभयतत्त्वः
विधयानुभय।
।
तत्व
यापक्षा
रातभरारुपान
(५)
अनुभय. तत्त्व
६४०
साम्यवस्था
विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषैः प्रत्येक नियमविषयैश्याऽपरिमितैः। सदाऽन्योऽन्यापेक्षः सकलभुवनज्येषगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-धिवक्षतरवशात् ।।
क्रिय रहता.
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सची १ श्रीवीर-स्तवन-[भ० अमरकीर्ति ... २८ अहारक्षेत्रके प्राचीन-मूर्तिलेख-[पं० गोविन्द२ अनेकान्त-रस-लहरी-पं० जुगलकिशोर ३॥ दास न्यायतीर्थ " " २४ ३ युक्तिका परिग्रह-[डा. वासुदेवशरण
4. भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत ।
। -श्रीलोकपाल .... .... २६ ४ श्रीपण्डितप्रवर दौलतरामजी और उनकी
| १० वीर-शासन-जयन्ती-[ला० जिनेश्वरप्रसाद ३४ साहित्यिक-रचनाएँ-[पं० परमानन्द जैन है
११ प्राप्तकी श्रद्धाका फल-[श्री १०५ क्षुल्लक ५ कवि पद्मसुन्दर और दि० श्रावक रायमल्ल
___ गणेशप्रसादजी वर्णी .... .... ३५ -[श्रीअगरचन्द नाहटा ... .. १६ |
१६ | १२ साहित्य-परिचय और समालोचन ६ किसके विषयमें मैं क्या जानता हूँ ?
-परमानन्द जैन शास्त्री . ३८ -[ला० जुगलकिशोर कागजी . "" २०१३ सम्पादकीय ... " ७ कल्पसूत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्ति १४ दिल्लीमें वीर-शासन-जयन्तीका अपूर्व समारोह । -[डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ... २२ । -[परमानन्द शास्त्री ... टा. पृ०३
. ग्राहकोंको आवश्यक-सूचना . · अनेकान्तके प्रेमी ग्राहकोंसे निवेदन है कि अनेकान्तकी पहली किरण वी० पी० से नहीं भेजी जारही है। अतः किरण पहुँचते ही अपना वार्षिक मूल्य पाँच रुपया मनीआर्डरसे निम्न पतेपर भेजनेकी कृपा करें। जो सज्जन मनीआर्डरसे पेशगी मूल्य नहीं भेजेंगे उनके पास अनेकान्तकी अगली किरण पाँच रुपया चार-.. आनेकी वी० पी० से भेजी जावेगी । वी० पी० पहुँचते ही छुड़ानेकी कृपा करें। निवेदक :
मैनेजर अनेकान्त' ठि० रायसाहब उल्फतराय बिल्डिंग,
___७/३३ दरियागंज, देहली वीरसेवामन्दिरको प्राप्त सहायता अनेकान्तकी गत ११-१२ वी किरणमें प्रकाशित । १०१) बा० अनन्तप्रसाद जी जैन, इन्जीनियर, पटना सहायताके बाद वीरसेवामन्दिरको जो सहायता | २५) श्री वीरचन्द कोदरजी गांधी, फल्टण (सतारा) प्राप्त हुई वह निम्न प्रकार है और उसके लिये| ११) हकीम फूलचन्दजी, रुड़की जि० सहारनपुर दातार महोदय धन्यवादके पात्र हैं :
(चि० राजेन्द्रकुमारके विवाहोपलक्षमें) २००) बा० सिद्धकरण निहालकरणजी सेठी, आगरा, | १०) बा० बसन्तीलालजी जैन, जयपुर । . (लायब्रेरीकी सहायतार्थ)
| ३४७)
-अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर अनेकान्तके विज्ञापन-रेट एक वर्षका छह महीनेका एकबारका | ' एक वर्षका छह महीनेका एकबारका : पूरे पेजका... १५०) ८०) १५) चौथाई पेजका ५०) ३०) ६) आधे पेजका ८०) ५०) १०) ।
स० सम्पादक : दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य
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ॐ अहम
***
*
तत्त्व-सचातक
श्वतत्व-प्रकाशक,
* वार्षिक मूल्य ५)* Terrervezaakecrezmera
* एक किरणका मूल्य ॥) *
बELAMMAR
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
**
वर्ष १० किरण १
.
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम ), ७/३३ दरियागंज, देहली
श्रावण, वीर निर्वाण-संवत् २४७५, विक्रम संवत् २००६
जुलाई १६४६
श्रीवीर-स्तवन
[यमकाष्टक स्तोत्र ] [यह स्तोत्र अभी हालमें १६ जूनको पंचायतीमन्दिर देहलीके शास्त्र-भंडारको देखते हुए उपलब्ध हुआ है । इसमें यमकालंकारको लिये हुए वीर भगवानके स्तवन-संबंधी आठ पद्य हैं । अन्तके दो पद्य प्रशस्त्यात्मक हैं
और उनमें स्तोत्रकार अमरकीर्तिने अपना और अपनी इस रचनाका संक्षिप्त परिचय दिया है, जिससे मालूम होता है कि 'इस स्तोत्रके रचयिता भट्टारक अमरकोर्ति विद्यानन्दके शिष्य थे, परशीलवादियों अथवा परमतवादियोंके मदका खण्डन करनेवाले थे, उन्होंने परमागमका अध्ययन किया था, शब्दशास्त्र और युक्रि (न्याय) शास्त्रको अधिगत किया था और विद्वानोंक लिये देवागमाऽलंकृति नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उनका यह वीररूप यमकाष्टक स्तोत्र मंगलमय है, जो भव्यजन सदा (भावपूर्वक) इस स्तोत्रका पाठ करता है वह भारतीमुखका दर्पण बन जाता है-सरस्वती देवी सदा ही उसमें अपना मुख देखा करती है अथवा यों कहिये कि सरस्वती का मुख उसमें प्रतिबिम्बित हुआ करता है । यह रचना बड़ी सुन्दर गम्भीर तथा पढ़ने में अतिप्रिय मालूम होती है। अष्टक पद्योंके प्रत्येक चरणमें एक एक शब्द एकसे अधिकवार प्रयुक्त हुआ है और वह भिन्न भिन्न अर्थको लिये हुए है इतना ही नहीं बल्कि एक ही पदमें अनेक अर्थोंको भी लिये हुए है, जिन्हें साथमें लगी हुई टीका-द्वारा स्पष्ट कियागया है और जो प्रायः स्वोपज्ञ जान पडती है, यही इस यमकरूप काव्यालंकारकी विशेषता है, जिसे इस स्तोत्रमें बड़ी खूबीके साथ चित्रित किया गया है। प्रत्येक अष्टक पद्यका चौथा चरण 'वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम्' रूपको लिये हुए है, जिसमें टीकानुसार यह बतलाया है कि 'मैं उस वीरका स्तवन करता हूँ जो विश्वके लिये हित रूप है, विश्वजनोंका वृद्ध है या सारे विश्व अथवा विश्व के सब पदार्थ जिसके लिये हितरूप-पथ्यरूप हैं-कोई विरोधी नहीं-अथवाद्रव्य-गुण-पर्यायरूप, चेतन अचेतनरूप, मूर्त-अमूर्तरूप और देश-कालादिके अन्तरितरूप जो सर्ववस्तुसमूह है वह विश्व, उसे युगपत्
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अनेकान्त
[वर्ष १०
साक्षात् जानता है (हितोऽभिगच्छति) और हित जो मोक्ष तथा मोक्षका कारण क्रियाकलाप उसे प्राप्त (हितं गतम्) हुश्रा है अथवा हितकारी जो इन्द्रभूत्यादि गणधर उनके प्रति भी हितरूप है-हितप्रद है। साथ ही 'वीर' शब्दके अर्थमें युक्तिसे वृषभादि अन्य तीर्थङ्करोंका भी समावेश किया है और इस तरह वीर भगवानके इसस्तवनमें अन्य जैन तीर्थङ्करोंके स्तवनको भी सम्मिलित किया है।
अमरकीर्ति नामके अनेक विद्वान् प्राचार्य तथा भट्टारकादि होगये हैं। जैसे एक अमरकीर्ति वे जिन्हें वि० संवत् १२४७ में बनकर समाप्त हुए षटकर्मोपदेश नामके अपभ्रंश ग्रन्थमें 'महाकवि' लिखा है। दूसरे अमरकीर्ति वे जिनके शिष्य माघनन्दी व्रती और प्रशिष्य भोगराज (सौदागर)थे। भोगराजने शक संवत् १२७७ (वि० सं० १४१२) में शान्तिनाथकी प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी। तीसरे अमरकीर्ति वे जो कलिकालसर्वज्ञ भट्टारक धर्मभूषणके शिष्य थे
उल्लेख शक सं० १२११ में लिखे गये श्रवणबेलगोलके शिलालेख न० ११५(२७४) में आया है । चौथे अमरकीर्ति वे जो वादी विद्यानन्दके शिष्य थे और जिनका उल्लेख नगरतालुकाके शिलालेख नं. ४६ में आया है (E. C. Part II)। ये विद्यानन्दके शिष्य चौथे अमरकीर्ति ही इस स्तोत्रके कर्ता जान पड़ते हैं और इसलिये इनका तथा इस स्तोत्रकी रचनाका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी समझना चाहिए। इस स्तोत्रमें स्तोत्रकारने अपनी जिस 'देवागमालंकृतिः नामकी रचनाका उल्लेख किया है वह अभी तक अपने देखने में नहीं आई, उसकी खोज होनी चाहिये। वह बहुधा बड़े विद्यानन्दस्वामीकी 'आप्तमीमांसालंकृति नामक अष्टसस्त्री ग्रन्थको सामने रखकर कुछ विशेषरूपमें लिखी गई होगी।
[जगती]
: -सम्पादक] ' विद्याऽऽस्पदाऽऽहन्त्य-पदं पदं पदं प्रत्यग्र-सत्पद्म-परंपरं परम् । हेयेतराकार-बुधं बुधं बुधं वीरं स्तुवे विश्व-हितं हितं हितम् ॥१॥ दिव्यं वचो यम्य सभा सभासभा निपीय पीयूषमितं मितं मितम् । बभूव तृप्ता ससुगऽसुरा सुरा वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ॥२॥ , शत्रु-प्रमाऽन्यैरजिता जिता जिता गुणावली येन धृताऽधृता धृता । संवादिनं तीर्थकरं करं करं वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम ॥३॥ मयूख-मालेव महा महा महा-लोकोपकारं सविताऽविताऽविताः। विभाति यो गन्धकुटी कुटीकुटी वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ।।४।। साऽराग-संस्तुत्य-गुणं गुणं गुणं सभाजयिष्णु सशिवं शिवं शिवम् । लक्ष्मीवतां पूज्यतमं तमं तमं वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ॥५॥ सिद्धार्थ-सन्नन्दनमाऽऽनमाऽऽनमाऽऽनंदाद्ववर्षे द्यु सदाऽऽसदा सदा । यस्योपरिष्टात् कुसुमं सुमं सुमं वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ।।६।। प्रत्यक्षमध्यैदचितं चितं चितं यो मेयमर्थ सकलं कलंकलम् । व्यपेत-दोषाऽऽवरणं रणं रणं वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ॥७॥ युकत्याऽऽगमाऽबाधिगिरं गिरं गिरं चित्रीयिताख्येयभर भर भरम् ।
संख्यावतां चित्तहरं हरं हरं वीरं स्तुवे विश्वहितं हितं हितम् ।।८।। अध्येष्टाऽऽगममध्यगीष्ट परमं शब्दं च युक्तिं विदां चक्रे यः पर-शील-वादि-मद-भिद्दे वागमाऽलंकृतिम् । विद्यानन्द-भुवाऽमरादियशसा तेनाऽमुना निर्मितं वीराऽऽहत्परमेश्वरस्य यमक-स्त्रोत्राऽष्टकं मंगलम् ।। भारः कृतं स्तोत्रं यः पठेद्यमकाऽष्टकम्। सर्वदा स भवेद्भब्यो भारती-मुख-दर्पण: ॥१०॥
इति भट्टारक-श्रीअमरकीर्ति-कृतं यमकाऽष्टकं स्त्रोत्रं समाप्तम् ।।श्रीः।।
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अनेकान्त-रस-लहरी
[इस स्तम्भके नीचे लेख लिखनेके लिये सभी विद्वानोंको सादर आमन्त्रण है। लेखोंका लक्ष्य वही होना चाहिये जो इस स्तम्भका प्रारम्भ करते हुए व्यक्र किया गया था अर्थात् लेखोंमें अनेकान्त-जैसे गम्भीर विषयको ऐसे मनोरंजक ढंगसे सरल शब्दों में समझाया जाय जिससे बच्चे तक भी उसके मर्मको आसानीसे जान सकें, वह कठिन दुर्बोध एवं नीरस विषय न रहकर सुगम-सुखबोध तथा रसीला विषय बन जाय-बातकी बातमें समझा जासके
और जनसाधारण सहजमें ही उसका रसास्वादन करते हुए उसे हृदयङ्गम करने, अपनाने और उसके आधार पर तत्त्वज्ञानमें प्रगति करने, प्राप्त ज्ञानमें समीचीनता लाने, विरोधको मिटाने तथा लोक व्यवहारमें सुधार करनेके साथसाथ अनेकान्तको जीवनका प्रधान अङ्ग बनाकर सुख-शान्तिका अनुभव करनेमें समर्थ हो सकें। -सम्पादक ]
___ उससे आपका यह दस हजारका दानी बड़ा दानी बड़ा और छोटा दानी
है । इस तरह १० हजारका दानी एककी अपेक्षासे उसीदिन अध्यापक वीरभदने दूसरी कक्षामें बड़ा दानी और दूसरेकी अपेक्षासे छोटा दानी है, जाकर उस कक्षाके विद्यार्थियोंकी भी इस विषयमें तदनुसार पाँच लाखका दानी भी एककी अपेक्षासे जाँच करनी चाही कि वे बड़े और छोटेके तत्त्वको, बड़ा और दूसरेकी अपेक्षासे छोटा दानी है। जो कई दिनसे उन्हें समझाया जारहा है, ठीक समझ अध्यापक-हमारा मतलब यह नहीं जैसा कि गये हैं या कि नहीं अथवा कहाँ तक हृदयंगम कर तुम समझ गये हो, दूसरोंकी अपेक्षाका यहाँ सके हैं, और इसलिये उन्होंने कक्षाके एक सबसे
कोई प्रयोजन नहीं । हमारा पूछनेका अभिप्राय सिर्फ अधिक चतुर विद्यार्थीको पासमें बुलाकर पूछा
इतना ही है कि क्या किसी तरह इन दोनों दानियों____एक मनुष्यने पाँच लाखका दान किया है और
मेंसे पाँच लाखका दानी दस हजारके दानीसे छोटा
और दस हजारका दानी पाँच लाखके दानीसे बड़ा दूसरेने दस हजारका; बतलाओ, इन दोनोंमें बड़ा दानी कौन है ?
दानाम दानी हो सकता है ? और तुम उसे स्पष्ट करके
बतला सकते हो? विद्यार्थीने चटसे उत्तर दिया-'जिसने पाँच
_ विद्यार्थी-यह कैसे होसकता है ? यह तो उसी लाखका दान किया है वह बड़ा दानी है।' इसपर
तरह असंभव है जिस तरह पत्थरकी शिला अथवा अध्यापकमहोदयने एक गंभीर प्रश्न किया
लोहेका पानीपर तैरना। 'क्या तुम पाँच लाखके दानीको छोटा दानी और
___ अध्यापक-पत्थरकी शिलाको लकड़ीकी स्लीदस हजारके दानीको बड़ा दानी कर सकते हो ?'
पर या मोटे तख्तेपर फिट करके अगाध जलमें विद्यार्थी-हाँ, कर सकता हूँ।
तिराया जासकता है और लोहेकी लुटिया, नौका अध्यापक-कैसे ? करके बतलाओ ? . अथवा कनस्टर बनाकर उसे भी तिराया जासकता विद्यार्थी-मुझे सुखानन्द नामके एक सेठका है। जब युक्तिसे पत्थर और लोहा भी पानीपर तैर हाल मालूम है जिसने अभी दस लाखका दान सकते हैं और इसलिये उनका पानीपर तैरना सर्वथा दिया है, उससे आपका यह पाँच लाखका दानी असंभव नहीं कहा जासकता, तब क्या तुम युक्तिसे
छोटा दानी है । और एक ऐसे दातारको भी मैं दस हजारके दानीको पाँचलाखके दानीसे बड़ा सिद्ध • जानता हूँ जिसने पाँच हजारका ही दान दिया है, नहीं कर सकते ?
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अनेकान्त
[वर्ष १०
___यह सुनकर विद्यार्थी कुछ गहरी सोच में पड़ गया वेशी होती है। ऐसी स्थितिमें यह ठीक है कि दानका
और उससे शीघ्र ही कुछ उत्तर न बन सका । इस- छोटा-बड़ापन केवल दानद्रव्यकी संख्यापर निर्भर पर अध्यापक महोदयने दूसरे विद्यार्थियोंसे पूछा- नहीं होता, उसके लिये दूसरी कितनी ही बातोंको 'क्या तुममेंसे कोई ऐसा कर सकता है ? वे भी देखनेकी जरूरत होती है, जिन्हें ध्यानमें रखते हुए सोचते-से रह गये। और उनसे भी शीघ्र कुछ उत्तर द्रव्यकी अधिक संख्यावाले दानको छोटा और अल्प बन न पड़ा ! तब अध्यापकजी कुछ कड़ककर बोले- संख्यावाले दानको खुशीसे बड़ा कहा जा सकता ___'क्या तुन्हें तत्वार्थसूत्रके दान-प्रकरणका स्मरण
है। अतः अब आप कृपाकर अपने दोनों दानियोंका नहीं है ? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि दानका क्या कुछ विशेष परिचय दीजिये जिससे उनके छोटेलक्षण है और उस लक्षणसे गिरकर दान दान नहीं बड़ेपनके विषयमें कोई बात ठीक कही जा सके। रहता ? क्या तुम्हें उन विशेषताओंका ध्यान नहीं .. अध्यापक-हमें पाँच पाँच लाखके दानी चार है जिनसे दानके फलमें विशेषता-कमी-वेशी आती
सेठोंका हाल मालूम है जिनमेंसे (१) एक सेठ
ठाका है और जिनके कारण दानका मूल्य कमोबेश हो :
" डालचन्द हैं, जिनके यहाँ लाखोंका व्यापार होता जाता अथवा छोटा-बड़ा बन जाता है ? और क्या है
है और प्रतिदिन हजारों रुपये धर्मादाके जमा होते तुम नहीं समझते कि जिस दानका मूल्य बड़ा-फल
हैं, उसी धर्मादाकी रकममेंसे उन्होंने पाँच लाख रुपये बड़ा वह दान बड़ा है, उसका दानी बड़ा दानी है। एक सामाजिक विद्या-संस्थाको दान दिये हैं और और जिस दानका मूल्य कम-फल कम वह दान
उनके इस दानमें यह प्रधान-दृष्टि रही है कि उस छोटा है, उसका दानी छोटा दानी है-दानद्रब्यकी
समाजके प्रेमपात्र तथा विश्वासपात्र बनें और लोकसंख्यापर ही दानका छोटा-बड़ापन निर्भर नहीं
में प्रतिष्ठा तथा उदारताकी धाक जमाकर अपने
व्यापारको उन्नत करें । (२) दूसरे सेठ ताराचन्द ____ इन शब्दोंके आघातसे विद्यार्थि-हृदयके कुछ
हैं, जिन्होंने ब्लैक मार्केटद्वारा बहुत धन संचय किया कपाट खुल गये, उसकी स्मृति काम करने लगी
है और जो सरकारके कोप-भाजन बने हुए थेऔर वह जरा चमककर कहने लगा
सरकार उनपर मुकदमा चलाना चाहती थी। उन्होंने _ 'हाँ, तत्वार्थसूत्रके सातवें अध्यायमें दानका
एक उच्चाधिकारीके परामर्शसे पाँचलाख रुपये लक्षण दिया है और उन विशेषताओंका भी उल्लेख
'गांधी मीमोरियल फंड' को दान दिये हैं और इससे किया है जिनके कारण दानके फलमें विशेषता
उनकी सारी आपत्ति टल गई है । (३) तीसरे सेठ आती है और उस विशेषताकी दृष्टिसे दानमें भेद
रामानन्द हैं, जो एक बड़ी मिलके मालिक हैं जिसमें उत्पन्न होता है अर्थात् किसी दानको उत्तम-मध्यम
'वनस्पति-घी' भी प्रचुर परिमाणमें तय्यार होता है । जघन्य अथवा बड़ा-छोटा आदि कहा जा सकता
उन्होंने एक उच्चाधिकारीको गुप्तदानके रूपमें पाँच है। उसमें बतलाया है कि 'अनुग्रहके लिये स्व-पर
लाख रुपये इसलिये भेंट किये हैं कि वनस्पतिघीका उपकारके वास्ते-जो अपने धनादिकका त्याग किया
चलन बन्द न किया जाय और न उसमें किसी जाता है उसे 'दान' कहते हैं और उस दान में विधि. रंगके मिलानेका आयोजन ही किया जाय । (४)
चौथे सेठ विनोदीराम हैं, जिन्हें 'रायबहादुर' तथा द्रव्य, दाता तथा पात्रके विशेषसे विशेषता श्राती है-दानके ढंग, दान में दिये जानेवाले पदार्थ, दातार
'आनरेरी मजिस्ट्रट' बननेकी प्रबल इच्छा थी । की तत्कालीन स्थिति और उसके परिणाम तथा अनुग्रहार्थ स्वस्याऽतिसर्गो दानम् ॥३८॥ पानेवालेमें गुणसंयोगके भेदसे दानके फलमें कमी- विधि-द्रव्य दातृ-पात्र-विशेषात्तद्विशेषः ।। ३६॥
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किरण १].
अनेकान्त-रस-लहरी
उन्होंने जिलाधीश ( कलक्टर ) से मिलकर उन पहुँचाई जाती है । इससे कितने ही कुटुम्बोंकी आकुजिलाधीशके नामपर एक हस्पताल (चिकित्सालय) लता मिटकर उन्हें अभयदान मिल रहा है। (४) खोलनेके लिये पाँच लाखका दान किया है और वे चौथे सज्जन गवर्नमेंटके पेंशनर बाबू सेवाराम हैं, जिलाधीशकी सफारिश पर रायबहादुर तथा अॉन- जिन्होंने गवर्नमेंटके साथ अपनी पेंशनका दस रेरी मजिस्ट्रेट बना दिये गये हैं।
हजार नकदमें समझौता कर लिया है और उस इसी तरह हमें चार ऐसे दानी सज्जनोंका भी सारी रकमको उन समाजसेवकोंकी भोजनव्यवस्थाके हाल मालूम है जिन्होंने दस दस हजारका ही दान लिये दान कर दिया है जो निःस्वाथभावस समाज किया है । उनमेंसे (१) एक तो हैं सेठ दयाचन्द,
सेवाके लिये अपनेको अर्पित कर देना चाहते हैं जिन्होंने नगरमें योग्य चिकित्सा तथा दवाईका कोई परन्तु इतने माधन-सम्पन्न नहीं है कि उस दशामें समुचित प्रबन्ध न देखकर और साधारण गरीब भोजनादिकका खर्च स्वयं उठा सके । इससे समाजजनताको उनके प्रभावमें दुःखित एवं पीडित पाकर में निःस्वार्थ सेवकोंकी वृद्ध होगी और उससे कितना अपनी निजकी कमाईमेंसे दस हजार रुपये दानमें ही सेवा एवं लोकहितका कार्य सहज सम्पन्न हो निकाले हैं और उस दान की रकमसे एक धर्मार्थ सकेगा । बाबू सेवारामजीने स्वयं अपनेको भी शुद्ध औषधालय स्थापित किया है जिसमें गरीब समाजसेवाके लिये अर्पित कर दिया है और अपने रोगियोंकी सेवा-शुश्रुषापर विशेष ध्यान दिया जाता दानद्रव्यके सदुपयोगकी व्यवस्थामें लगे हुए हैं। है और उन्हें दवाई मुफ्त दी जाती है । सेठ साहब अब बतलाओ दस-दस हजारके इन चारों औषधालयकी सुव्यवस्थापर पूरा ध्यान रखते हैं दानियोंमेंसे क्या कोई दानी ऐसा है जिसे तुम और अक्सर स्वयं भी सेवाके लिये औषधालयमें पाँच-पाँच लाखके उक्त चारों दानियोंमेंसे किसीसे पहुँच जाया करते हैं। (२) दुसरे सेठ ज्ञानानन्द भी बड़ा कह सको ? यदि है तो कौन-सा है और हैं, जिन्हें सम्यगज्ञान-वर्धक साधनोंके प्रचार और वह किससे बड़ा है ? प्रसारमें बड़ा आनन्द आया करता है । उन्होंने विद्यार्थी-मुझे तो यह दस-दस हजारके चारों अपनी गाढी कमाईमेंसे दस हजार रुपये प्राचीन ही दानी उन पाँच-पाँच लाखके प्रत्येक दानीसे बड़े जैनसिद्धांत-ग्रन्थोंके उद्धारार्थ प्रदान किये हैं और दानी मालूम होते हैं। उस द्रव्यकी ऐसी सुव्यवस्था की है जिससे उत्तम अध्यापक-कैसे ? जरा समझाकर बतलाओ। सिद्धांत-ग्रन्थ बराबर प्रकाशित होकर लोकका हित विद्यार्थी-पाँच लाखके प्रथम दानी सेठ डालकर रहे हैं। (३) तीसरे सज्जन लाला विवेकचन्द हैं, चन्दने जो द्रव्य दान किया है वह उनका अपना जिन्हें अपने समाजके बेरोजगार (आजीविकारहित) द्रव्य नहीं है, वह वह द्रव्य है जो ग्राहकोंसे मुनाफेके व्यक्तियोंको कष्टमें देखकर बड़ा कष्ट होता था और अतिरिक्त । धर्मदाके रूपमें लिया गया है, इसलिये उन्होंने उनके दुःखमोचनार्थ अपनी शुद्ध न कि वह द्रव्य जो अपने मुनाफेमेंसे कमाईमेंसे दस हजार रुपये दान किये हैं। इस दानके लिये निकाला गया हो । और इसद्रव्यसे बेरोजगारोंको उनके योग्य रोजगारमें लगाया लिए उसमें सैकड़ों व्यक्तियोंका दानद्रव्य शामिल जाता है-दुकानें खुलवाई जाती हैं, शिल्पके साधन हैं। अतः दानके लक्षणानुसार सेठ डालचन्द उस जुटाये जाते हैं, नौकरियाँ दिलवाई जाती हैं और द्रव्यके दानी नहीं कहे जासकते - दानद्रव्यके व्यवजब तक आजीविकाका कोई समुचित प्रबन्ध नहीं स्थापक होसकते हैं । व्यवस्थामें भी उनकी दृष्टि बैठता तबतक उनके भोजनादिकमें कुछ सहायता अपने व्यापारकी रही है और इसलिये उनके उस
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अनेकान्त
[वर्ष १०
दानका कोई विशेष मूल्य नहीं है-वह दानके घटित नहीं हे ता और इसलिये वह दानकी कोटिमें ठीक फलोंको नहीं फल सकता । पाँच लाखके दानी ही नहीं आता-गुप्तदान कैसा ? वह तो स्पष्ट रिश्वत शेष तीन सेठ तो दानके व्यापारीमात्र हैं-दानकी अथवा घूस है, जो एक उच्चाधिकारीको लोभमें . कोई स्पिरिट, भावना और आत्मोपकार तथा परोप- डालकर उनके अधिकारोंका दुरुपयोग कराने और कारको लिये हुए अनुग्रह दृष्टि उनमें नहीं पाई जाती अपना बहुत बड़ा लोकिक स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये
और इसलिए उनके दानको वास्तवमें दान कहना दी गई है और उस स्वार्थसिद्धिकी उत्कट भावनामें ही न चाहिये । सेठ ताराचन्दने तो ब्लैकमार्केट इस बातको बिल्कुल ही भुला दिया गया है कि द्वारा बहुतोंको सताकर कमाये हुए उस अन्याय- वनस्पतिघीके प्रचारसे लोकमें कितनी हानि होरही हैद्रव्यको दान करके उसका बदला भी अपने ऊपर जनताका स्वास्थ्य कितना गिर गया तथा गिरता चलनेवाले एक मुकदमेको टलानेके रूपमें चुका लिया जाता है और वह नित्य नई कितनी व कितने प्रकारहै और सेठ विनोदीरामने बदलेमें 'रायबहादुर' की बीमारियोंकी शिकार होती जाती है, जिन सबके तथा 'आनरेरी मजिस्ट्रट' के पद प्राप्त कर लिये हैं कारण उसका जीवन भाररूप होरहा है । उस सेठने अतः परमार्थिक दृष्टिसे उनके उस दानका कोई मूल्य सबके दुख-कष्टोंकी ओरसे अपनी आँखें बन्द करली नहीं है। प्रत्युत इसके, दस-दस हजारके उन चारों हैं-उसकी तरफसे बूढ़ा मरो चाहे जवान उसे अपनी दानियोंके दान दानकी ठीक स्पिरिट, भावना तथा हत्यासे काम ! फिर दानके अंगस्वरूप किसीके स्व-परकी अनुग्रहबुद्धि आदिको लिये हुए हैं और अनुग्रह-उपकारकी बात तो उसके पास कहाँ फटक इसलिये दानके ठीक फलको फलने वाले सम्यक सकती है ? वह तो उससे कोसों दूर है। महात्मादान कहे जानेके योग्य हैं। इसीसे मैं उनके दानी गान्धी जैसे सन्तपुरुष वनस्पतिघीके विरोधमें जो सेठ दयाचन्द, सेठ ज्ञानानन्द, ला० विवेकचन्द कुछ कह गये हैं उसे भी उसने ठुकरा दिया है और और बाबू सेवारामजीको पाँच-पाँच लाखके दानी उस अधिकारीको भी ठुकरानेके लिये राजी कर लिया चारों सेठों डालचन्द, ताराचन्द, रामानन्द
है जो बात-बातमें गांधीजीके अनुयायी होनेका दम और विनोदीरामसे बड़े दानी समझता हूँ। इनके भरा करता है और दूसरोंको भी गांधीजीके आदेशादानका फल हर हालतमें उन तथाकथित दानियोंके नुसार चलनेकी प्रेरणा किया करता है । ऐसा ढोंगी, दान-फलसे बड़ा है और इसलिये उन दस-दस दम्भी, बगुला-भगत उच्चाधिकारी जो तुच्छ लोभमें हजारके दानियोंमेंसे प्रत्येक दानी उन पाँच-पाँच पड़कर अपने कर्तव्यसे च्युत, पथसे भ्रष्ट और लाखके दानियोंसे बड़ा दानी है।
अपने अधिकारका दुरुपयोग करनेके लिये उतारू । सुनकर अध्यापक वीरभद्रजी अपनी प्रस- होजाता है वह दानका पात्र भी नहीं है। इसतरह नता व्यक्त करते हुए बोले-'परन्तु सेठ रामानन्द- परमार्थिक दृष्टिसे सेठ रामानन्दका दान कोई दान जीने तो दान देकर अपना नाम भी नहीं चाहा, नहीं है। और न लोकमें ही ऐसे दानको दान कहा उन्होंने गुप्तदान दिया है और गुप्तदानका महत्व जाता है । यदि द्रव्यको अपनेसे पृथक करके अधिक कहा जाता है, फिर तुमने उन्हें छोटा दानी किसीको दे देने मात्रके कारण ही उसे दान कहा कैसे कह दिया ? जरा उनके विषयको भी कुछ जाय तो वह सबसे निकृष्ट दान है, उसका उद्देश्य स्पष्ट करके बतलाओ।
बुरा एवं लोकहितमें बाधक होनेसे वह भविष्यमें विद्यार्थी-सेठ रामानन्दका दान तो वास्तवमें घोर दुःखों तथा आपदाओंके रूपमें फलेगा। और कोई दान ही नहीं है-उसपर दानका कोई लक्षण इसलिये पाँच-पाँच लाखके उक्त चारों दानियोंमें सेठ
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किरण १]
अनेकान्त-रस-लहरी
रामानन्दको सबसे अधिक निकृष्ट, नीचे दरजेका और न समान फलके अभोक्ता होनेसे ही उन्हें तथा अधम दानी समझना चाहिये।
बड़ा-छोटा कहा जा सकता है। इस दृष्टिसे उक्त _ अध्यापक-शाबास ! मालूम होता है अब तुम दस-दस हजारके चारों दानियोंमेंसे किसीके बड़े और छोटेके तत्त्वको बहुत कुछ समझ गये हो। विषयमें भी यह कहना सहज नहीं है कि उनमें हाँ, इतना और बतलाओ कि जिन चार दानियोंको
___ कौन बड़ा और कौन छोटा दानी है । चारोंके अलगतुमने पाँच-पाँच लाखके दानियोंसे बड़े दानी बत
लाल हानियोंसे बडे टानी बत- अलग दानका विषय बहुत उपयोगी है और उन लाया है वे क्या दस-दस हजारकी समान रकम- सबका अपने अपने दान-विषयमें पूरी दिलचस्पी के दानसे परस्परमें समानदानी हैं, समान पाई जाती है ।'फलके भोक्ता होंगे और उनमें कोई परस्परमें बड़ा- अध्यापक वीरभद्रजीकी व्याख्या चल ही रही छोटा दानी नहीं है ?
थी, कि इतनेमें घंटा बज गया और वे यह कहते विद्यार्थी उत्तरकी खोजमें मन-ही-मन कुछ हुए उठ खड़े हुए कि 'दान और दानीके बड़े-छोटेसोचने लगा, इतनेमें अध्यापकजी बोल उठे- पनक विषयमें आज बहुत कुछ विवेचन दूसरी 'इसमें अधिक सोचनेकी बात नहीं, इतना तो स्पष्ट कक्षामें किया जा चुका है। उसे तुम मोहनलाल ही है कि जब अधिक द्रव्यके दानी भी अल्प द्रव्य- विद्यार्थीसे मलूम कर लेना, उससे रही-सही कचाई के दानीसे छोटे होजाते हैं और दानद्रव्यकी संख्या
कर तुम्हारा इस विषयका ज्ञान और भी पर ही दान तथा दानीका बड़ा-छोटापन निर्भर परिपुष्ट हो जायगा और तुम एकान्ताऽभिनेवेशके नहीं है तब समान द्रव्यके दानी परस्परमें समान
चक्करमें न पड़ सकोगे । अध्यापकजीको उठते और एक ही दर्जेके होंगे ऐसा कोई नियम नहीं हो
देखकर सब विद्यार्थी खड़े हो गये और बड़े विनीतसकता-वे समान भी हो सकते हैं और असमान भी।
भावसे कहने लगे कि 'आज आपने हमारा बहुत इस तरह उनमें भी बड़े
द संभव है
' बड़ा अज्ञानभाव दूर किया है। अभी तक हम बड़े
औ वह भेद तभी स्पष्ट हो सकता है जबकि सारी परि- छोटके तत्त्वको पूरी तरहसे नहीं समझे थे. स्थिति सामने हो अर्थात् यह पूरी तौरसे मालूम हो
लाइनोंद्वारा-सूत्ररूपमें ही कुछ थोड़ा-सा जान्न पाये कि दानके · समय दातारकी कौटुम्बिक तथा थ, अब आपने व्यवहारशास्त्रको सामने रखकर आर्थिक आदि स्थिति कैसी थी, किन भावोंकी
हमें उसके ठीक मार्गपर लगाया है, जिससे अनेक भूलें
दूर होंगी और कितनी ही उलझनें सुलझेगी। इस भारी प्रेरणासे दान किया गया है, किस उद्देश्यको लेकर घर
उपकारके लिये हम आपका आभार किन शब्दोंमें तथा किस विधि-व्यवस्थाके साथ दिया गया है और
व्यक्त करें वह कुछ भी समझमें नहीं आता । हम जिन्हें लक्ष्य करके दिया गया है वे सब पात्र हैं, कुपात्र हैं या अपात्र अथवा उस दानकी कितनी
आपके आगे सदा नतमस्तक रहेंगे। उपयोगिता है । इन सबकी तर-तमतापर ही दान वीरसेवामन्दिर कैम्प, 1 तथा उसके फलकी तर-तमता निर्भर है और देहली उसीके आधारपर किसी प्रशस्त दानको प्रशस्ततर ता० १५-६-१६
| जुगलकिशोर मुख्तार
! या प्रशस्ततम अथवा छोटा-बड़ा कहा जा सकता है। जिनके दानोंका विषय ही एक-दूसरेसे भिन्न होता १ देखो, लेख नं० ३ 'बड़ा दानी कौन 'अनेकान्त वर्ष है. उनके दानी प्रायः समान फलके भोक्ता नहीं होते ६, कि० ४ ।
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युक्तिका परिग्रह (श्रीवासुदेवशरण अग्रवाल )
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। हैं। सभी एक मातृभूमिके विचार-तन्तुओंसे रस यस्य स्याद् युक्तिमद्वाक्यं तस्य कार्यः परिग्रहः॥ ग्रहण करके पल्लवित हुए हैं । जैन साहित्यका
.. भंडार अभी हाल में खुलने लगा है । उसमें संस्कृतिश्रीहरिभद्रसूरिका यह वाक्य हमारे नये मानस- की जो अपरिमित सामग्री मिलती है उससे भारतीय जगत्का तोरणवाक्य बनाया जासकता है । 'मुझे इतिहासका ही गौरव बढ़ता है। सच तो यह है कि महावीरकी बातका पक्षपात नहीं, कपिल के साथ मारतभूमि अनेक धर्मों की धात्री है । विचारोंकी वैर नहीं। जिसके वाक्यमें युक्ति है, उसीका ग्रहण स्वतन्त्रता यहांकी विशेषता है । इस्लाम धर्मके करना मुझे इष्ट है।'
लिये भी भारतकी यही देन है । अन्य देशोंमें राष्ट्री__ 'अनेकान्त' के दसवें वर्षके नव प्रकाशनके समय य संस्कृतिका सर्वापहारी लोप करके इस्लाम फैला, मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि जैन-समाज अपने पूर्वजों- किन्तु भारतभूमिमें उसके नाखूनी पंजे घिस गये की हृदयसम्बन्धी उदारताको पूरी तरह अपनावे । यह और उसने अन्य धोंके साथ मिल-जुलकर रहनेका युग केवल उदार व्यक्तिके लिये है । संकीर्णताको समझौता किया। इससे उस धमका भी कल्याण लेकर जीनेवाले समाजका अन्त हो चुका है। अपने हुआ और अन्ततोगत्वा भारतभूमिके साथ उसका धर्म और समाजके विषयमें जानकारी प्राप्त करो एक समन्वयात्मक पहलू सामने आया । इसी मानस
और दूसरोंके प्रति सहिष्णुता, सहृदयता, उदारता, पृष्ठभूमिमें पिछले कई-सो वर्षों तक हिन्दूधर्म और समवाय और सम्मानका भाव रक्खो-यही वर्त- इस्लाम संस्कृतिक क्षेत्रमें आगे बढ़ते रहे। दूसरे धर्म मान कालके सभ्य सुसंस्कृत व्यक्तिका लक्षण है, तो हिन्दूधर्मके साथ अनायास ही प्रीति-बंधनमें यही एक सज्जन नागरिकका आदर्श होना चाहिये । बँध सके। आज भारतकी राष्ट्रीय आत्मा धर्मोंके . प्रायः हम कछुवेकी तरह अंगोंको समेटकर समन्वयकी ग्राहक है । हमें धर्म और संस्कृतिक संकीर्ण बन जाते हैं। दूसरे धर्मोंकी प्रशंसा सुनकर प्रति उदासीन होनेकी जरूरत नहीं है । बल्कि धर्मके हमारे मनकी पंखुड़ी नहीं खिलती। अपनी स्तुति सदाचारपरायण मार्गसे जीवनका समन्वय और सुनकर हम हर्षित होते हैं और यही सोचते हैं कि ऐक्य प्राप्त करना आवश्यक है । यही दृष्टिकोण दूसरोंसे हमें अपने धर्मके लिये ही श्लाघाके शब्द भविष्यके लिये सुरक्षित है । जैन, बौद्ध, हिन्दू, ईसाई मिलते रहें। यह स्थिति अच्छी नहीं। इस समय और मुसलमान जो अपनेको समन्वय और उदामनुष्यको बहुश्रुत होनेकी आवश्यक्ता है । जैनधर्म, रताके साँचेमें नहीं ढाल सकते उनके लिये यश और बौद्धधर्म, हिन्दूधर्म, सभी भारतीय संस्कृतिके अङ्ग जीवनके वरदान अत्यन्त परिमित हैं ।।
न्यू देहली, ता. २३-६-१६४६
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गौरव-गाथा
श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी
और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
[ लेखक-पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री ]
@@@@@@@ न्दी साहित्यिके जैन विद्वानोंमें जाना हुआ। आगरा में उस समय आध्यात्मिक ® ® पं० दौलतरामजीका नाम भी विद्वान पं० भूधरदासजीकी, जिन्हें पं० दौलतरामजी
छ ® उल्लेखनीय है। आप 5 वीं ने भूधरमल' नामसे सम्बोधित किया है अध्यात्मEnload शताब्दीके उत्तरार्ध और १६वीं शलीका प्रचार था । पं० भूधरदासजी आगरा में @
शताब्दीके प्रारम्भके प्रतिभा- स्याहगंजमें रहते थे। और श्रावकोचित षटकों में सम्पन्न विद्वान थे । संस्कृत
प्रवीण थे। तथा स्याहगंजके मन्दिरमें ही वे शास्त्र भाषापर आपका अच्छा अधि
२ इनका अधिक प्रचलित नाम पंडित भूधरदास था, . कार था। खासकर जैन पुराण
यह १८वीं शताब्दीके प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । इन्होंने ग्रन्थोंके विशिष्ट अभ्यासी और टीकाकार थे। इनके
सम्वत् १७८१ में जिनशतक और सं० १७८६ में पार्श्वपिताका नाम आनन्दराम था। और यह जयपुर
पराण की रचना की है। इन दोनों रचनाअोंकि अतिरिक्त स्टेटके वसवा' नामक ग्रामके रहने वाले थे । इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र काशलीवाल था। पंडित
आध्यात्मिक पदसंग्रह भी इन्हींका बनाया हुआ है जो
प्रकाशित हो चुका है। ये तीनों ही कृतियाँ बड़ी सुन्दर जीके मकानके सामने जिन मन्दिर था और आस
और सरल हैं। इनकी कविता भावपूर्ण सरल तथा मनमोहक पास प्रायः जैनियोंका ही निवास था । और वे जिन
है। इनके सिवाय 'कलियुगचरित' नामके ग्रन्थका और पूजन, शास्त्रस्वाध्याय, सामायिक तथा तत्त्वचर्चादि
भी पता चला है जो सं० १७५७ मेंआलमगीर (श्रीरङ्गधार्मिक कार्योंमें संलग्न रहते थे । परन्तु रामचन्द्र
जेब) के राज्यमें लिखा गया है। जैसा कि उस पुस्तकके मुमुक्षके संस्कृत 'पुण्यास्रव कथाकोष'की टीका प्रशस्ति
निम्न पद्यों से प्रकट है:के अनुसार पं० दौलतरामजीको अपनी प्रारम्भिक अवस्थामें जैनधर्मका विशेष परिज्ञान न था और न
सम्वत् सत्तरहसै सत्तावन जेठ मास उजियारा । उस समय उनकी विशेष रुचि ही जैनधर्मके प्रति थी
तिथि मावस अरुणाम प्रथम ही वारजु मंगलवारा ॥ "किन्तु उस समय उनका झुकाव मिथ्यात्वकी ओर हो रहा किसी बीच उनका कारणवश आगरा कही कथा भूधर सुकवि आलमगीरके राज।
पर स्लेश का एक कस्वा है जो आज भी नगर मुलकपुर पर बसे दया धर्मके काज ॥ उसी न र है। यह देहली से अहमदाबाद जाने पर इस समय उस ग्रन्थकी प्रति सामने न होनेसे यह वाली एण्ड सी० आई० आर० रेलवेका स्टेशन निश्चय करना कठिन है कि उन ग्रन्थ इन्हीं पं. भूधरदास
शास्त्रमण्डार भी है जो देखने योग्य है। की कृति है या अन्य किसी दूसरे भूधरदासकी।
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१० ]
अनेकान्त
प्रवचन किया करते थे। आध्यात्म ग्रन्थोंकी सरस समाप्त हुई । इसके बाद किसी समय पण्डित चर्चामें उन्हें विशेष रस आता था। उस समय दौलतरामजी उदयपुर गए । उदयपुरमें पण्डितजी श्रागरेमें साधर्मी भाइयोंकी एक शैली थी जिसे जयपुरके तत्कालीन राजा सवाई जयसिंह और उनके आध्यात्म शैलीके नामसे उल्लेखित किया जाता था। पुत्र माधवसिंहजीके वकील अथवा मन्त्री थे और और जो मुमुक्षु जीवोंको तत्त्वचर्चादि सत्कार्योंमें उनके संरक्षणका कार्य भी आप ही किया करते थे। अपना पूरा योग देती थी। यह आध्यात्मशैली वहाँ उस समय उदयपुरमें राणा जगतसिंह जी का राज्य विक्रनकी १७वीं शताब्दीसे बराबर चली रही थी था, उनकी पण्डितजी पर विशेष कृपादृष्टि रहती उसीकी वजहसे आगरावासी लोक-हृदयोंमें जैनधर्म थी। और वे उन्हें अपने पास ही में रखते थे। जैसा का प्रभाव अङ्कित होरहा था। उस समय इस शैली कि उनकी सं० १७६८ में रचित 'अध्यात्म बारहखड़ी' में हेमराज, सदानन्द, अमरपाल, विहारीलाल, की प्रशस्ति के निम्न पद्यों से प्रकट है:फतेचन्द, चतुर्भुज और ऋषभदासके नाम
। वसुवा का वासी यहै अनुचर जय को जानि ।
. . खासतौरसे उल्लेखनीय हैं। उनमें से ऋषभदासजीके उपदेशसे पंडित दौलतरामजीको जैनधर्म मंत्री जयसुत को सही जाति महाजन जानि ।। की प्रतीति हुई थी और वह मिथ्यात्वसे हटकर जय को. राखें राण पे रहे उदयपुर मांहि । सम्यक्त्वरूपमें परिणत हो गई थी। इसीसे पंडित जगतसिह कृपा करें राखे अपने पांहि ॥ जीने भगवान ऋषभदेवका जयगान करते हुए उनके उसके अतिरिक्त सं०२७६५ में रचित 'क्रियाकोष दासको सुखी होनेकी कामना व्यक्त की है। जैसा की प्रशस्ति में भी वे अपने को जयसुतका मन्त्री और कि उनके पुण्यास्रवकथाकोषटीका प्रशस्तिगत
- जयका अनुचर ब्यक्त करते हैं । चूंकि राणा निम्न दो पद्योंसे स्पष्ट है:
२-संवत सत्रहसौ विख्यात, तापरि धरि सत्तरि अरु सात। ऋषभदास के उपदेशसौं हमें मई परतीत ।
भादव मास कृष्ण पख जानि, तिथि पांचे जानों परवानि ।। रविसुतको पहलो दिन जोय, अरु सुरुगुरु के पीछे होय ।
बार है गनि लीज्यौ सही, ता दिन ग्रन्थ समापत सही।२६। ऋषभदेव जयवंत जग सुखी होहु तसुदास ।। ३-सन् १७२६ (वि० सं० १७८६) में जयपुर नरेश
सवाई जयसिंहजी माधोसिंह और उनकी माता चन्द्रक वरि जुगदास।।
को लेकर उदयपुर गये हैं और उनके लिये 'रामपुरा' का पंडित दौलतरामजीको आगरेमें रामचन्द्र मुमुक्षु परगना दिलाया गया है। देखो राजपूतानेका इतिहास के पुण्यास्रव कथाकोष' नामके कथा ग्रन्थको सुननेका
चतुर्थ खण्ड। अवसर मिला था और जिसे सुनकर उन्हें अत्यंत
इससे मालूम होता है कि सवाई जयसिंहजीने इसी
समय सन् १७२६ (वि० सं० १७८६) में पं० दौलतरामसुख हुआ, तथा उसकी भाषा टीका बनाई। उक्त
जीको भी उदयपुर रक्खा होगा, इससे पूर्व वे जयपुर या कथाकोषकी यह भाषा टीका वि० सं० १७७७ में
अन्यत्र रहकर राज्य कार्य करते होंगे।
४-"श्रानन्द सुत जयसुतको मन्त्री, . १. देखो पुण्यात्रव-टीका-प्रशस्ति ।
जयको अनुचर जाहि कहैं ।।
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श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
जगतसिंहजी द्वितीयका राज्य संवत् १७६० से १८०८ ओंका विस्तृत वर्णन दिया हुआ है। और दूसरा तक रहा है। अतः पण्डितजीका सं० १७६८में जगत- ग्रन्थ 'अध्यात्म बारहखड़ी' है जिसे उन्होंने संवत् सिंहजीकी कृपा का उल्लेख करना समुचित ही है। १७६८ में समाप्त किया था । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति क्योंकि वे वहां सं० १७६५ से पूर्व पहुंच चुके थे। में उस समयके उदयपुर निवासी कितने ही साधर्मी
परिडतजीने वहां राजकार्योंका विधिवत् संचा- सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिससे पण्डित लन करते हुए जैन ग्रन्थोंका अच्छा अभ्यास किया जीके प्रयत्नसे तत्कालीन उदयपुरमें साधर्मी सज्जन
और अपने दैनिक नैमत्तिक कार्योंके साथ गृहस्थो- गोष्ठी और तत्त्वचर्चादिका अच्छा समागम एवं चित देवपूजा और गुरु उपासनादि षट्कर्मोंका भी प्रभाव होगया था। अध्यात्मबारहखड़ी की प्रशस्ति भलीभाँति पालन किया। साथ ही वहाँके जैनियोंमें में दियेहुए साधर्मी सज्जनोंके नाम इस प्रकार हैं:धार्मिक संस्कारोंकी दृढ़ता लानेके लिये शास्त्र स्वा- पृथ्वीराज, चतुर्भुज, मनोहरदास, हरिदास, वखताध्याय और पठन-पाठनका कार्य भी किया। जिससे वरदास, कर्णदास और पण्डित चीमा इन सबकी उस समय वहांके स्त्री-पुरुषोंमें धर्मका खासा प्रचार प्रेरणा एवं अनरोधसे उक्त ग्रन्थकी रचना की गई है हो गया था । और वे अपने आवश्यक कर्तव्योंके जैसाकि ग्रन्थप्रशस्तिगत निम्न पद्योंसे मालूम होता साथ स्वाध्याय, तत्त्वचिंतन और सामयिकादि कार्यों है:का उत्साहके साथ विधिवत् अनुष्ठान करते थे। . इसके अतिरिक्त उन्होंने वहाँ रहते हुए प्राचार्य उदियापुर में रुचिधरा कैयक जीव सजीव । वसुनन्दीके उपासकाध्ययन ( वसुनन्दीश्रावकाचार) पृथ्वीराज चतुभुजा श्रद्धा धरहिं अतीव ॥५॥ की एक टब्बा टीकाका निर्माण भी किया था जिसे दास मनोहर अर हरी द्वै वखतावर कर्ण । उन्होंने वहाँके निवासी सेठ वेलजीके अनुरोधसे
केवल केवल रूपकों, राबै एकहि सर्ण ॥६॥ पूर्ण किया था। यह (टब्बा टबा टीका कब बनी, यह ठीक मालूम
चीमा परिडत आदि ले, मनमें धरिउ विचार । नहीं हो सका। पर जान पड़ता है कि इसका निर्माण बारहखड़ा हा भात्त.मय, ज्ञानरूप आवकार ॥७॥ • भी सं० १८०८ से पूर्व ही हुआ है, क्योंकि इसके भाषा छन्दनि माहि जो, अक्षर मात्रा लेय । बाद उनका उदयपुर रहना निश्चित नहीं है। प्रभके नाम बखानिये, समुझे बह त सनेय ॥८॥ - इसके सिवाय ऊपर उल्लिखित उन दोनों ग्रन्थों
। इह विचार कर सब जना, उर धर प्रभु की भक्ति । का भी प्रणयन किया जिनमें 'क्रियाकोष' सं० १७६५ की रचना है और उसमें जैन श्रावकोंकी ५३ क्रिया- बोल दोलतराम सौं करि सनेह रस व्यक्ति ॥६॥
१-देखो रायमल्लका परिचय, वीरवाणी अङ्क २। २-उदयापुरमें कियौ वखान, दौलतराम आनन्द सुत जान। वांच्यो श्रावक वृत्त विचार, वसुनन्दी गाथा अविकार ॥ बोले सेठ बेलजी नाम, सुन नप मंत्री दौलतराम । टबा. होय जो गाथा तनो, पुण्य उपजै जियको धनो॥ सुनिके दौलत वैन सुवैन, मन भरि गायो मारग जैन ।
-टबा टीका प्रशस्ति ।
३-संवत सत्रहसौ अट्ठाणव, फागुनमास प्रसिद्धा । शुक्ल पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३०॥ जबे उत्तराभाद्र नक्षत्रा, शुक्लजोग शुभकारी । बालव नाम करण तब वरतै, गायो ज्ञान विहारी ॥३॥ एक मुहूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा । भगतिमाल त्रिभुवन राजाकौं, भेंट करी परसिद्धा ॥३२॥
-अध्यात्म बारहखड़ी
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- अनेकान्त
बारहखड़ी करिये भया, भक्ति प्ररूप अरूप। का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। इनके सत्तारूढ़ हो
जाने पर सम्भवतः सम्बत् १८०८ या १८०६ में पं० अध्यातमरसकी भरी, चर्चा रूप सुरूप ॥१०॥
" दौलतरामजी उदयपुरसे जयपुर आगए होंगे; क्योंकि इस तरह पण्डित दौलतरामजीका अधिकांश उनका वहांका कार्यक्रम प्रायः समाप्त हो गया था। समय धर्म ध्यानपूर्वक सजन गोष्टीमें या ग्रन्थके और जिनके वे मन्त्री थे वे भी अब जयपुराधीश थे, अध्ययन, मनन, ग्रन्थ निर्माण या टीकादिकार्यमें तब मन्त्रीका उदयपुर में रहना किसी तरह भी व्यतीत होता था। पण्डितजीका हृदय उदार और सम्भव प्रतीत नहीं होता । अत: पं० दौलतरामजी दयालु था, उनका रहन सहन सादा था, उनकी उदयपुरसे जयपुरमें आकर ही रहने और कार्य करने पवित्र भावना जैनधर्मके अमर तत्त्वोंकी श्रद्धा एवं लगे होंगे। सम्वत् १८२१ की ब्र० रायमल्लजीकी
आस्थासे सराबोर थी। इस तरह राज्यादिकार्योंके पत्रिकासे ज्ञात होता है कि उस समय उसमें पद्मनियमित समयसे बचा हुआ शेष समय प्रायः तत्त्वो- पुराण की २० हजार श्लोक प्रमाण टीकाके बनजाने चिंतन और सामायिकादि कार्योके अनुष्ठानमें व्यतीत की सूचना दी हुई है, इतनी बड़ी टीकाके निर्माण होता था। पंडितजीका खास गुण यह था कि वे में कमसे कम चार-पांच वर्षका समय लम जाना कुछ अपने उत्तरदायित्वका पूरा पूरा ध्यान रखते थे और अधिक नहीं है। टीकाका शेष भाग बादमें लिखा कार्यको निर्विघ्न सम्पन्न करने में अपना पूरा योग गया है, और इस तरह वह टीका वि० सम्वत् देते थे। इसीसे राजकार्यमें उनका महत्त्वपूर्ण स्थानः १८२३ में समाप्त हुई है। यह टीका जयपुरमें ही था, और राज्य-कायकतोओंके साथ मैत्री-सम्बन्ध ब्रह्मचारी रायमल्ल की प्रेरणा एवं अनुरोध से बन भी था। उस समय जयपुरके राजकीय क्षेत्रमें अधि-' गई है, उसीसे टीकाकारने ब्रह्मचारी रायमल्लका काँश जैन ऊँचे ऊँचे पदोंपर प्रतिष्ठित थे और राज्य निम्न शब्दों में उल्लेख किया है। को सर्वप्रकारसे सम्पन्न बनानेमें अपना सौभाग्य रायमल्ल साधर्मी एक, जाके घटमें स्व-पर-विवेक। मानते थे। इस तरह उदयपुरमें कार्य करते हुए उन्हें काफी समय हो चुका था, उदयपुरसे वे कब जयपुर
दयावान गुणवन्तसुजान, परउपमारी परमनिधान॥
। आये। इस सम्बन्धमें निश्चय पूर्वक तो कुछ नहीं इस पद्यसे ब्रह्मचारी रायमल्लके व्यक्तित्वका कहा जा सकता । पर इतना जरूर मालूम होता है कितना ही परिचय मिल जाता है और उनकी विवेककि वे संवत् १८०६ या १८०८ तक ही उदयपुरमें शीलता, क्षमा और दया आदि गुणोंका परिचय रहे हैं, क्योंकि सवाई जयसिंहके सुपुत्र माधवसिंह भी प्राप्त हो जाता है। पं० टोडरमलजीने उन्हें जीके बालक हो जानेपर संवत् १८०६ या १८०७ में विवेकसे धर्म का साधक बतलाया है। वे विवेकी । जयपुर की राजगद्दीके उत्तराधिकारका विवाद छिड़ा क्षमावान, बालब्रह्मचारी, दयालु और अहिंसक थे, तब जयपुर नरेश ईश्वरीसिंहजीको विषपान द्वारा उनमें मानवता टपकती थी, वे जैनधर्मके श्रद्धानी थे। देहोत्सर्ग करना पड़ा था; क्योंकि ईश्वरीसिंहजीमें और उसके पवित्रतम प्रचारकी अभिलाषा उनकी उस समय इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि वे मेवाड़ा- रगरगमें पाई जाती थी और वे शक्तिभर उसके धीश राणा जगतसिंहजी और महाराष्ट्र नेता होल्कर प्रचारका प्रयत्न भी करते थे। प्राचीन जैनग्रन्थोंके के समक्ष विजय प्राप्त कर सकें । अतएव उन्हें मज- रायमल्ल साधर्मी एक, धर्म सधैया सहित विवेक । बूर होकर आत्मघातके कायमें प्रवृत्त होना पड़ा। सोनाना विध प्रेरक भयो, तब यहु उत्तम कारज थयौं । ईश्वरीसिंहजीके बाद माधवसिंहजीको जयपुर
-लब्धिसार प्रशस्ति ।
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श्री पण्डितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
उद्धार के साथ उनकी हिन्दी टीकाओंके कराने तथा उन्हें अन्यत्र भिजवाने का प्रयत्न भी करते थे । समयसारादि अध्यात्मग्रन्थोंकी तत्त्वचर्चा में उन्हें बड़ा रस आता था, और वे उससे आनन्दविभोर हो उठते थे । सं० १८२१ की लिखी एक निमंत्रण पत्रिका से उनकी कर्त्तव्यपरायणता और लगनका सहज ही आभास हो जाता है । वे विद्वानोंको कार्यके लिये स्वयं प्रेरित करते थे और दूसरोंसे भी प्रेरणा दिल वाते थे । उनकी प्रेरणाके फलस्वर मधुरफल लगे उससे पाठक परिचित ही हैं। पद्मपुराण टीका–
पुण्यास्रवकथाकोष, क्रियाकोष, अध्यात्म बारह खड़ी और वसुनंदिके उपासकाध्ययनकी टब्बा टीकाके अतिरिक्त पाँच या छह टीका ग्रंथ और हैं जो उक्त पंडित दौलतरामजीकी मधुर लेखनीके प्रतिफल हैं। आज पंडितजी अपने भौतिक शरीरमें इस भूतल पर नहीं हैं, परन्तु उनकी अमर कृतियाँ 'जैनधर्म प्रचार की भावनाओंसे ओत-प्रोत हैं, उनकी भाषा बड़ी ही सरल तथा मनमोहक हैं । इन टीका ग्रंथों की भाषा ढूंढाड़ देश की तत्कालीन हिन्दी गद्य है जो ब्रजभाषा के प्रभावसे प्रभावित है, उसमें कितना माधुयें और कितनी सरलता है यह उनके अनुशीलनसे सहज ही ज्ञात हो जाता है । उन्नीसवीं शताब्दी की उनकी भाषा कितनी परिमार्जित और मुहावरेदार है यह उसके निम्न उदाहरण से स्पष्ट
"हे देव ! हे विज्ञानभूषण ! अत्यंत वृद्ध अवस्थाकरिहीन शक्ति जो मैं सो मेरा कहा अपराध ? मो पर आप क्रोध करो सो मैं क्रोधका पात्र नाहीं, प्रथम अवस्था विषै मेरे भुज हाथीके सुड समान हुते, उरस्थल प्रबल था अर जांघ गजबन्धन तुल्य हुतीं, र शरीर दृढ़ हुता अब कर्मनिके उदयकरि शरीर अत्यंत शिथिल होय गया। पूर्व ऊँची नीची धरती राजहंस की न्याई उलंघ जाता, मन
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वांछित स्थान पहुंच जाता । अब अस्थानकसे उठ भी नहीं जाय है । तुम्हारे पिताके प्रसादकरिं में यह शरीर नानाप्रकार लड़ाया था सो अब कुमित्र की न्याई दुःख का कारण होय गया, पूर्वे मुझे वैरीनिके विदारने की शक्ति हुती सो अब लाठी के अवलम्बनकरि महाकष्टसे फिरूँ । बलवान पुरुषनिकरि खींचा जो धनुष वा समान वक्र मेरी पीठ हो गई है अर मस्तकके केश अस्थिसमान श्वेत 'होय गये हैं और मेरे दांत गिर गये, मानो शरीर का आता देख न सकें । हे राजन् ! मेरा समस्त उत्साह विलय गया, ऐसे शरीरकर कोई दिन जी ऊँहूँ सो बड़ा आश्चर्य है । जरासे अत्यंत जर्जर मेरा शरीर सांझसकारे विनश जायगा । मोहि मेरी कायाको सुध नाहीं तो और सुध कहां से होय । पके फल समान जो मेरा तन ताहि काल शीघ्र ही भक्षण करेगा, मोहि मृत्यु का ऐसा भय नाहीं जैसा चाकरी चूकने का भय है, अर मेरे आपकी आज्ञा ही का अवलंबन है और अवलम्बन नाहीं, शरीरकी अशक्तिता करि विलंब होय ताकेँ कहा करूँ । हे नाथ मेरा शरीर जराके अधीन जान कोप मत करो कृपा ही करो, ऐसे वचन खोजेके राजा दशरथ सुनकर वामा हाथ कपोलके लगाय चिन्तावान हॉय विचारता भया, अहो ! यह जल की बुदबुदा समान असार शरीर क्षणभंगुर है अर यह यौवन बहुत विभ्रमको धरै संध्या के प्रकाश समान अनित्य है
अज्ञान का कारण है, विजलीके चमत्कार समान शरीर र सम्पदा तिनके अर्थ अत्यंत दु:ख के साधन कम यह प्राणी करें है, उन्मत्त स्त्रीके कटाक्ष समान चंचल, सर्पके फरण समान विषके भरे, महातापके समूहके कारण ये भोग ही जीवनकौँ ठगे हैं, तातैं महा ठग हैं, यह विषय विनाशीक, इनसे प्राप्त हुआ जो दुःख सो मूढों को सुखरूप भासै है, ये मूढ जीव विषयों की अभिलाषा करें हैं और इनको मनवांछित विषय दुष्प्राप्य हैं, विषयोंके सुख देखने मात्र मनोज्ञ हैं, अर इनके फल तिकटुक हैं,
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अनेकान्त
विषय इन्द्रायणके फल समान हैं, संसारी जीव हैं हैं बड़ा आश्चर्य है, जे उत्तमजन बिषयों को विषतुल्य जानकरि तजैं हैं अर तप करें हैं ते धन्य हैं, अनेक विवेकी जीव पुण्याधिकारी महाउत्साहके धरणहारे जिना शासन के प्रसादसे aaa प्राप्त भये हैं, मैं कब इन विषयों का त्याग कर स्नेह रूप कीचसे निकस निवृत्ति का कारण जिनेन्द्रका मार्ग अरूंगा। मैं पृथ्वीकी बहुत सुखसे प्रतिपालना करी, अर भोग भी मनवांछित भोगेर पुत्र भी मेरे महा-पराक्रमी उपजे । अब भी मैं वैराग्यमें विलम्ब करू तो यह बड़ा विपरीत है, हमारे वंश की यही रीति है कि पुत्र को राजलक्ष्मी देकर वैराग्यको धारण कर महाधीर तप करनेको वनमें प्रवेश करे। ऐसा चिन्तवन कर राजा भोगति उदासचित्त कई एक दिन घरमें रहे ।"
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पद्मपुराण टीका पृ० २६५-६ इसमें बतलाया गया है कि राजा दशरथने किसी अत्यंत वृद्ध खोजेके हाथ कोई वस्तु रानी केकईके पास भेजी थी जिसे वह शरीर की अस्थि रतावश देर से पहुंचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य रानियोंके पास पहले पहुंच चुकी थी । अतएक head ने राजा दशरथसे शिकायत की, तब राजा दशरथ उस खोजे पर अत्यंत क्रुद्ध हुए, तब उस खोजेने अपने शरीर की जर्जर अवस्थाका जो परिचय दिया है उससे राजा दशरथको भी सांसारिक भोगोंसे उदासीनता हो गई, इस तरह इन कथा पुराणादि साहित्यके अध्ययनसे आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है ।
ऊपरके उद्धरणसे जहाँ इस ग्रंथकी भाषाका सामान्य परिचय मिलता है वहाँ उसकी मधुरता एवं रोचकताका भी आभास हो जाता है। पंडित दौलतरामजीने पांच छह ग्रंथोंकी टीका बनाई है। पर उन सबमें सबसे पहले पुण्यात्रवकथाकोषकी और सबसे बादमें हरिवंशपुराणकी टीका बनकर
समाप्त हुई है अर्थात् सं० १७७७ से लेकर सं १८२६ तक ५२ वर्षका अन्तराल इन दोनों टीका ग्रंथों के मध्य का है।
इस टीका ग्रंथ का मूल नाम 'पद्मचरित' है । उसमें सुप्रसिद्ध पौराणिक राम, लक्ष्मण और सीता के जीवन की झांकी का अनुपम चित्रण किया गया है। इसके कर्ता आचार्य रविषेण हैं जो विक्रम की आठवीं शताब्दीके द्वितीय चरण में ( वि० सं० ७३३ में ) हुए हैं। यह ग्रंथ अपनी सानीका एक ही है । इस ग्रंथकी यह टीका श्री ब्रह्मचारी रायमल्लके अनुरोधले संवत् १८२३ में समाप्त हुई है । यह टीका जैनसमाजमें इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठनपाठन प्राय: भारतवर्ष के विभिन्न नगरों और गावों में जहाँ जहाँ जैन वस्ती हैं वहांके चैत्यालयों में और अपने घरोंमें होता है । इस ग्रन्थकी लोकप्रियता का इससे बड़ा सुबूत और क्या हो सकता है कि इसकी दश दश प्रतियाँ तक कई शास्त्रभंडारोंमें देखी गई हैं। सबसे महत्वकी बात तो यह है कि इस टीका को सुनकर तथा पढ़कर अनेक सज्जनों की श्रद्धा जैनधममें सुदृढ़ हुई है और अनेकों की चलित श्रद्धा को दृढ़ता भी प्राप्त हुई है। ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं जिन्होंने इस टीका ग्रन्थके अध्ययनसे अपने को जैनधर्म में आरूढ़ किया है । उन सबमें स्व० पूज्य बाबा भागीरथजी वर्णी का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है जो अपनी आदर्श त्यागवृत्तिके द्वारा जैनसमाजमें प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं। आप अपनी बाल्यावस्थामें जैनधर्मके प्रबल विरोधी थे और उसके अनुयायियों तक को गालियाँ भी देते थे; परन्तु दिल्लीमें जमुना स्नान को रोजाना जाते समय एक जैनसज्जन का मकान जैनमंदिर के समीप ही था, वे प्रतिदिन प्रात:दिन आपने उसे खड़े होकर थोड़ी देर सुना और काल पद्मपुराण का स्वाध्याय किया करते | एक
१ संवत् श्रष्टादरा सतजान, ताऊपर तेईस खान | शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमास रोहिणी रिखिसार ॥
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श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ
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मनकर बड़ी प्रसन्नता हुई, और विचार किया कि ब्रह्मचारी रायमल्ल का नाम तो उल्लेखनीय है ही, यह तो रामायण की ही कथा है मैं इसे जरूर किन्तु उन्होंने अन्य सज्जनोंसे भी प्रेरणा कराई है। सनूंगा और पढ़ने का अभ्यास भी करूंगा, उस रतनचन्द मेघडिया, पंडित टोडरमलजीके हरिचन्द दिनसे वे रोजाना उसे सनने लगे और थोड़ा थोड़ा और गुमानीराय नामके दोनों पुत्रों बालब्रह्मचारी पढ़ने का अभ्यास भी करने लगे। यह सब कार्य देवीदासजी, जिन्होंने आचार्य नरेन्द्रसेनके सिद्धान्तउन्हीं सज्जनके पास किया, अब आपकी रुचि पढ़ने सार ग्रन्थकी टीका सं० १३३८ में बनाकर समाप्त तथा जैनधमका परिचय प्राप्त करनेकी हुई और की है, और जयपुर राज्यके तत्कालीन सुयोग्य उसे जानकर जैनधर्ममें दीक्षित हो गए। वे कहते थे दीवान रतनचन्दजी इन सबके अनुरोधसे यह टीका कि मैंने पद्मपुराणका अपने जीवन में कई बार सं० १८२४ में समाप्त हुई है। स्वाध्याय किया है वह बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। पं० टोडरमलजीके असमयमें दिवंगत होजाने इस तरह न मालूम उक्त कथा ग्रन्थ और उसकी इस टीकासे जैनधर्मका प्रभाव तथा लोगोंकी श्रद्धाका
से 'पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी उनकी अधूरी टीकाको भी कितना संरक्षण एवं स्थिरीकरण हुआ है । इसी
आपने उक्त रतनचन्दजी दीवानके अनुरोधसे सं. तरह पं० दौलतरामजी की अन्य आदिपुराण, हरि
१८२७ में पूर्ण किया है और इसके बाद हरिवंशपुराण वंशपुराणकी टीकाएँ हैं जो कि उसी मधुर एवं
की टीका उक्त रायमल्लजीकी प्रेरणा तथा अन्य प्रांजल भाषा को लिये हुए है और जिनके अध्ययन
साधर्मी भाइयोंके अनुरोधसे सं० १८२६ में राजा से हृदय गद्गद् हो जाता है और श्रद्धासे भर जाता
पृथ्वीसिंहके राज्यकालमें समाप्त हुई है । इसके है । इसका प्रधान कारण टीकाकार की आन्तरिक
सिवाय परमात्म-प्रकाशकी टीका कब बनी अह भद्रता, निर्मलता, सुश्रद्धा और निष्काम साहित्य कुछ मालूम नहीं हो सका। बहुत संभव है कि वह सेवा है। पंडितजीके टीका ग्रन्थोंसे नसमाजका इनसे पूर्व बनी हो। इन टीका ग्रन्थोंके अतिरिक्त बड़ा उपकार हुआ है, और उनसे जैनधर्मके प्रचार श्रीपालचरितकी टीका भी इनकी बनाई हुई बतलाई में सहायता भी मिली है।
जाती है परन्तु वह मेरे देखने में अब तक नहीं आई, पद्मपुराणकी टीकाके एक वर्षके बाद प्रादि इसीसे यहाँ उस पर कोई विचार नहीं हो सका। पुराणकी टीका भी पूर्ण हुई जिसे वे पहलेसे कर रहे
वीर सेवा मन्दिर, सरसावा थे। इस टीकाके बनानेका अनुरोध करने वालोंमें
ता०१६-६-४
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कवि पद्मसुंदर और दि० श्राक्क रायमल्ल
[ लेखक - श्री अगरचन्द नाहटा ]
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कवि पद्मसुन्दरका परिचय मैंने अनेकान्तके वर्ष ४ ०८ में दिया था। उसके पश्चात् अनेकान्त वर्ष ७ अं० ५-६ में श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी का एक लेख "पं० पद्मसुन्दरके दो ग्रन्थ " शीर्षक प्रकाशित हुआ' है । इस लेख में आपने भविष्यदत्त चरित्र और रायमल्लाभ्युदय ग्रन्थ का परिचय देनेके साथ साथ इन ग्रन्थों का निमोण जिन उदार चरित्र विद्याप्रेमी दि० श्रावक अग्रवाल - गोइलगोत्रीय चौधरी रायमलके अनुरोधसे हुआ है उनके वंशका भी परिचय, जो कि इन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में पाया जाता है दिया है। पर प्रेमीजीको प्राप्त भविष्यदत्त चरित्र प्रतिका अंतिम पत्र नहीं मिलनेसे उक्त
प्रशस्ति अधूरी रह गई थी। कुछ दिन हुए मुझे तीर्थयात्राके प्रवासमें पालणपुरके श्वेताम्बर जैनभंडार के अवलोकन का सुअवसर प्राप्त हुआ था । वहाँ पद्मसुन्दरकी पार्श्वनाथ चरित्र की प्रति उपलब्ध हुई थी, जिसके अंत में भी वही प्रशस्ति पूर्ण प्राप्त हुई है। अतः इस लेख में उसे प्रकाशित किया जारहा
१ - प्रस्तुत लेखमें आपने पद्मसुन्दरजीके दि० पांडे होनेकी कल्पना की थी पर यह लिखते समय उन्हें मेरा लेख स्मरण नहीं रहा इसीलिये की थी । जब मैंने आपको अपने लेख पढ़ने को सूचित किया तो उत्तरमें आपने उसका संशोधन कर लिया ।
२ – इसका रचना काल अभीतक निश्चित नहीं था, विन्टर नीजने Indian Literature V. II. P. ५१६ में इसका समय १६२२ लिखा था पर मुझे इसकी १६१६ की लिखित प्रति उपलब्ध होनेसे मैंने इसका उल्लेख अपने पूर्व लेखमें किया था पर पालणपुरकी प्रतिसे वह सं० १६१२ निश्चित हो जाता है ।
"
है । प्रेमीजी द्वारा प्रकाशित प्रशस्तिमें भट्टारक परम्पराके कुछ नाम छूट गए हैं एवं कहीं २ पाठ भी अशुद्ध छपा है । उसका भी इस प्रशस्तिसे संशोधन हो जाता है एवं पार्श्वनाथचरित्रका रचना काल मी जो अभी तक अज्ञात था, निश्चित हो जाता है । लेखन प्रशस्तिसे एक और भी महत्वपूर्ण बातका पता चलता है वह यह है कि प्रेमीजीका प्रकाशित पुष्पिका लेख सं० १६१५ के फाल्गुन सुदी ७ बुधवारका है उसमें रायमल्लके ३ पुत्रों का उल्लेख है. और यह प्रशस्ति सं० १६१७ चैत्र वदी १० की लिखित है उसमें आपके ५ पुत्रोंका उल्लेख है अर्थात् इन २ वर्षोंमें उनके २ और पुत्र भी हो चुके थे । इन पुत्रोंमें से प्रथम पुत्रकी पत्नीका ही इसमें उल्लेख हैं अतः अन्यं पुत्र अवस्था में छोटे थे, जान पड़ता है। प्राप्त पुष्पिका लेखके अनुसार भट्टारक परंपरा एवं रायमल्लकी वंशपरम्पराकी तालिका इस प्रकार ज्ञात होती है ।
काष्ठा संघ, माथुरान्वय पुष्करगण भट्टारक — उद्धरसेन
देवसेन
विमलसेन
धर्मसेन
भावसेन
सहस्रकीर्ति
गुणकीर्त
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यशकीर्ति
मलकीर्ति
गुणभद्रसूरि
भानुकीर्ति
कुमारसेन
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किरण १]
कवि पद्मसुन्दर और दि० श्रावक रायमल्ल
चौधरी रायमल्लकी वंश परम्परा
अग्रोतान्वय-गोयलगोत्र
चौधरी छाजू १ हाल्हा २ बूढणु ३ नरपालु ४ नरसिंघु ५ भोजा
(पत्नी मदनाही)
१ नानू २ ऋत्विचन्द .
३ सहणपालु (पत्नी ओढरही
(पत्नी गाल्हाही २ रामाही) १ सुखमलु २ पहाड़मलु ३. जसमलु
(पत्नी पोखणही) १ रायमल्ल
भवानीदास
(पत्नी माणिकही) (पत्नी १ ऊधाही २ मीनाही) १ अमीचन्द' २ उदैसिंधु ३ सालिवाहणु ४ धमदास ५ अनन्तदास
(जेठमलही) : मेरे पूर्व लेखके पश्चात् पद्मसुन्दरजीका 'अकबर - तद्वत् साहि शिरोमणीकबरक्ष्मापालचूडामणेशाहि शृङ्गार दर्पण' ग्रन्थ बीकानेर राजकी गंगा ओरि- मान्याः पंडितपद्मसुन्दर इहाभूत् पंडित वातजित् ।। यन्टल सीरीजसे प्रकाशित हो चुका है उसमें आयेहुए कवि पद्मसुन्दरका अकबरसे कितना परम्परागत वर्णनके अनुसार इस प्रन्थका रचना काल प्रायः सं० एवं घनिष्ट सम्बन्ध था कवि ऋषभदास हीरविजय १६१७ (अर्थात् अकबरके राज्यारोहणके समयके लग- सरिरासमें आपके सम्बन्धमें अकबरके मुहसे भगका ही ) निश्चित होता है एवं मेरे विद्वान मित्र निम्नोक्त परिचय (हीरविजयसरिजी) को दिलमि. डा० दशरथ शमाने ग्रन्थकी लेखन प्रशस्तिके वाताहैनिम्नोक्त श्लोक द्वारा पद्मसुन्दरसे अकबरका सम्बन्ध
कहि अकबर मा संयमी हेतो, पदमसुन्दर तरुनाम । परम्परागत' सिद्ध किया है अर्थात् अकबरका जैनधर्म
चार ध्वजा धरतोपोसारमें, पंडित प्रति अभिराम । के प्रति आकर्षण उसकी बाल्यावस्था से ही सिद्ध ज्योतिष वैद्यक मां ते पूरो, सिद्धान्तीपरमाण । होता है, क्योंकि पह्मसुन्दरके प्रगुरुकासम्बन्ध बाबर अनेक ग्रन्थ तेणि पोते कीधा, जीती नहीं को जाण ।
और हुमायु के साथ पहले से चला आ रहा था। कालि ते पंडित पण गुदर्यो, अकबर कहि दुख थाइ । वह श्लोक इस प्रकार है:
क्याकरि . न चले कछु हमका, एतो बात खुदाइ । . "मालो बाबर भूभुजोऽवजयराटू तद्वत् हुमाऊं नृपो
.... अर्थात् पद्मसुन्दरके स्वर्गवाससे अकबरको ऽस्पर्थ प्रतीमनाः सुमान्यमकरोदानन्दरामाभिध
बड़ा दुःख हुआ था और पद्मसुन्दरजी ज्योतिष आपके कथनानुसार तो प्रकवरके उदारता, दया, वैद्यक एवं सिद्धान्तके पूरे पण्डित थे उन्होंने अनेकों सर्वधर्म समभाव आदिकर गुणोंके विकाशमें इस जैन- ग्रन्थ बनाये और ४ ध्वजायें उनके आश्रमपर विद्वत्ता विद्वान्का परम्परागत सम्बन्ध भी कारण हो सकता है। सूचक फहराती थीं।
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अनेकान्त
[वर्ष १० .
मा.
..
आपकी विद्वत्ताका पता तो रायमल्लके लिये श्रावककी एवं श्वेताम्बर विद्वानके साथ दि० श्रावक रचित उपर्युक्त ग्रन्थसे भी लगता है आपके कितने की आदर भावनाका सुन्दर आदर्श हमें राजमल्लके अच्छे एवं आशु कवि थे यह भी इनके रचनाकालके छंदोविद्या पद्मसुन्दरजीके ग्रन्थ त्रय उपस्थित करते निर्देशसे ही सिद्ध होता है । सं० १६१४ के कातिक हैं । आज तो इस आदर्शको अपनानेकी बड़ी सुदी ५ को आपने 'भविष्दत्तकथा' की रचना की भारी आवश्यकता है। और सं०१६१५ के जेठ सदी ५ को रायमल्लाभ्युदय अब पाश्वनाथचरित्रकी रचना एवं लेखनकी ग्रन्थ बना डाला और कुछ महीनोंमें ही सं० १६१५ प्रशस्ति दीजाती है। इसकी नकल पालणपुर भंडारसे के मार्ग शीर्ष शुक्ला १४ को पार्श्वनाथकालन भी करके भेजने की कृपा पूज्य बुद्धि मुनिजी महाराजने रचा गया अर्थात् १ वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया कि की है एतदर्थ मैं आपका आभारी हूँ। आपने ३ ग्रन्थों की रचना कर डाली । आपके अन्य
पार्श्वनाथ चरित्र ग्रन्थों का उल्लेख मैं अपने पूर्व लेखमें कर चुका हूँ,
श्रादि-विशुद्ध सिद्धांत मनंतदर्शनं, उसके पश्चात् “राजप्रश्नीय नाट्य पदभंजिका"
स्फुरच्चिदानंद महोदयोदितम् । नामक एक और ग्रन्थ बीकानेर स्टेटकी अनूप
विनिद्रचंद्रोज्वलकेवलप्रभं, संस्कृत लायब्र रीमें उपलब्ध हुआ है।
प्रणोमि चंद्रप्रभतीर्थनायकम् ॥१॥ सम्राट अकबरसे इतना गहरा सम्बन्ध होने पर नमदमकिरीटज्योतिरुद्यतेतिसाहिः भी उसकी विद्वत् सभाके. सभासदोंकी सूची में स्फुरदवगममग्नानंतसंवित्तिलक्ष्मीः ।।
आपका नाम न होना अखर रहा है पर मेरे विद्वान मन इव शुचिदेहं देहवन्सानसंस्तामित्र, डा० दशरथशर्माने आइनेअकबरीमें दीगर त्सकलसुखविभूत्यै चारुचंद्रप्रभोऽयम् ॥२॥ सचीको ध्यानसे पढ़कर इस शंकाका भी निवारण
उग्रायोतकवंशजः शुचिमतिस्तस्वार्थविद्यापटुकर दिया है उनके कथनानुसार आइनेअकबरी
यस्याभिज्ञमतल्लिकाभिरनिशं गोष्ठी स्फुटं रोचते ।। आइन ३० में ( Blockman P. 537-547) १४०
मान्यो राजसभासु सजनसमाशंगारहारो भुवि, विद्वान सभासदोंकी सूची दीगई है उसमें ३३ हिन्दू
श्री जैनेंद्रपदद्वयार्थनिरतः श्रीरायमल्लोऽभवत् ॥३॥ थे। उनमें ५ विभाग थे जिनमेंसे प्रथम विभागमें
तेनाभ्यर्थनयाऽतिथि सविनयं तेजाः पुरः स्थः सतां, "परमिन्दर" नाम आ जाता है यह उर्दू लिपिकी
मान्यः संसदि पद्मसुन्दरकवि षटूतर्कसक्रांतधीः विचित्रताके कारण पद्मसुन्दरका बिगड़ा हुआ
काव्यं श्रीश्रु तपंचमीफलकथा संदर्भगर्भ मम, . नाम ही प्रतीत होता है।
श्रु त्यर्थं क्रियतां सुकोमलमतस्तञ्च दमारभ्यते ॥४॥ __ जैनइतिहासके लिये यह महत्वपूर्ण बात है कि सम्राट अकबरके पिता और प्रपिता हुमायु एवं
अंत-आनंदोहय पर्वतैकतरणे रानंदमेरोगुरोः, बाबरसे भी पद्मसुन्दरजीके प्रगुरू आनंदराम सन्मा
शिष्यः पंडित मौलिमणिः श्रीपद्ममेरुगुरुः । (?)
तच्छिष्योत्तमपद्मसुन्दर कविः श्रीपार्श्वनाथाह्वयं, नित थे एवं आइनेअकबरीमें पद्मसुन्दरजीका नाम प्रथमश्रेणीके विद्वानोंमें पाया जाता है।
__काव्यंनव्यमिदं चकार सरसालंकार संदर्भितम् ।।
वंशेऽप्रोतकनाम्निगोइलमहागोत्र पवित्रीकृती, पद्मसुन्दरजीका चौधरी रायमल्लजीसे जो. विख्यातो नरसिंहसाधुरभवत्सिहो नराणामिव। . धर्म प्रेम पाया जाता है वह भी हमारे लिये अनु- श्रद्धालुर्जिनपादपंकजरतो राज्ञां सदस्सुस्तुतो, .... करणीय आदर्श है । दि० विद्वानके साथ श्वेताम्बर दाताज्ञावृशिरोमणिः सुकृतिनामग्रेसरः सम्मतः ॥४॥
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किरण ११
तदीयपुत्रौ नयशीलशालिनौ,
धार्मिक ख्यात गुणो बभूवतः । जिनेंद्र गुर्वागमभक्तिबन्धुरौ, क्रमेण नानु सहण समाह्वयौ ॥६६॥ तयोस्तु नान्वाख्य इति स्फुटौजसा, दिगंतविश्रान्तयशाः स्फुरद्गुणः । वदान्यमान्यो जिनपादपंकज -- द्वयार्चनैकप्रवणो बभूव सः ॥६७॥
कवि
तदंजोऽन्नून्नृपसंसदिस्तुतः, शशांक कुन्दद्य ुतिकीर्त्तिभासुरः । प्रसिद्धनामा जिनभकिनिर्भरो, बभार पात्रष्वतिदानशौंडताम् ॥ ६८ ॥
विशुद्धसिद्धान्तसुधारसायने,
सुनव्यकाव्ये रसिको महानभूत् । जिगेशगुर्वागमपूज्यपूजकः,
स रायमल्लो विनयेन ये पटुः ॥ ६६ ॥ प्रकारयद्यः सबलार्हतां स्फुरेंचरिदृब्धं नवकाव्यमादितः । इदं च सालंकृतिसूक्रिसूचितं, स पार्श्वनाथाह्वयकाव्यमादिराः ॥ ७० ॥
पद्मसुन्दर
यदर्जितं वित्तमिहासपात्रसायदीयचित्त किल धर्मतत्वसात् । वचो यदीयं स्फुटमास सत्यसत्, सरायमल्ल भुविनन्दताञ्चिरम् ॥ ७६ ॥ सहोदरस्तस्य वांमूत्रभाव नैस्ततः
श्रनन्यसामान्यगुणः स्फुरतरः
तथाह्यमीचन्द्रसुतेन
तुजोयाख्येन च सालिवाहना
कनीयान् विनयेन बन्धुरः ।
अदे विक्रमराज्यतः
और दि० श्रावक रायमल्ल
प्रकृष्टसौहार्दनिधिः सतां मतः ॥ ७२ ॥ साधुना
स रायमल्लो जयतात्यरिस्कृतः ।
जेन सानन्तसुतेन सन्ततम् ॥ ७३ ॥
शर"
मार्गे मास्यसि चतुर्दशदिने
कला' भुत्तर्क भू' संमिते,
सत्सौम्य वारा
काव्यं कारितवानतीव सरसं
सोऽयं नन्दतु नन्दनैः परिवृतः
इति श्रीमत्परमेष्ठिपदारविन्द
सन्तर्पित भव्यभव्ये पं० श्रीपद्ममेरु
श्री पार्श्वनाथाह्वयम्
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श्रीरायमल्लः सदा ॥७४॥
सुन्दर विरचिते साधुनान्वात्मज
1
मकरन्दसुन्दररसास्वाद
विनेय पं० श्रीपद्म
श्रीपार्श्वनाथ महाकाव्ये श्रीपार्श्व
साधु श्रीरायमल्ल समभ्यर्थिते
नियद्भूयः सकलकर्मकलङ्कपङ्क
निर्वाणमङ्गलं नाम सप्तमस्सर्गः ॥ ७५ ॥
मानन्दसुन्दर मुदारमनन्तसौख्यम् ।
निर्वाणमाप भगवान् सच पार्श्वनाथः श्रीरायमल्लभविकस्य शिवाय भूयात् ॥ ७६ ॥ आर्शीवादः ॥ लेखक प्रशस्ति
संवत् १६१७ वर्षे चैत बदी १० मी अकबरराज्ये प्रवर्त्तमाने श्रीकाष्ठासङ्घ माथुरान्वये पुष्करगणे उभयश्रीउद्धरसेनदेवाः, भाषाप्रवीणतपनिधिः भट्टारक तत्पट्टे सिद्धान्तजल समुद्रविवेक कलाकमलिनीविकासनैकदिन मरिणः भट्टारक श्रीदेवसेनदेवाः, कविविद्याप्रधान भट्टारक श्री विमलसेन देवाः, तत्पट्ट े भट्टारक श्रीधर्मसेनदेवाः, तत्पट्ट े भट्टारक श्रीभावसेन देवाः, तत्पट्ट भट्टारक श्रीसहस्त्रकीर्त्तिदेवाः, तत्पट्ट भट्टारक श्रीगुणकीर्त्तिदेवाः, तत्पट्टे भट्टारक श्रीयशः कीर्त्तिदेवाः, तत्पट्ट दयाद्रिचूडामणि भट्टारक श्रीमलयकीर्त्तिदेवाः, तत्पट्ट वादीभकु' भस्थलविदारनैक केसरी भव्याम्बुज विकासेनैकमार्तण्डद् र्गमपञ्च महाव्रतधारणैकप्रचण्डः are चारित्रोद्वहन धुराधीरः • तपसा निर्जितैकवीरः भट्टारक: श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः, तत्पट्ट े भट्टारक श्री
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अनेकान्त
[वर्ष १०
भानुकीतिदेवाः, तत् शिष्य मण्डलाचार्य श्रीकुमार- तृतीय पुत्र चिरंजीवी सालिवाहणु, चतुर्थ पुत्र चिरंजीमेनदेवाः, तदाम्नामे अग्रोतकान्वये गोइलगोत्रे स्वदेश- वी धर्मदास. पंचम पत्रचिरंजीवी अनन्तदास । चौधरी परदेश विख्यातमानु चौधरीछाजू तयोः पुत्र (1) नानू दुतीय पुत्र चौधरीभवानीदास, तस्य भार्या साध्वी पंच मेरुवत्पंच ५, प्रथम पुत्रु अनेकदानदाइकु माणिकही। चौधरीनरसिंघ दुतीय पुत्र चौधरी कुलिचंदु । चौधरीहाल्हा १, द्वितीयपुत्र चौधरी बूढ़णु २, तृतीयपुत्र चौधरी नरसिंघ तृतीयःपुत्र चौधरी सहणपालु, तस्य भाचौधरी नरपाल ३, चतुर्थपुत्र चौधरी नरसिंघ, पंचम- द्विौ. प्रथम भार्या साध्वी गाल्हाही, दुतीय भायो सापुत्र चौधरी भोजा ५ चौधरी नरसिंह भार्या शीलतोय
ध्वीसमाही, पुत्र त्रयं, प्रथम पुत्र चि. सुषमलु, तस्य भार्या तरंगिणी साध्वी मदनाही, तयोः पुत्रत्रयं, तत्र प्रथम साध्वी पोल्हणही, दुतीय पुत्र चि० पहाड़मलु, तृतीय पुत्र चौधरी नानू भार्या साध्वी श्रोदरही, तयो पुत्रद्वौ,
पुत्र चि० जसमलु । एतेषां मध्ये साधु नानूसुत चौधरी प्रथम पुत्र चौधरी अनेक दान दाइकु चौधरी रायमल्ल
रायमलु, तेन इदं पार्श्वनाथमहाकाव्यं कारितमिति तस्य भार्या साध्वीद्वौ, प्रथमभायो साध्वी ऊधाही, संकोडीकरचरणं, उम्गगीवा अहोमुहादिट्ठी। द्वतीय भार्या साध्वी मीनाही, तयोः पुत्र पंच, प्रथम जं सुहप्पवेलेहो, तं सुहपावेउय तुम्ह दुज्जणऊ ? ॥१॥ पुत्र चिरंजीवी अमीचंदु, तस्य भार्या साध्वी जेठमलही, चौधरी रायमल दुतीय पुत्र चिरंजीवी उदैसिन्धु, समाप्तमिति । शुभंभवतु। ..
किसके विषय में मैं क्या जानता हूँ ?
' [लेश्री ला० जुगलकिशोरजी कागजी ]
-
- १. मैं पंचपरमेष्ठीके विषयमें क्या जानता हूँ? प्रवृत्तिमें स्वयं लगे हैं और अन्यको भी अपनी
श्रीअरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व शान्तमुद्राद्वारा उसी मार्गका साक्षात् संकेत कर साधु ये पंच परमेष्ठी हैं। ये पांचों ही परम इष्ट हैं। रहे हैं । इसी कारण दुःखोंसे बचनेका एक मात्र उपाय ये अज्ञानरूपी परिणतिको रोककर कर्मबंधनसे मुक्त पंचपरमेष्ठीका ही अनुकरण है। उन्हींका दर्शन व होगए हैं तथा हो रहे हैं। पूर्णसुखी होगए है तथा ध्यान सुलभ है, साध्य है, इष्ट है, कर्मबन्धनसे पूर्णसुखी होनेके सन्मुख हैं। ये पांचों ही प्रत्येक रोकनेवाला है। अरहंत व सिद्ध भगवान पूर्ण रीतिप्राणीको सुख प्राप्त करनेके लिये एक आदर्श मार्ग से अपने विषयमें सब कुछ जानते हैं और परके दर्शानेवाले हैं। इनकी यथार्थ प्रवृत्ति होनेके कारण विषयमें भी सब कुछ जानते हैं। इसी कारण पूर्ण स्मरण, वन्दन, पूजन और दशन सभी प्राणियोंके सुखी हैं। उनके सुखका कभी विनाश नहीं होगा। लिये यथाथे प्रवृत्तिकी ओर ही आचरण कराता है। २. मैं अपने विषयमें क्या जानता हूँ? यथार्थ प्रवृत्तिही सत्य है, सुख है। अतएव ये मैं हूँ। मैं जीवित हूँ। मैं जीवित हो रहूँगा । संसारके बंधनों व दुःखोंसे भयभीत होकर यथार्थकी मेरा सम्बन्ध इस शरीरसे कुछ समय पर्यन्त ही
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किरण १]
1
रहेगा । जबसे मैंने इस वतमान सम्बन्धी शरीरसे संयोग किया है । बाल- कालको छोड़कर बाकी समय के भीतर जो कुछ मैंने कर्म किये हैं वह सब मैं जानता हूँ। जो दुःख मैंने भोगे हैं उन्हें भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ भलाई की है उस भाईको भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ बुराई है उसको भी मैं जानता हूँ। जिसके साथ मैंने बुराई की है उस बुराई को भी मैं जानता हूँ। जिसके साथ मैंने भलाई की है उसको भी मैं जानता हूँ । अपने योग्य विषयके भीतर अपनेको मैं भलीभाँति जानता हूँ। अपने विषयके ग्रहण करनेमें मैं अपने को पूर्ण सम्पन्न देखता हूँ। मैं ज्ञानी हूँ, ज्ञानवान् हूँ, अपना तथा अपने ज्ञानका विनाश कभी नहीं चाहता । सदा सुख ही चाहता हूँ । पापों के फलकों भोगनेसे डरता हूँ, पुण्यके फलको भोगनेसे नहीं डरता। इससे प्रतीत होता है कि मेरा स्वभाव सुख ही है । मैं जानता हूँ कि वास्तवमें मेरा स्वभाव सुख ही है । वह सुख मेरे ही अन्दर है, मेरी ही सम्पत्ति है । मैं ही उसका स्वामी हूँ, मैं ही उसकी खोज कर सकता हूँ, मैं ही उसका कर्ता हूँ और मैं ही उसका भोगता हूँ। जिस समय मुझे दुःख भोगने पड़ते हैं उस समय मैं उलझनमें पड़जाता हूँ । यदि वह दुःख किसी चैतन्यके निमित्तसे प्रतिभासित होजाता है तब तो क्रोध उपस्थित होकर उससे वैर व बदला लेनेका निश्चय - सा कर लेता हूँ। और यदि वह दुःख स्वयं शारीरिक विकारके अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल भावके निमित्तसे होता हुआ जान पड़ता है तब अपने कर्मोंके दोषों को ही कारण जानकर क्षमाप्रार्थी होजाता हूँ । एक दशामें तो क्रोध और दूसरीमें क्षमा कितना भारी अन्तर है। दुःख एक है, कार्य-कारणके वशसे दशा दो हो जाती हैं। यह मैं भली-भाँति जानता हूँ । अपने विषय में अपनी क्रूरताको या अपने सौन्दर्यको जितना मैं जानता हूँ अन्य नहीं जानता । इसीलिये
1
किसके विषय में क्या जानता हूँ
२१
में अपने विषय में ज्ञानी हूँ, परन्तु अन्यके विषय में अज्ञानी ।
३. में अपने और पंच परमेष्ठी से भिन्न अन्य पदार्थों के विषय में क्या जानता हूं ?
"
अपने विषयमें जितना मुझे निश्चय है उतना ही अन्यके विषयमें अनिश्चय है, धोखा है। जितनी सुध-बुध अपने विषय में करने में मैं स्वतंत्र हूँ उतना ही अन्यकी सुध-बुध रखनेमें परतंत्र हूं। मेरी जितनी भी प्रवृत्तियाँ अन्यमें और अन्य विषयोंकी जानकारीमें बढ़ती जा रही हैं उतना ही भय, चिन्ता, उसकी रक्षाका भार और स्वार्थ अधिकाधिक होता जारहा है । जितना-जितना अन्यको मैं अपनाता जारहा हूँ उतना उतना घमंड बढ़ता जाता है । स्वाभिमानको अभिमानके भारसे दबाता जाता हूँ । यहाँ तक कि अभिमानको ही स्वाभिमान समझ बैठा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि बिना अभिमानकी सामग्री के मेरे जीवनका कुछ भी मूल्य नहीं है । और उसके मदमें उन्मत्त होकर महानसे महान् पापोंमें भी फंस कर महान शारीरिक व मानसिक दुःखोंको निरन्तर भोगकर भी दुखोंको भूल रहा हूँ । दुःखोंकी प्राप्तिके साधनोंमें ऐसा मग्न होकर मिथ्या आनन्दकी लहरोंमें बहा चला जारहा हूँ। अपनी बेहाल अव स्थाको ही अपना हाल, अपना गुण, अपना कर्तव्य निश्चत किये जाता हूँ । अपनेको पराया और परायेको अपना दोनोंका मेल ही दुःखोंसे रक्षाका उपाय मानकर संलग्न होरहा हूँ । इस प्रकार सुखोंके साधन मिलाते-मिलाते भी न मालूम यह दुःखोंके व क्रोधके बादल क्यों छाये रहते हैं । यहाँ ज्ञान असमर्थ हो कर इस प्रकार दुःखों के विषय में जानकारी करने में व उन दुःखों से बचने के उपायोंको जाननेमें असमर्थ होरहा हूँ, अज्ञानी होरहा हूँ। अंशमात्र भी नहीं जान रहा हूँ, जिन विषयोंमें आनन्द मनाता हूँ वही विषयभोगके बाद दुःख क्यों बन जाते हैं ? जिस
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अनेकान्त
[वर्ष १०
विषयके भोगके लिये मैं व्याकुल होरहा था मेरी आज तक जाना ही क्या है और क्या जाननेकी लालसा निरन्तर मुझे बेचैन कर रही थी उस विषयको इच्छा है और इससे क्या लाभ है यह सब प्रत्येक भोगनेके बाद भी मुझे तृप्ति क्यों नहीं होती ? मेरी मनुष्य स्वयं विचार कर सकता है । स्वयं ज्ञानी लालसा अधिकाधिक क्यों बढ़ती रहती है ? इच्छा- होकर फिर क्यों अज्ञान दशामें पड़कर वृथा ही काल नुकूल भोग न मिले तो भी मैं दुःखी और भोगनेके गँवा रहा है । जिस विषयपर अपना अधिकार पश्चात् भी पुनः भोगकी इच्छासे दुःखी ? केवल नहीं उस विषयमें प्रवृत्ति करना क्या भूल नहीं, भूल भोगते समय सुखी । अतः ज्ञात होता है कि मैं बहुत क्या पाप नहीं, पाप क्या दुःख नहीं, दुःख क्या थोड़ा काल तो सुखी और अधिक काल दुःखी रहता असमर्थता नहीं, असमर्थता क्या चिन्ता नहीं, चिन्ता हूँ। क्या यही सुख है ? क्या मेरे ज्ञानका इतना ही क्या भय नहीं। तात्पर्य यह कि पदार्थके यथार्थ कर्तव्य है ? इच्छानुकूल भोग प्राप्त हों या न हों स्वरूपका भली-भांति मनन करके उसके सत्य-स्वइतना भी मेरे ज्ञानको इस समय निश्चय नहीं है। रूपकी पहिचान ही वास्तविक ज्ञान है । सुखके निमित्त स्त्री-पुत्र-पैसा आदिक मिलकर कब वस्तुओंके विषयमें स्वयं फँस जाना ज्ञान नहीं, बिगड़ जायें इतना भी पता नहीं । यह प्यारा शरीर अज्ञान है, दुःख है । अतः अपनेसे भिन्न या अपने जिसकी रक्षाके सैकड़ों उपाय करते हुए भी यह सदृशसे भिन्न वस्तुओंमें अपनेको अज्ञानी समझकर कब अपना नाता तोड़कर घोर-से-घोर संसाररूपी उनसे दूर रहना अथवा मौन (निर्विकल्प) रहना ही भंवरमें धक्का देकर विछुड़ जाय, यह भी मेरा ज्ञान मानों संसारके भयंकर अन्धकार व दुःखोंसे स्वयंकी नहीं जानता फिर ज्ञान अन्यके विषयमें जानता ही रक्षा करना है। ज्ञानी व अज्ञानीका भेद. भेद ही क्या है और जाननेकी चेष्टा ही क्यों करता है ? सुख व दुःख बन रहा है, अन्य और कुछ नहीं।
कल्पसूत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्ति
[निम्नलिखित प्रशस्ति एक स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र पुस्तकके अन्तमें लिखी गयी थी । यह ग्रन्थ संवत् १५१६ अथवा १४५६ ई० में लिखा गया था । इस समय कल्पसूत्र की यह पूर्ण पुस्तक अप्राप्त है। केवल दोनों ओर लिखे हुए तीन पन्ने बचे हैं, जिनपर ५ से ३१ तकके श्लोक लिखे हैं । इसीके साथ वैसे ही सुनहरे अक्षरों में लिखी हुई कालकाचार्य-कथानककी प्रति भी थी। इसके अन्तमें " इति श्रीकालकाचार्यकथा" लिखा हुआ है । यह प्रति भी कल्पसूत्रके समकालीन थी । ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होनेके कारण मूल प्रशस्ति प्रकाशित की जाती है। -वासुदेवशरण अग्रवाल
हो गुच्छ इवाधिशीलः ॥४॥ ततोऽपि जातो वरदेवनाम्ना पवित्रचारित्रसुदीप्तधाम्ना जगजनीनो जिनदेवनामा बभूव तस्यानुगतिं दधानः ॥२१॥
तत्पुत्रनायंद इति प्रसिद्धस्तदङ्गजो आजड इत्युदीर्णः सुलक्षणो लक्षणयुक् क्रमेण, गुणालयौ गोसलदेसलौ च ॥६॥ श्रीदेसलाद् देसल एव वंश:
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किरण १]
कल्पसूत्रकी एक शचीन लेखक प्रशस्ति
ख्याति प्रपन्नो जगतोतलेऽस्मिन् शत्रुञ्जये तोथवरे विभाति यन्नामतस्त्वादिकृतो विहारः ॥७॥ तत्सूनवः साधुगुणैरुपेतास्त्रयोऽपि सद्धर्मपरा बभूवुः तेश्वादिमः श्रीसहजो विवेकी करिधारा विरुदप्रसिद्धः ॥८॥ तदंगभूर्भावविभूषितान्तः सारङ्गसाधुः प्रथितप्रतापः आजन्म यस्याऽभवदाप्तशोभः सुवर्णधारा विरुदप्रवाहः ॥६॥ श्रीसाहणः साहिनृपाधिपानां सदाऽपि सन्मानपदं बभूव देवालयं देवगिरी जिनानामकारयद् यो गिरिशृङ्गतुङ्गम् ॥१०॥ बन्धुस्तृतीयो जगतीजनेन सुगीतकीर्तिः समरः सुचेताः शत्रुञ्जयोद्धारविधि विधाय जगाम कीर्ति भरताधिका यः ॥११॥ यः पाण्डुदेशाधिपमोचनेन गतः परां ख्यातिमतीव शुद्धाम् महम्मदे योगिनिपीठनाथे तत्प्रौढतायाः किमु वर्णनं स्यात् ॥१२॥ सुरत्नकुक्षिः समरश्रियः सा यदुद्भवाः षड्तनुजा जगत्याम् साल्हाभिधः श्रीसहितो हित - स्तेष्वादिमोऽपि प्रथितोऽद्वितीयः ॥१३॥ देवालयैर्देवगुरुप्रयोगाद् द्विबाणसंख्यमहिमानमाप सत्याभिधः सिद्धगिरी सुयात्रां विधाय सङ्घाधिपतेर्द्वितीयः ॥१४॥ यो योगिनीपीठनृपस्य मान्यः स दुगरस्त्यागधनस्तृतीयः जीर्णोद्ध्तेधर्मकरश्चतुर्थः श्रीसालिगः शूरशिरोमणिश्च ॥१५॥
श्रोस्वर्णपालः सुयशो विशालश्चतुष्कयुग्म ४४ प्रमितैरमोघः सुरालयैः सोऽपि जगाम तीर्थं शत्रुक्षयं यात्रिकलोकयुक्रः ॥१६॥ स सज्जनः सज्जनसिंहसाधुः शत्रुञ्जये तीर्थपदं चकार यो द्वयब्धिसंख्ये समये जगत्या जीवस्य हेतुः समभूद् जनानाम् ॥१७॥ स्वमातृकुक्षिप्रभवा मनोज्ञाः सौवर्णपालाः सरिदीश संख्याः । सोलाभिधः प्राथमिकः सुवत्सयोरन्तरालेन दयेन युक्रः ॥१८॥ श्रीसोढलेन्द्रः शुभसामराज एवं महाभूपतिराजमान्यः द्वितीयबन्धोविमलाभिधाना बभूव पत्नी कुलशीलरम्या ॥१६॥ तत्कुक्षिजाः श्रीशिवदत्त श्राद्यः शिवशङ्करश्चापि शुभकरोऽपि क्षेत्र द्वितीये सहजाभिधः श्रीचन्द्रण युक्रो गुणभृद्गुणज्ञः ॥२०॥ दुर्भिक्षकालऽन्नसुभक्षकस्य पतिव्रता साधुशिवङ्करस्य सत्पुत्रपौत्र जयति कृतिज्ञा सद्वल्लभा देवलदेविनाम्नी ॥२१॥ तदङ्गजाः षड्विधधर्मकृत्य परायणाः षट्प्रमिता जयन्ति सुधीवरः श्रीसहितः मुदर्थः श्रीराजनामाभिहितो द्वितीयाः ॥२२॥ श्रीसांगणः साहिसभासुदक्षो हाजाभिधानो हरवासहासः सोमाख्यया सौमगुणो गुणाढ्यो ..... जीयात् सदा जावरनामधेयः ॥२३॥ श्रीसत्यकाहासवरः सभाग्यः संडाभिधः श्रीसुयशो गुणाब्धिः ..::. श्रीवंससंग्रामशिवादयोऽपि ।
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अनेकान्त
तस्याः सुपुत्राः दीप्तिभासः ॥२४॥
तत्पट्टनाथः प्रभुकक्कसरिः श्रीपार्श्वनाथस्य गणे प्रतीते
सिद्धान्तरत्नाकररत्नभूरिः पुरा प्रवीणः सुभदत्तनामा
सद्देशनादेशविशेषदानाद् . यदाख्यया केशिगणः प्रसिद्धः
हि जेजयीते वसुधातलेऽस्मिन् ॥२६॥ केशी ततोऽपि प्रगुणो बभूव ॥२२॥
तस्योपदेशाद् सुविधाप्य हैमं जीवादितत्वप्रगुणैर्गुणात्मा
सैद्धान्तकिं ? पुस्तकमेतदेवं सदाशुभः स्वप्रभुसृरिराजा
श्रीवाचनाचार्यवराय वित्तरत्नाकरां ख्यातिमवाप गच्छ...
सराय सादाद् निजहर्षयोगात् ॥३०॥ स्ततश्च रत्नप्रभसूरिरेषः।।२६॥ युग्मम् उकेशतो यत्प्रतिबोधदानाद्
यावत् स्थिरो मेरुमहीधरोऽयं
तथा ध्र वाक्षिः खलु चन्द्रसूरी उकेशगच्छः प्रथतां जगाम
तावद् दृढं नन्दतु वाच्यमानं यक्षस्य बोधे प्रतिबोधशक्त्या
हर्षेण हृद्य प्रतिवर्षमेतत् ॥३॥ श्री यक्षदेवः सुगुरुस्ततोऽनु॥२७॥ श्रीकक्कुदाचार्यगणप्रतीतो
इति सौवर्णकल्पपुस्तकप्रशस्तिसमाप्तमिति छ। श्रीदेवगुप्तो भवनीरनौका।
सं० १९१६ वर्षे चैत्रसुदि ८ अष्टम्यां रवी सद्भाग्यसौभाग्यतरैककोशः
श्रीपत्तनवास्तव्यं मं० दाछाकेन लिखितं ॥२॥ श्रीसिद्धसूमिस्तदवासपट्टः ॥२८॥
भद्र भूयात् । श्रीसंघस्य ॥छ॥ प्रहार क्षेत्रके प्राचीन मूर्तिलेख [संग्राहक-५० गोविन्ददास जैन, न्यायतीर्थ शास्त्री]
(वर्ष : किरण १० से आगे)
-2) :(नं०३०)
१२०६ के वैशाख सुदी १३ को प्रतिष्ठा कराई। ये मूर्तिका शिर और दोनों हाथ नहीं हैं । आसन- सब उसे सदा प्रणाम करते हैं। से पता चलता है कि मूति कुछ बड़ी थी। चिन्ह
(नं० ३१) शेरका है। करीब २ फुट ऊँची होगी। पद्मासन है। मूर्तिका सिर्फ आसन उपलब्ध है। बाकी पाषाण काला है।
आङ्गोपाङ्ग नहीं हैं। चिह्न शेरका है। करीब लेख-सम्वत् १२०६ वैशाख सुदी १३ माधुवान्वये ११ फीट पद्मासन है। पाषाण काला है। पालिश साहुयशवंत तस्य सुत साहुयसहद तस्य भार्या माहिणि चमकदार है। तयोः पुत्र श्यामदेव एते प्रणमन्ति नित्यम् ।
लेख–सम्बत् १२१० वैशाख सुदी १३ पण्डितश्रीभावार्थः-माघुव वंशोत्पन्न शाह यशवन्त उनके विशालकीर्ति पार्यिकात्रिभुवनश्री तयोः शिष्यणी पूर्णश्री पुत्र साहु यशहद उनकी धर्मपत्नी माहिणि उन तथा धनश्री एताः प्रणमन्ति नित्यम् । दोनोंके पुत्र श्यामदेवने इस प्रतिबिम्बकी सम्वत् भावार्थः-सम्वत् १२१० के वैशाख सुदी १३ को
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करण १]
पण्डित श्रीविशालकीत्ति और आर्यिका त्रिभुवनश्री तथा उनकी शिष्यणी पूर्णश्री एवं धनश्री ये सब सदा प्रणाम करते हैं ।
( नं० ३२ )
मृत्तिके आसनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है। चिह्न बैलका है । करीब १ || फुट ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है । पालिश चमकदार है ।
अहार क्षेत्र के प्राचीन मूर्ति-लेख
लेख – सम्वत् १२०२ चैत्रसुदी १३ गोलापूर्वान्दये नायक श्रीरतन तस्य सुत नाल्ह - पोल्ह-सामदेव - भामदेव प्रणमन्ति नित्यम् |
भावार्थ:----गोला पूर्व वंशोत्पन्न नायक श्रीरतन उनके पुत्र बल्ह पाल्ह - सामदेव भामदेव सम्वत १२०२ के चैत्र सुदी १३ को बिम्बप्रतिष्ठा कराके प्रति दिन नमस्कार करते हैं ।
( नं० ३३ )
मूत्तिका सिर्फ शिर नहीं है। पाङ्ग उपलब्ध हैं । चिह्न वगैरह १|| फुट ऊँची पद्मासन है । - पालिश चमकदार है।
बाकी सर्व आङ्गोकुछ नहीं है । करीब पाषाण काला है ।
1
लेख – संवत् १२१० वैशाख सुदी १३ मेड़तव.लवंशे साहु प्रयणराम तत्सुख हरसू एतौ नित्यं प्रणमन्तः ।
भावार्थ:- सं० १२१० वैताख सुदी १३ को मेड़तवालवंश में पैदा हुए साहु प्रयणराम उनके पुत्र हरसू ये दोनों बिम्बप्रतिष्ठा कराके प्रणाम करते हैं । ( नं ३४ )
मूर्त्तिके दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं। घुटनों तक पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है । चिह्न दो हिरणोंका है। करीब ३ फुट ऊँचाई है। मूर्त्ति खड्गासन है । पाषाण काला है। पालिश चमकदार है ।
लेख – सम्वत् १२०६ गोलापूर्वान्वये साहु महिदीन तस्य पुत्र स्युपस्यु तथा श्रर्हमामक प्रणमन्तः ।
1
२५
भावार्थ:- गोला पूर्व वंशोत्पन्न साहु महिदीन उनके पुत्र स्युपस्यु तथा मामक, संवत् १२०६ में प्रतिष्ठा कराके प्रणाम करते हैं ।
( नं० ३५ )
चिन्ह शेरका है । करीब १||| फुट ऊँची है। पद्मासन मूत्तिका शिर नहीं है । बाकी सबाङ्ग सुन्दर हैं । है । पाषाण काला है। पालिश चमकदार है।
लेख - संवत् १२१६ माहसुदी १३ श्रीमत्कुटकान्वये पण्डित लक्ष्मण देवस्तस्य शिष्यार्यदेव श्रार्थिका लक्ष्मश्री तवेल्लिका चारित्र श्री रुद्भ्राता लिम्बदेव एते श्रीमद्वद्धमानस्य बिम्बं श्रहिनिशि प्रणमन्ति ।
भावाथ. - सं० १२१६ माघ सुदी १३ के शुभ दिनमें कुटकवशमें पैदा होनेवाले पण्डित लक्ष्मणदेव उनके शिष्य आर्यदेव तथा आर्यिका लक्ष्मश्री उनकी सहचरी चारित्रश्री उनके भाई लिम्बदेव श्रीवर्द्धमान भगवानकी प्रतिमाको प्रतिष्ठापित कराके प्रतिदिन नमस्कार करते हैं ।
( नं० ३६ )
मूत्तिका आसन तथा कुहिनियों तक हाथ अवशिष्ट है। बाकी हिस्सा नहीं है । चिन्ह सिंहका प्रतीत होता है । करीब २ फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला है । पालिश चमकदार है ।
लेख - सम्वत् १२२५ जेठ सुदी १५ गुरुदिने पंडितश्रीजसकी तशील दिवाकरनीपद्मश्रीरतनश्री प्रणमन्तिनित्यम् ।
भावार्थः – सम्वत् १२२५ जेठ सुदी १५ गुरुवारको पण्डित श्रीयशकीत्ति तथा शीलदिवाकरनी पद्मश्री और रतनश्रीने बिम्ब-प्रतिष्ठा कराई । ( नं० ३७ )
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आसन और आधे हाथोंके अतिरिक्त मूर्त्तिका बाकी हिस्सा खण्डित है । श्रासन चौड़ा और मनोहर है । चिह्न बैलका है। करीब दो फुटकी ऊँची पद्मासन है । पाषाण काला है। आसन टूट गया है और इसलिये लेख अधूरा है ।
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२६
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लेख – सम्वत् १२१० वैशाख सुदी १३ गृहपत्यन्वये साहुसुलधस्य सुत..." भावार्थ:-सम्वत् १२१० के वैशाखसुदी १३ को गृहपति वंशोत्पन्न साहु सुलधर उनके पुत्र प्रतिष्ठा कराई।
"ने
अनेकान्त
( नं० ३= )
दोनों तरफ दो इन्द्र खड़े हैं। आसन और कुछ पैरोंके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है । चिह्नको देखकर अरहनाथकी प्रतिमा मालूम होती है। करीब ३ फुट ऊँची खड्डासन है । पाषाण काला है। इस मूर्त्तिका धड़ मन्दिर नं० १ की दीवारमें खचित है, ऐसा नापसे मालूम होता है ।
लेख- ख - सम्वत् १२०६ गोलापूर्वान्वये साहु सुपट भार्या ग्रह तस्य पुत्र सान्ति पुत्र देल्हल अरहनाथं प्रणमन्ति नित्यम् ।
भावार्थ:- गोला पूर्व वंशोत्पन्न साहु सुपट उनकी पत्नी उसके पुत्र शान्ति तथा पुत्र देल्हलने इस बिम्बकी सम्वत् १२०६ में प्रतिष्ठा कराई । ( नं० ३६ )
मूर्त्तिका शिर और हथेलियोंके अतिरिक्त बाकी हिस्सा उपलब्ध है । चिह्न बैलका है। करीब दो फट
पद्मासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है । लेख - सम्वत् १२०३ माघ सुदी १३ वैश्यान्वे साहु सुपट भार्या गंगा तस्य सुतः साहु रासल पाल्हऋषि प्रण मन्ति नित्यम् ।
[ वर्ष १०
लेख - सम्वत् १२३७ मार्ग सुदी ३ शुक्र गोला पूर्वान्वये साहु वाल्ह भार्या मदना वेटी रतना श्री ऋषभनाथं प्रणमन्ति नित्यम् ।
( नं० ४० )
मूर्तिका शिर और आधे हाथोंके अतिरिक्त सब अङ्ग प्राप्य हैं चिन्ह है । करीब २ फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला है। पालिश चमक दार है ।
भावार्थ:- सम्वत् १२३७ के अगहन सुदी ३ शुक्रवारको गोलापूर्व वंशमें पैदा होनेवाले साहु वाह उनकी पत्नी मदना और उनकी पुत्री रतनाने श्री ऋषभनाथके प्रतिबिम्बकी प्रतिष्ठा कराई। ये सब नित्य प्रणाम करते हैं ।
( नं० ४१ )
के के अतिरिक्त बाकी अंगोपांग नहीं हैं। आसन चौड़ा है । चिन्ह बैलका हैं । करीब २|| फुट ऊंची पद्मासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है।
लेख - गोलापूर्वान्वये साहुरासल तस्य सुत साहु मामे प्रणमन्ति । गृहपत्यन्वये साहुकेशच भार्या शान्तिणी साहु बाबण सुत माल्ह प्रणमन्ति ।
सम्वत् १२०३ गोलापूर्वान्वये साहुयाल्ह तस्य भार्या पल्हा तयोः पुत्र बछराऊदेव- राजजस बेवल प्रणमन्ति नियम् षाड़ सुदी २ सोमे ।
नाकाप प्रेषण गुमन में होनेवाले सुद उनकी धर्मपत्नी गंगा उनके पुत्र साहु रासल तथा तथा सम्वत् १२०३ के अषाढ़ सुदी २ सोमवारपाल्ह ऋषिने सं० १२०३ माघसुदी १३ गुरुवार को गोलापूर्व वंश में पैदा होनेवाले साहु याल्ह उनकी प्रतिष्ठा कराई । धर्मपत्नी पल्हा उन दोनोंके पुत्र बछराय देव- राजजसबेवल प्रतिष्ठा कराके प्रतिदिन नमस्कार करते हैं ।
भावार्थ:- गोलापूर्व वंश में पैदा होनेवाले साहु रासल उनके पुत्र साहु मामे दोनों प्रणाम करते हैं । तथा गृहपति वंश में पैदा होनेवाले साहु केशव उनकी धर्मपत्नी शान्तिी और साहु बाबरण उनके पुत्र माहने बिम्बप्रतिष्ठा कराई। ये सब प्रणाम करते हैं ।
नोट: - इस मूर्तिके प्रतिष्ठायक गोलापूर्व और गृहपति इन दो जातियो में पैदा होनेवाले तीन कुटुम्बके सदस्य हैं जिन्होंने अपनी गाढ़ी कमाईका द्रव्य लगाकर यह विम्ब निर्माण कराया ।
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किरण १]
अहार-क्षेत्रके प्राचीन मूर्ति-लेख
(नं ४२)
बैल्लि (2) रतनश्री । सं० १२१६ माघसुदी १३ शुक्र जैसमूर्तिका शिर तथा दायाँ हाथ नहीं है। बाकी बालान्वये साहु बाहड़ भार्या श्रीदेवि पुत्री सावित्री एताः हिस्सा उपलब्ध है । लेखका प्रारम्भिक कुछ हिस्सा प्रणमन्ति । टूट गया है । २१० बचा है। अतः नीचे लेखमें सं० भावार्थः-सिद्धान्ति श्रीसागरसेन आर्यिका जयश्री १२१० अनुमानसे लिखा गया है । चिन्ह बैलका है। उनके पासमें रहनेवाली रतनश्री और जैसवाल करीब १।। फुट ऊंची पद्मासन है। पाषाण काला है। वंशमें पैदा होनेवाले साहु वाहड़ उनकी पत्नी श्री पालिश चमकदार है।
देवि तथा पुत्री सावित्रीने सम्वत् १२१६ के माघ लेख–सम्वत् २१० (१२१०) पौरपाटान्वये साहुश्री
र सुदी १३ शुक्रवारको बिम्बप्रतिष्ठा कराई। गपधर भार्या गांग सुत सोढू-माहव एते सर्वे श्रेयसे प्रण
(नं० ४५) मन्ति नित्यम् । वैशाख सुदी १३ बुधदिने।
मूर्त्तिके दोनों हाथोंकी हथेलियों तथा आसनके ____भावार्थः-सम्वत् १२१० (१) के वैशाख सुदी १३ अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं है । चिन्ह हिरणका बुधवारको पौरपाटवंशमें पैदा होनेवाले साह श्री है । करीब १।। फुट ऊंची पद्मासन है। पालिश चमगपधर उनकी भार्या गांग उनके पुत्र सोढू-माहव कदार है। इन्होंने मोक्ष प्राप्त करनेके लिये बिम्बप्रतिष्ठा कराई। लेख-सम्वत् १२०३ साहु सान्तन तस्य पुत्र लद (नं०४३)
तस्य भार्या मलगा प्रणमन्ति नित्यम् । मूर्तिके आसन और हाथके अतिरिक्त बाकी हिस्सा . भावार्थः-- सम्वत् १२०३ में साहु शान्तन उनके नहीं है । चिन्ह हाथीका है । करीब २॥ फुट ऊंची पुत्र लढू उनकी पत्नी मलगाने बिम्बप्रतिष्ठा कराई । पद्मासन है । पाषाण काला तथा चमकदार है।
(नं०४६) लेख–सम्वत् १२१० वैशाख सुदी १३ जैसवालान्वये मूर्तिकी हथेली और शिरके अतिरिक्त बाकी हिस्सा साहु देल्हण भार्या पाल्ही तत्सुत पंडित राल्ह भार्या कोहणी उपलब्ध है । चिन्ह चन्द्रका है। करीब २ फुट ऊंची तत्सुत वर्द्धमान अामदेव एते श्रेयसे प्रणमन्ति नित्यम् । पद्मासन है । पाषाण काला है । पालिश चमकदार है।
भावार्थः-जैसवाल वंशमें पैदा होनेवाले साहु लेख-सम्बत् १२०७ माघ बदी - गृहपत्यन्वये देल्हण उनकी पत्नी पाल्ही उनके पुत्र पंडित राल्ह साहु सोने तस्य भार्या होवा तत्सुत दिवचन्द्र अष्टकर्मउनकी धर्मपत्नी कोहणी उसके पुत्र वर्द्धमान-आम- क्षयाय कारापितेयं प्रतिमा। देवने मोक्ष प्राप्त करनेके लिये सम्वत् १२१० वैशाख __ भावार्थ-गृहपतिवंशमें पैदा होनेवाले साहु सुदी १० को बिम्बप्रतिष्ठा कराई।
सोने उनकी धर्मपत्नी होवा उनके पुत्र दिवचन्द्रने (नं० ४४)
सम्वत् १२०७ के माघ बदी ८ को अष्टकर्मक्षयके मूर्तिके आसनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं लिये प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। है । चिन्ह बन्दरका मालूम होता है । करीब १॥
(नं० ४७) फुट ऊंची पद्मासन है। पाषाण काला है। पालिश
मूर्तिका शिर और बाएं हाथके अतिरिक्त बाकी चमकदार है।
हिस्सा अखण्डित है । आसनका नीचेका हिस्सा लेख-सिद्धान्तिश्रीसागरसेन आर्यिका जयश्री तस्य कुछ छिल गया है, अतः कुछ लेख और चिन्ह नहीं
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________________ अनेकान्त [वर्ष 10 (2051) हैं / करीब 1 / / फुट ऊंची पद्मासन है। पाषाण का- सेठ दायामारू उनके पुत्र सुरद माल्ह-कलाम इन ला है। सबों ने संवत् 1207 के माघवदी को यह प्रतिमा लेख-सम्बत् 1211 फा................... भार्या . प्रतिष्ठित कराई। पापा तत्सुत साहु सीतल भार्या पाला नित्यं प्रणमन्ति / (नं० 50) भावार्थ-संवत् 1211 ( के फाल्गुन मास ) में दोनों तरफ इन्द्र खड़े हैं / चिन्ह वज्रदण्डका ........... पत्नी पापा उनके पुत्र साहु है। शिर नहीं है, वाकी सवाङ्ग सुन्दर है। करीब 2 सीतल उनकी पत्नी पालाने बिम्बप्रतिष्ठा कराई। फुट ऊंची खगासन है। पाषाण काला और चमक(नं०४८) दार है। मूर्तिका शिर नहीं है / दोनों हथेली छिलगई . लेख--संवत् 120 6 वैशाखप्नुदो 13 पोरपाटान्वये हैं / चिन्ह चकवाका मालूम होता है / करीब 1 // साहुकोके भार्या मातिणी साहु महेश भार्या सलखा। फुट ऊंची पद्मासन है / पाषाण काला है / पालिश भावाथः-पौरपाटवंशमें पैदा होनेवाले साहुचमकदार है। कोके उनकी धर्मपत्नी सलखाने सम्वत 1204 के लेख-संवत् 1237 अाग्रहल सुदी 3 शुक्र खंडिल्ल वैशाख सुदी 13 को बिम्बप्रतिष्ठा कराई। वालान्वये साहु वाल्हल भार्या बस्ता सत लाखना विघ्ननाशाय प्रणमन्ति नित्यम् / मूत्तिका सिर्फ आसन अवशिष्ट है, जो काफी भावार्थः-खण्डेलवालवंशमें पैदा होनेवाले चौड़ा है। परन्तु बीचसे टूट गया है। अतः जोड़कर साहु वाल्हल उनकी पत्नी बस्ता उसके पुत्र लाखना लेख लिया गया है। कुछ अक्षर उड़ गये हैं। चिह्न ने संवत् 1237 के अगहनसुदी 3 शुक्रवारको शेरका है। करीब 2 फुट ऊंची पद्मासनं है / पाषाण विघ्नोंके नाश करनेकेलिये इस बिम्बकी प्रतिष्ठा काला है / पालिश चमकदार है। कराई। लेख-सवत् 1203 आषाढ़ बदी 3 शुक्र श्रीवीर(नं० 46) वद्ध मानस्वामिप्रतिष्ठापिकः-गृहपत्यन्वये साहु श्रीउल्कण मूर्तिके आसनके अतिरिक्त बाकी हिस्सा नहीं .............."अल्हण साहु मातेण / वैश्यवालान्वये साहु है। चिन्ह बैलका है / वायां घुटना ढूढ़कर मिलाया वासलस्तस्य दुहिता मातिणा साहुश्रीमहीपती / ......" है। करीब 1 // फुट ऊंची पद्मासन है / पाषाण काल। भावार्थः-गृहपतिवंशमें पैदा होनेवाले साहुश्री और चमकदार है। उलकण"अल्हण तथा साहु मातने और वैश्यकुललेख-संवत् 1207 माघ वदी 8 मडवालान्वये में पैदा होनेवाले साहु वासल उनकी पुत्री मातणी साहुसेठ दायामारु तस्य सुत सुरदमाल्ह केलाम सर्वै प्रतिमा और साहुश्री महीपतिने संवत् 1203 आषाढ वदी 3 कारापिता। ___.. शुक्रवारको यह श्रीवर्द्धमान, स्वामीकी प्रतिमा प्रतिष्ठा भावार्थः-मडवालवंशमें पैदा होनेवाले साहु कराई। . (क्रमशः) For Personal & Private Use Only
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________________ भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत (लेखक-श्री लोकपाल) जैनधर्मके बारेमें लोगोंकी जानकारी बहुत ही सभी पुरातत्ववेत्ता एवं विशेषज्ञ भी इसीकी रट कम है-और जो कुछ थोड़ी बहुत है भी वह ऊपरी लगाते हैं एवं उनकी जो भी धारणाएं या निर्णय और विकृत है / औरोंकी कौन कहे जैन पंडितों और होते हैं वे इसी विश्वासपर आधारित होते हैं। विद्वानोंकी भी हालत इस तरफ संतोष-जनक इतना ही नहीं, इस इतिहासने हमारे पूर्व पुरुखाओंको नहीं है। इस तरह करके दिखलाया कि हमें उनकी सत्तामें ही __ भारतके धार्मिक एवं सामाजिक जीवन, रीति- संदेह होगया और उससे भी अधिक खराबी यह व्यवहार तथा मान्यताओंपर विदेशी शासन सत्ताका हुई कि हमने अलग-अलग महापुरुषोंको अलग-अलग बड़ा ही बुरा प्रभाव पड़ा है। आज जो हम धार्मिक जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों या गुटोंका मानकर उनका हठाग्रह, दुराग्रह और आपसी विद्वेष-भावना चारों भी विरोध किया और खूब किया / हरएकने इस तरफ देखते हैं। इसको बनाए रखने और बढ़ाते रहनेमें तरह इन महापुरुषोंको दूसरेका समझकर खूब ही और कहीं कहीं नया पैदा करनेमें इस विदेशी सत्ता- गोलियां दीं और धार्मिक विद्वेष, विरोध एवं रगडे का कम हाथ नहीं रहा है / हमें, हमारे पूर्वजोंको झगड़े बढ़ा लिए / इतना तक भी रहता तब.भी हमारी सैकड़ों वर्षोंसे एक तरहका नकली इतिहास अबतक हालत पश्चिमीय देशोंकी तुलनामें अधिक गिरी न पढ़ाया जाता रहा है वही अब भी जारी है-भारत होती, क्योंकि वहां तो इससे भी बढ़कर शर्मनाक कहनेको स्वतंत्र तो हुआ पर यह हानिकारक जाली धार्मिक अत्याचार हुए। पर हमने जो सबसे बड़ा पुरातत्व हमारे बीचसे अबतक नहीं हटा। खराब काम-इस विदेशी सत्ताद्वारा प्रचालित इति___ इस इतिहासका निर्माण-इसकी आख्यायिकाएं हासके कारण उत्पन्न बुद्धिसे-किया वह यह कि हर एवं लिखनेका ढंग इस तरहका रखा गया कि हम एक धर्मवालोंने दूसरे धर्म प्रचारक महापुरुषोंकी अपनी असली भारतीय संस्कृतिको एकदम भूल बैठे प्राचीनताको भी अस्वीकार किया और हर तरहसे और धीरे धीरे हमने एक नकली और पाखंडपूर्ण खंडन करते रहे / नतीजा यह हुआ कि हमारी महत्ता रीतिनीति एवं व्यवहार अपना लिया और उसे ही दिन-ब-दिन गिरती गई और हमारा बौद्धिक एवं आज हम भारतीय या हिन्द संस्कृति समझे और मानसिक ह्रास भी साथ ही साथ होता गया। पकड़े बैठे हैं / इस इतिहासने और भी यह किया कि पहले भी भारतमें अति प्राचीनकालसे ही अनेकों हमारे दिमागमें यह बात भरदी कि हम भारतीय धर्म एवं मत मतांतर थे-और आपसी विरोध या आदिम आर्य नहीं बल्कि कहीं मध्यएशियासे आकर वैमनस्य ‘उतना नहीं होनेसे जब भी जो कोई वसनेवाले हैं ताकि हम अपनेको प्राचीन और चाहता दूसरे धर्मकी शिक्षाओंसे प्रभावित होकर सभ्यतापर्ण न समझकर यही समझते रहें कि हमारे अपना धर्म बदल लेता था। इस तरह पूर्वज जंगली थे और बादमें सभ्य हुए / या बाहरसे या पढ़ा लिखा व्यक्ति अधिक-से-अधिक धर्मोकी बातोंदूसरोंने आकर सभ्य बनाया / यह बात आज हमारे को समझने एवं ठीक ठीक जाननेकी चेष्टा करताथाअंदर इतनी कूट-कूट कर भरदी गई है कि हमारे जिससे ज्ञानकी वृद्धिके साथ ही साथ बौद्धिक एवं For Personal & Private Use Only
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________________ अनेकान्त [वर्ष 10 मानसिक विकास भी बढ़ता था। पर जबसे धार्मिक धर्मतत्वों या धर्माचार्योकी खामखाहमें हंसी प्रतिबन्ध लगा दिए गए एवं "स्वधर्मे निधनं श्रेयः उड़ा देना या छोटा या गलत समझ लेना सच पूछिए परधर्मो भगवहः” इत्यादि तथा धर्ममें बुद्धि और तो उन तत्वोंमें जरा भी कमी नहीं लाता। वे तो तर्कको लगाना मना कर दिया गया तथा यह आम हमेशा वैसेके वैसे ही रहते हैं / हाँ, ऐसा करनेवाला फतवा या धर्माज्ञा हर एकके यहां होगईं कि धर्मशास्त्रों उनकी जानकारीसे और ज्ञानके विकाससे वंचित ने जो कुछ कह दिया है एवं गुरु लोग जो उसका अर्थ अवश्य हो जाता है। लगा देते हैं उसे मानना ही होगा-और जो न मानेगा इसी वातावरणमें जैनधर्म या जैन धर्माचार्योंके.. वह नास्तिक और धर्मद्वषी या धर्मद्रोही समझा विरुद्ध जो घना देषका या असहानभतिका या असजायगा-तबसे ही ये धार्मिक विद्वेष लड़ाई-झगड़े हयोगकी भावनाका प्रचार भारतमें चारों तरफ जोरोंमें इत्यादि बढ़ गए हमने एकदम दूसरेकी बातें जानना अब भी मौजूद है। उसने देशकी भारी हानि की है। . छोड़ दिया-धीरे धीरे अपने धर्मके तत्वोंको भी जैनधर्मके तत्व एवं शिक्षाएं तो अब भी वही हैं और भल गए मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी रुक कर दूसरे धर्मोंकी भी। पर इस तरहके परस्परके द्वेषधीरे धीरे एकदम गायब ही होगया। विद्वष एवं मनोमालिन्यने एक-दूसरेकी बातोंको धर्माचार्योंने-चाहे वे किसी भी धर्मके हों- जाननेसे हमें वंचित रखा और इस तरह हमारा बहुत सोचने-विचारने, अनुशीलन और मनन करनेके मानसिक तथा बौद्धिक विकास रुकनेके साथ ही आपबाद ही कोई तत्व या Theory पेश की है। हर एक सी कटुता और बढ़नेमें ही सहायक हुई / पर धाने जैसा और जितना ठीक समझा अपने तरीकेसे- र्मिक शिक्षाओंमें तो फिर भी कोई परिवर्तन नहीं : अपनी बुद्धिके अनुसार लोगोंके सामने रखा। माना हुआ। हम इस सत्यको अपनी धर्मान्धताके जोशमें - कि इनमें बहुत तो सच्चे Sincere of honest एकदम भूल जाते हैं और यह कि ऐसा करके जोशमें ईमानदार रहे और बहुतोंने अपनी विद्वत्ता एवं हम दूसरोंका नहीं, बल्कि स्वयं अपना ही नुकसान प्रतिभा तथा प्रभावका अनुचित उपयोग भी किया- करते है। जिससे सत्यके बजाय असत्य फैलनेमें काफी सहा- जैनधर्म बुद्धिवादका समर्थक हामी या प्रतियता मिली / सब कुछ होते हुए भी इतना तो निश्चित पादक है / वह कोई भी ऐसी बात स्वीकार करने है कि ये लोग बहुत बड़े विद्वान् एवं विचारवान या से इनकार करता है जो बुद्धि और तर्ककी कसौटीThin less थे। फिर आज जो हवा हम चारों तरफ पर ठीक और खरा एवं व्यावहारिक न उतरे, देखते हैं कि एक महज अदना मामूली आदमी भी इनकार ही नहीं करता अपने सभी Followers जो धर्म या धार्मिक तत्वोंका-क ख ग घ-भी नहीं अनुयायियोंको ऐसा करनेसे मना भी करता है। जानता वह भी दूसरे धर्मवाले विद्वान और गुरुकी वह कहता है कि किसी भी तत्त्वका, देवताका, गुरूका निन्दा कर देता है और हंसी उड़ा देता है-क्या यह और शास्त्रका वगैर परीक्षा लिए और परीक्षा लेनेपर कम मूढ़ताजनक और मूर्खतापूर्ण है ? क्या यह जब तक ठीक न उतरे या ठीक न जंचे विश्वास मत सचमुच अपनी वेवकूफी और अज्ञानताको ही नहीं करो, मत मानो / वह कहता है कि ऐसा करके ही जाहिर करना है ? आज हमारी हालत यह है कि तुम सत्य और ठीक मार्गपर स्थित होगे या स्थिर हम ऐसा करके ही अपनेको धार्मिक एवं बहादुर होगे एवं उससे विचलित न होगे, कोई बहका नहीं समझते हैं जब कि बात ठीक इसके विपरीत होनी सकेगा-धर्मके नामपर ढोंग और आडम्बरके चाहिए। शिकार होकर अधार्मिकता करनेसे बच सकोगे For Personal & Private Use Only
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________________ किरण 1] भगवान महावीर, जैनधर्म और भारत इत्यादि / इतना ही नहीं, वह हर एक नई बातको या आधुनिक भाषामें इस वैज्ञानिक तरीकोंको छोड़हर संभावित पहलू-हर दृष्टिकोणसे देखनेकी कर अपना बड़ा ही नुकसान किया है / जब पश्चिमी सख्त ताकीद या हिदायत देता है / एव देश, देशोंने इसको अपनाकर अपनी हर तरफ उन्नति की, काल तथा व्यावहारिकताके अनुसार ही हमने इसे भगाकर अवनति की। आज जरूरत है उन्हें उपयोगमें लानेको कहता है ताकि कमसे इसे फिरसे जीवन और समाजके हर पहलूमें उचित कम गलती हो सके। किसी नई बातको जिसके एवं व्यावहारिकरूपसे अपनाने और काममें लाने बारेमें पूरी जानकारीकी जरूरत है उसे एक की-यदि हम सचमुच स्थायी और सुव्यवस्थितरूपसे बार सहसा मान लेने या एकतर्फा धारणा कोई भी उन्नति करना और करते जाना चाहते हैं तो।। उसके बारेमें बना लेनेकी हानियों एवं कटु प्रभावों- जैनधर्मने धार्मिक विभिन्नताओं या मतभेदोंको से सचेत करता है तथा हर गंभीर प्रश्नको हर पहलू- कभी भी संघर्षणात्मक रूप नहीं दिया। हां, तात्विक से सोच विचार जाँचकर और अपनी हर शंकाएं या तार्किक खंडन मंडनका अवश्य ब्यवहार यथासंभव निवारण करके ही स्वीकार करने या किया। इतना ही नहीं अपने अनुयायियोंको बराबर फिर आगे बढ़नेको कहता है / इसे ही हम "अने- यह कहता है कि हर एक धर्मका अनुशीलन,मनन कान्त” कहते हैं / आजका आधुनिक विज्ञान एवं मथन करना चाहिये और तब बुद्धि और तर्कका Science और इसके सारे कारवार मशीनपुर्जे व्यवहार करके जो कुछ ठीक जंचे उसे मानना एवं इसी अनेकान्तके व्यावहारिकरूप हैं जो अन्यथा स्वीकार करना चाहिये / तभी हम गलतियां कम-सेसंभव नहीं होसकते थे / एक मशीनका पुर्जा बनानेके कम करेंगे और जानकारी अधिकसे अधिक होगी लिए उसकी डाइंग (नकशा) कई तरफसे देखकर और इसतरह ही विश्वास या धारणा होगी वह भी ( बाहरसे या बीचसे काटकर Sectioval) बनाई . अधिक-से-अधिक सुदृढ एवं स्थायी होगी। यह स्थाजाती है तब उसका पूरा-पूरा Detail विवरण और यित्व एवं परिष्कृतपना किसी भी व्यक्ति या समाजानकारी प्राप्त होती है जिससे वह पुर्जा कारखानेमें जकी उन्नतिके लिए अत्यन्त जरूरी है। इस रीतिको ठीक-ठीक with precision बन सकता है। यही छोड़कर हमने जबसे एक दूसरेकी बातें जाननेकी बात और सभी कामोंके लिए भी है कि किसी भी मनाही करदी और अलग-अलग रहने लगे तभीसे वस्तु या प्रश्नका या विचारणीय विषयका हर पहलू फूट. वैर, विरोध और संघर्षणोंकी वृद्धि हुई और और दृष्टिकोण या हर तरफसे देखना और विचा- होती गई एवं हमारा दिन-व-दिन मानसिक, शारीरना उसके विशद या अधिक-से-अधिक ठीक रिक एवं नैतिक हास होता गया और हमारा जानकारीके लिए अत्यन्त जरूरी है-इसके वगैर वैयक्तिक पतन होते-होते सामाजिक एवं राष्ट्रीय पतन जो भी जानकारी होगी वह सर्वागीण पूण, सही भी पूर्णरूपसे होगया। इस मनोवृत्तिको दूर करके ही और दुरुस्त न होकर एकांगी और defective हम उन्नति कर सकते हैं और तभी हमारी सर्वाङ्गीण अपूर्ण और विकृत या अधकचरी होगी। विज्ञान या सवतोमुखी विकास होसकता है अन्यथा नहीं। या वैज्ञानिक तरीकोंका जिस विषयमें भी उपयोग याद किसी तरह कुछ हुआ भी तो वह स्थायी या किया जायगा वही तरतीबबार और अनेकान्तरूपी असली न होकर थोड़े समयके लिये और नकली ही होगा। तभी हमें वस्तुओंका सच्चा स्वरूप एवं गुण होगा। हमें धार्मिक खंडन-मंडनको केवल जवानी ठीक-ठीक मालूम होसकेंगे। हमने इसी अनेकांत जमा-खर्च ही तक सीमित रखना चाहिये उसे संघ For Personal & Private Use Only
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________________ अनेकान्त [वर्ष 10 र्षण या खुला विद्वष या लड़ाईका रूप नहीं लेने देना हो जायगी या हो जाती है। हमारी भारतीय संस्कृचाहिये, न उससे कटुता ही किसी तरहकी होनी ति या पृथक संस्कृतियां कितनी पुरानी हैं यह हमारे चाहिये / वस्तुका ठीक-ठीक असली स्वरूप जाननेके आधुनिक विशेषज्ञोंद्वारा अभी तक कुछ निश्चित लिये यह खंडन-मंडन विशद और निष्पक्षरूपमें नहीं हुआ है / पुराने खडहर भग्नावशेष अभी चारों होना जरूरी है / ज्ञान किसी भी वस्तु या विषयका तरफ भरे पड़े हैं जिनकी खुदाई बाकी है / अङ्गऐसा करके ही परिष्कृत हो सकता है। रेजोंने जो कुछ थोड़ी बहुत खुदाई इधर-उधर करके हमें जो कुछ बतलाया अभी तक हम उसीपर निर्भर भगवान महावीर जैनधर्मके चौबीसवें और हैं और सब्र किए बैठे हैं। पर अब हमारी स्वतंत्र आखिरी प्रचारक, परिष्कारक या प्रवर्तक हुए / हमें यह जानबूझकर हमारे विदेशी सत्ताधिकारियोंद्वारा सरकारको चुप बैठना ठीक नहीं। अपनी संस्कृतिकी यह बतलाया जाता रहा कि महावीर जैनधर्मके संस्था प्राचीनता सावित करना परम आवश्यक है। मथुराकी . पक हैं या हुए। और यह केवल इसलिए कि भारत खुदाईसे हमने एक-दूसरेको नया कह कहकर देशकी अपनी पुरानी और प्राचीनतम संस्कृतियोंको भूल बड़ी भारी हानि की / अपनी सारी संस्कृतियोंकी जाय / यदि संभव होता और ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीनताको ही खड़-मंडल कर दिया / यह ठीक नहीं रहते तो इन लोगोंने भगवान महावीर या बुद्ध नहीं / को ईसासे पांचसौ वर्ष पूर्व होनेके बजाय पाँचसौ मगवान ऋषभदेव जैनधर्मके सबसे प्रथम वर्ष बाद होना ही दिखलाते / यदि तिव्बत और तीर्थङ्कर या प्रचारक हुए। पहले जैनधर्म ही सना- : चीनकी पुस्तकें नहीं रहतीं तो महावीर और बुद्धकी तन सत्यपर निश्चित या नियत होनेसे "सनातन सत्ता या होना ही शंकाजनक बतलाई जाती या धर्म" कहा जाता था। पर इधर करीब एक हजार अधिक-से-अधिक गड़रियोंके सरदारके रूपमें ही रहते वर्षों से जब दूसरोंने इस शब्दको अपना लिया और या कुछ ऐसा ही होता / परन्तु वहां ये मजबूर थे जैनधर्मको “जैन" नामकरण दे दिया तबसे यह और कम से कम इन्हें इन भारतीय धर्मोको पश्चि- बजाय "सनातन धर्म" के "जैनधर्म" होगया। कुछ मीय धमों एवं संस्कृतियोंसे पहलेका स्वीकार करना लोगोंने इसे सनातन जैनधर्म कहकर प्रचारित करनेही पड़ा। फिर भी इन्होंने लगातार यही चेष्टा की है की चेष्टा की पर वे सफल न हो सके / भगवान ऋषहमारे दिमागोंमें भरनकी कि रोम, ग्रीस या मिश्र भदेवके बाद समय समयपर तेइस तीथङ्कर और और बैवीलोनियां वगैरहकी संस्कृतियां भारतीय हुए जिन्होंने उसी एक नियत या. निश्चित सत्यका संस्कृतियोंसे पुरानी थीं या हैं या रही हैं / और इस प्रचार किया जिन्हें जैन तत्त्व या जैनधर्मके नामसे बातकी शिक्षा या प्रचार इस तरीकोंसे Inci3scent आज हम जानते हैं / आखिरी चौवीसचे तीथङ्कर लगातार की गई है कि हमारे विशेषज्ञोंने भी वैसा भगवान महावीर हुए जिनका पावन जन्म आजसे ही मानना ठीक समझा जाने लगा या समझा गया। पच्चीससौ वर्ष पहले वैशालीके लिच्छवी वंशके यदि केवल जैनधर्मको ही लिया जाय और उसकी प्रजातनके राजवंशमें हुआ / उन्होंने विवाह नहीं प्राचीनताका ठीक unbiased अनुसंधान किया किया / बाल-ब्रह्मचारी रहे / वयस्क होनेपर उन्होंने जाय और धार्मिक विद्वष-भावना या हम बड़े तो संसारके दुःखोंको देखकर उसे दूर करनेका उपाय हम बड़ेकी भावना छोड़कर देखा जाय तो इससे जाननेके लिये राज्य छोड़कर कठिन तपस्या आरंभ भारतका गौरव. बढ़ेगा ही / और भारतकी की। तपश्चर्याके पश्चात् जिस सत्यपर वें पहुँचे संस्कृतिकी प्राचीनतमता अपने आप सावित वह वही सनातन वैज्ञानिक सत्य था जिसे हम For Personal & Private Use Only
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________________ किरण 1] भगवान महावीर, जैनधम और भारत 33 जैनधर्ममें व्यक्त पाते हैं। पूर्णज्ञान प्राप्त करनेके भी गिराया। फिर भला समाज और देशका पतन बाद उनका प्रथम उपदेश राजगृहमें जिसे आजकल न होता तो और क्या होता / नतीजा हुआ कि हमने 'राजगिर' कहते हैं वहाँ एक महती सभामें श्रावण- सदियों तक गुलामी भुगती और अब भी जब स्ववदि प्रतिपदाको हुआ, जो तिथि वीर-शासन-जयन्ती- तंत्र हुए हैं तब हमारा मानसिक और नैतिक धरातल के रूपमें आज एक पावन पर्वका रूप धारण इतने नीचे चला गया है कि हम अपनी इस स्वतंकिए हुए है। कहते हैं कि उस सभामें मनुष्य त्रताका वास्तविक फल एकदम नहीं पा रहे हैं। और मनुष्यनियों के अतिरिक्त सभी जीवमात्र-पशु- हमारे ऊँचे नेता चिल्ला-चिल्लाकर थक से रहे हैं पर पक्षी वगैरहके बैठनेका प्रबन्ध किया गया था और हमारा धर्मान्धकार अब भी जल्दी नहीं हटता। भगवानके तीव्र अहिंसामय तेजसे खिंचकर अन- संसारमें सभी जीव बराबर हैं-सभी में वही आत्मा गिनत पशु-पक्षी आए थे और उन्होंने भी उनकी है जो किसी भी एक आदमीमें है। जैनधर्म मानवीय अमृतवाणीके स्पर्शमात्रसे ज्ञान प्राप्त किया / मानवों- बराबरी ही क्यों वह तो सार्वभौम एवं अखिल कर पछना ही क्या। आज तो हम मनुष्य भतको बराबरी तथा ऊपर आनेका और ईश्वरत्व मनुष्यको एक साथ एक सभामें बैठने देना पसन्द प्राप्त करनेका सत्व या जन्मसिद्ध अधिकार मानता नहीं करते / ऊँच-नीच, छूत-अछूत वगैरहका इतना और कहता है-भले ही आज हम अपनी अज्ञानता भेद-भाव बढ़ा रखा है कि जो अपनेको बड़ा, एवं वहममें इसे अन्यथा मानते या कहते रहें यह ऊँचा या पवित्र समझते हैं उन्होंने अपने इसी दूसरी बात है / कुछ स्वार्थियोंने अपना नीच मतलब घमंडमें धर्म या धार्मिक तत्वोंकी असलियतको छोड़ गांठनेके लिए हर-तरहके गलत-फलत या गन्दी ढोंग और मायाचारको अपना लिया और उसीको बरी रीतियां या विश्वास फैला दिये और धार्मिक धर्माचार समझकर पतन होते-होते एकदम नीचता- तत्वोंका मतलब अपने मन-माना जैसा-चाहा विकृकी सीमाको पार कर गये। अपने पूज्यपना या तरूपमें लोगोंको समझा दिया / यही सारे अनाका पवित्र होनेके मिथ्याभिमानमें इन लोगोंने अपनी मूल रहा है / उन्हीं विकृत बातों-रीतियों या रूढ़िविशेष मानसिक बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति करना योंको हम आज भी वगैर सोचे समझे पकड़े हुए छोड़ दिया और अपने बड़प्पन, पूज्यपना या ऊँचे हैं। यदि कोई इनसे खिलाफ (विरुद्ध) कुछ कहना होनेके घमंडमें या उसे अक्षण बनाये रखनेके लिए चाहता है तो उसे वजाय सननेके हम / इन थोड़ेसे लोगोंने अगणित लोगोंको अपनी सामाः काटने दौड़ते हैं। पर इससे तो धर्मकी ही हानि जिक शक्ति या प्रभावद्वारा नीच, अछूत या अपवित्र सर्वत्र होरही है / धर्म और धर्मके साथ ही सब कहकर उन्हें ऐसा बनाए रखा और ऐसा बने रहनेके कुछ नीचे चलता जाता है / अब भारत स्वतंत्र हुआ लिये हर-तरहसे मजबूर और बाध्य किया इस और जरूरत इस बातकी है कि हम विदेशी प्रभावसे तरह स्वयं पतित हुए और दूसरोंको भी पतित मुक्त इस वातावरणमें स्वयं कुछ सोचे समझे और विकिया / और इस डरसे कि कहीं सुशिक्षित या चारें एवं हर-एककी बात जाननेकी चेष्टा करेंसुसंस्कृत होकर ये पतित या नीच कहे जानेवाले वगैर किसी विरोध या Bias के-तभी हमें सत्यसे कहीं उन लोगोंसे ऊपर न आजायँ जो पवित्र या भेंट होगी और फिर हम अपने या धर्मकी असलिऊँचे कहे जाते हैं-इन ऊँचे कहे जानेवालोंने उनको यतको सचमुच पावेंगे / और तभी हमारी एवं हर-तरहसे बौद्धिक मानसिक एवं नैतिक विकास हमारे धर्मकी, हमारी जातिकी, हमारी संस्कृतिकी, करनेसे रोक दिया / आप भी गिरे और दूसरोंको देशकी स्थायी उन्नति होगी और होती जायगी। For Personal & Private Use Only
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________________ अनेकान्त [वर्ष 10. ऐसा यदि हम करेंगे तो मेरा विश्वास है कि विज्ञानका दारोमदार है। पर इस Election पुनः एक समय ऐसा आवेगा जब लोग जैनधर्मकी Theory की ब्याख्या अपने विशद एवं व्यवस्थित महत्ताको, उसकी वैज्ञानिकताको एवं सर्व-प्रियता तथा सूक्ष्मरूपमें सब कुछ जाननेवाले सर्वज्ञ जैनतथा सच्चाईको मानने और समझने लगेंगे। तीर्थकरोंद्वारा पहले ही की गई है, जिसे शायद ____ भगवान महावीर केवल जैनधर्मके ही नहीं, अभी हमारे आधुनिक वैज्ञानिक कुछ और आगे जब विश्वके लिए परमपूज्य हुए और उन्होंने विहार बढ़ेंगे तब पावेंगे कि हाँ, जो कुछ जैनधर्ममें पुद्गल प्रान्तको ही नहीं सारे देश और इस पृथ्वीको भी और जीवके बारे में कहा गया है उसीके ऊपर सारे अपने चरणोंसे पवित्रता प्रदान की। अतः विहारको संसारका अस्तित्व है / जैनधर्ममें वार्णित 6 तत्वोंको ही क्यों सारे भारतको भगवान महावीरके लिए गर्व लोग भले ही अपने धार्मिक अहंमें न माननेका दावा है और होना चाहिये / महात्मा गांधीने भी भगवान करते हों, पर आज तक हजारों वर्षोंसे भी किसीने . महावीरकी जीवनीसे अहिंसाका व्यावहारिक ज्ञान उनका खंडन अब तक नहीं किया है-न जिन्होंने लिया और युग बदल दिया। चेष्टा की है वे सफल ही हो पाये हैं। जैनधर्म और __ आज हमारे वैज्ञानिक जैनधर्मके सूक्ष्म वैज्ञानिक इसके तत्वोंकी विशद वैज्ञानिक जानकारी हर तरह प्रतिापदन या तत्त्वोंसे एकदम अज्ञान हैं और सम- किसी भी व्यक्तिको ऊपर ही उठावेगी एवं देश या झते हैं कि विज्ञानका Election या low Theopy संसार भी इसी तरह ऊपर उठ सकता है तथा पश्चिमसे निकला है-जिसके ऊपर आज सारे सच्चा सुख और स्थाई शान्ति स्थापित होसकती है। कार-शासन-जयन्ती (श्री जिनेश्वरप्रसाद, जैन) श्रावण कृष्णा प्रतिपदाका पुण्य-दिवस श्री अजर, अमर, अनन्त गुणोंके पिण्ड शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध१००८ भगवान महावीर स्वामीका शासन-जयन्ती स्वरूपको प्राप्त करो, जिससे संसारके दुःखोंसे छूटदिवस है / इस दिन आजसे लगभग 2500 वर्ष पूर्व कर निजानन्दरसमें लवलीन हो सको।' भगवानके भगवानका प्रथम उपदेश उस समयक प्रकाण्ड- प्रथम आध्यात्मिक उपदेशका सार यही था। हम तत्त्ववेत्ता गौतम इन्द्रभूतिके मिलते ही विहारप्रान्त- सबको उसपर चलकर आत्म-कल्याण करना चाहिए की राजगृही नगरीके विपुलाचलपर हुआ था। और शासन-जयन्तीके स्मरणार्थ अपना कर्तव्य भगवानने अपने उपदेशमें कहा कि 'ऐ जगतके पालन करना चाहिए। प्राणियो ! तुम शरीरसे ममत्वका त्यागकर आत्माके For Personal & Private Use Only
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________________ प्राप्तकी श्रद्धाका फल (श्री 105 क्षुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी ) -:*:आत्मानुशासनमें गुणभद्र स्वामी लिखते हैं :- ऊपर पुरुषत्वका वेष यह शोभा नहीं देता। सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिराल्सा सर्वकर्मक्षयात्, एक आदमी था / शरीरका सुन्दर था। उसने सद्वृत्तात्स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः। स्त्रियों जैसे हाथ मटकाना और आंख चलाना सीख सा चाप्तात्स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत- लिया। राजाका दरबार भरा था। अच्छे-अच्छे लोग स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखद सन्तः श्रयन्तु श्रियै // उसमें बैठे हुए थे। वह आदमी भी स्त्रीके वेषमें 'संसारके यावन्मात्र प्राणी सुख चाहते हैं, सुखकी वहाँ पहुँचा। सब लोग उसे देखकर हँसने लगे। प्राप्ति समस्त कर्मोंके क्षयसे हो सकती है। वह कर्मों- सबसे बड़ा जो आफीसर था वह भी हँसने लगा। का क्षय सम्यकचारित्रसे हो सकता है। सम्यक- उसने कहा हँसनेकी क्या बात है ? तुम लोग अंतचारित्र सम्यग्ज्ञानसे सम्बन्ध रखता है। सम्यग्ज्ञान रङ्गस स्त्री हो और में बहिरङ्गका / यदि तुम अन्तआगमसे होता है, आगम अतिसे होता है, श्रुति रङ्गके स्त्री न होते तो इतनी बहुसंख्यक जनताके आप्तसे होती है और आप्त वह है जिसके रागादि ऊपर मुट्ठी भर लोग राज्य कैसे करते ? वास्तवमें दोष नष्ट हो चुके हैं। इस प्रकार युक्तिद्वारा विचार यही बात है, तुम्हारा राज्य तुम्हारे प्रमाद और कर सर्व सुखोंको देनेवाले श्रीअरहन्तदेवकी उपा- तुम्हारी कायरतासे गया है / अंग्रेजोंने और मुसलसना करो, उसीसे इहलौकिक और पारलौकिक लक्ष्मी से टटलौकिक और पारलौकिक लक्ष्मी मानोंने क्या किया ? उस समय तुम्हारी जैसी प्राप्त हो सकती है।' हालत थी उसमें यदि अंग्रेज न आते तो कोई उनके . यथार्थमें आप्त भगवानकी श्रद्धा बड़ा कल्याण दादा आत / इतना खयाल अवश्य रक्खो कि अपनेकरनेवाली है। आप्त उस पवित्र आत्माको कहते द्वारा किसीका बुरा न हो जाय, पर जो तुम्हारा .हैं जिसके हृदयसे रागादि दोष और बानावरणादि विघात करनेको आवे उससे अपनी रक्षा जिस तरह आवरण निकल चुके हैं, जो सर्वज्ञ है और मोक्षमार्ग- बने कर सकते हो, ऐसी जिनागमकी आज्ञा है। का नेता है ऐसे प्राप्तके सुदृढ़ श्रद्धानसे यदि जीवका गुरु वही है, जो साक्षात्मोक्षमार्ग में प्रवेशकर कल्याण नहीं होगा तो किससे होगा ? भयसे आप चुका है, ऐलक मुनिकी सब क्रिया पालते हैं पर लोगोंके चेहरे सूख रहे हैं, कहते फिरते हो कोई उनकी एक हाथकी लंगोटी उनके गुरु होनेमें बाधक हमारा रक्षक नहीं है। संसारमें कौन किसकी रक्षा है। सेर तभी होगा जब 80 तोलेका होगा, चार करता है। आप लाग शूरवीरताको भूल गये इस- आना भर भी कम रहनेपर सेर नहीं कहला सकता, लिये दुःखी होगये। शूरवीर ही संसारका मार्ग पर अंशतः गुरुत्व तो उनमें भी है / गुरुत्व ही क्यों। चलाता है और शूरवीर ही मोक्षका मार्ग चला आप्तपना भी अंशतः उनमें प्रकट हो जाता है। सकता है / आप पुरुष हैं / पुरुष होकर इतने भय- संयमियोंकी बात जाने दीजिये, अविरत सम्यग्दधिभीत होनेकी क्या आवश्यकता ? यदि आप अपनी में भी आप्तका अंश जागृत हो जाता है इसीलिये रक्षा नहीं कर सकते तो लुगी पहिन लो, पुरुषत्वका तो उसे 'घरमांहि जिनेश्वरका लघुनंदन' कहा। गर्व छोड़ दो / अन्तरङ्गमें स्त्री जैसी भीरुता और यथार्थ देव, गुरु और धमकी भक्ति करना For Personal Private Use Only
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अनेकान्त
श्रावकका मुख्य कर्तव्य है । आगमका अध्यन करना महोपकारी है । यदि आगमके ज्ञाता न हों तो आपकी सभाओं और मन्दिरोंकी शोभा कैसे होसकेगी । उन पत्थर के खम्भोंसे मन्दिरकी शोभा नहीं है, ज्ञानवानोंसे मन्दिरकी शोभा है। लोग कहते हैं कि इन विद्यालयोंमें हमारा लाखों रुपया व्यर्थ चला गया, कुछ भी लाभ नहीं हुए । पर मैं कहता हूँ कि तुम्हारे (सागर) विद्यालय से ये तीन विद्वान् (पं० दयाचन्दजी, पन्नालालजी, माणिकचन्दजी) तैयार होगये तो तुम्हारा लाखोंका खर्च सफल होगया । तुम्हीं सोचो ज्ञानके बिना क्या शोभा ?
देवकी पूजाका अभिप्राय यह नहीं कि उन्हींको हमेशा पूजते रहो । अरे ! वह तो तुम्हारा रूप है । वैसा तुम्हें बनना है । उपादान तो तुम्हीं हो। प्रयत्न तो तुम्हींको करना है । श्रीजिनेन्द्रदेव निमित्त मात्र हैं। आपका बच्चा पढ़ गया, पंडितजीने पढ़ा दिया । क्षयोपशम बच्चेकी आत्मा में था । प्रयत्न उसने किया, पर उसका श्रेय पंडितजीको दिया जाता है, यह निमित्तकी प्रधानतासे कथन है । निमित्तकी प्रधानता से ही देवको कल्याणकारी माना जाता है, उपादानकी अपेक्षासे नहीं । यथार्थ में आपकी आत्मा ही देव है वही पूज्य है । एक किस्सा है। आप लोगोंने कई बार सुना है। फिर भी कहता हूँ :
तो
एक आदमी था । उसकी स्त्री थी । स्त्री बड़ी चतुर थी। जब उसका पति परदेश जाने लगा उसे डर लगा कि यह वहाँ धर्मभ्रष्ट न हो जाय । जाते समय उसने उसे एक गोलवटैया दी और कहा कि इनकी पूजा किये बिना खाना नहीं खाना और जब पूजा करो तब इनके सामने प्रतिज्ञा किया करो कि 'मैं पाप नहीं करूँगा ।' पुरुष था भोला-भाला, उसने
की बात मान ली। वह एक दिन पूजा करके कहीं गया कि इतनेमें चूहाने वटैयापरके चावल खा लिये और उसे लड़का दिया । उसने समझा कि इस वटैयासे बड़ा तो यह चूहा है इसे ही पूजना चहिये । वह चूहाको पूजने लगा । एक दिन बिलाव -
[वर्ष १०
के सामने चूहा डरकर रह गया । उसने समझा यही बलवान् है इसे पूजना चाहिये । एक दिन कुत्ता आया । उसके सामने बिलाव डर गया। अब वह कुत्ते
पूजने लगा । परदेशसे कुत्तेको साथ ले आया । . एक दिन कुत्ता चौकामें चला गया। स्त्रीने उसके शिरमें वेलन जमा दिया । वह कई-कई करता हुआ भागा । पुरुषने सोचा यह स्त्री कुत्तेसे बड़ी है इसे ही पूजना चाहिये | अब वह उसे पूजने लगा। एक दिन स्त्रीने दालमें नमक अधिक डाल दिया जिससे उस पुरुषने उसके शिर में एक चांटा मार दिया । वह रोने लगी । पुरुषने समझा अरे इससे बलवान् तो मैं ही हूँ । मुझे स्वयं अपने आपकी पूजा करना चाहिये । सो भैया ! कल्याण तभी होगा जब आप अपनी पूजा करने लगेंगे, लेकिन जब तक वह दशा प्राप्त नहीं हुई है तब तक देव आदिको पूजना ही है ।
1
कुदेव, कुगुरु और कुधर्मकी सेवा करना सो धर्म है । जो स्वयं रागी -द्वेषी है, विषय-वासनाओंमें आसक्त है उसकी आराधनासे कल्याण होगा, यह संभव नहीं । जहाँ धर्मके नामपर मैं-मैं करते हुए निबल जन्तुओं के गलेपर छुरी चला दी जाय वह क्या धर्म है ? ऐसे धर्मसे क्या किसीका कल्याण हो सकता है ? कल्याण तो उस धर्मसे होगा जिसमें प्राणिमात्रका भला चाहा जाता है। एक पंडित थे मन्मथ भट्टाचार्य । बोले जैनधर्मने भारतवर्षको वर बाद कर दिया । इनकी अहिंसाने दुनिया को कायर बना दिया। दूसरा एक समझदार वहीं था । उसने उत्तर दिया । जेनधर्मने भारतको वरवाद नहीं किया, जैनधर्म कायरता नहीं सिखाता । वह इतना वीरतापूर्ण धर्म है कि उसे यदि कोई घानीमें भी पेल देवे तब भी उफ नहीं करे। भारतवर्षको नष्ट किया है हमारी विषयासक्तिने, हमारे प्रमादने, हमारी फूटने ।
संसार भरी दशा बड़ी विचित्र है । कलका करोड़पति आज भीख मांगता फिरता है । संसारकी दशा एक पानीके बबूलेके समान है । संसारी जीव मोह
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फिरण १]
आप्तकी श्रद्धाका फल
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के कारण अन्धा होकर निरन्तर ऐसे काम करता है "इति स्तुति देव ! विधाय दैन्यावरं न याचे स्वमुपेत्तकोऽसि । जिससे उसका दुख ही बढ़ता है । यह जीव अपने छाया तरु संश्रयतः स्वतः स्यास्करछायया याचितयात्मलाभः॥" हाथों अपने कंधेपर कुल्हाड़ी मार रहा है। यह हे देव ! आपका स्वतवन कर बदलेमें मैं कुछ जितने भी काम करता है प्रतिकूल ही करता है। चाहता नहीं हूँ और चाहूँ भी तो आप दे क्या संसारकी जो दशा है, यदि चतुर्थकाल होता तो उसे सकते हैं ? क्योंकि आप उपेक्षक हैं आपके मनमें . देखकर हजागें आदमी दीक्षा ले लेते । पर यहाँ कुछ यह विकल्प ही नहीं कि यह मेरा भक्त है इसलिये परवाह नहीं है । चिकना घड़ा है जिसपर पानीकी इसे कुछ देना चाहिये । फिर भी यदि मेरा भाग्य बूद ठहरती ही नहीं। भैया! मोहको छोड़ो, रागादि- होगा तो मरी प्रार्थना और आपकी इच्छाके बिना भावोंको छोड़ो, यही तुम्हारे शत्र हैं, इनसे बचो। ही मुझे प्राप्त हो जायगा। छायादार वृक्षके नीचे वस्तुतत्त्वकी यथार्थताको समझो। श्रद्धाको दृढ पहुँचनेपर छाया स्वयं प्राप्त होजाती है। आपके राखो । धनंजय सेठके लड़केको सांपने काट लिया, आश्रयमें जो आयेगा उसका कल्याण अवश्य होगा। वेसुध होगया । लोगोंने कहा वैद्य आदिको बुलाओ, आपके आश्रयसे अभिप्राय शुद्ध होता है और अभिउन्होंने कहा वैद्योंसे क्या होगा ? दवाओंसे क्या प्रायकी शुद्धतासे पापास्रव रुककर शुभास्रव होने होगा ? मंत्र-तंत्रोंसे क्या होगा? एक जिनेन्द्रका लगता है। वह शुभास्रव ही कल्याणका कारण है। शरण ही ग्रहण करना चाहिये। मंदिरमें लड़केको लेजाकर सेठ स्तुति करता है :
देखो ! छाया किसकी है ? आप कहोगे वृक्षकी,
पर वृक्ष तो अपने ठिकानेपर है। वृक्षके निमित्तसे "विषापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च। मर्यको किरणें रुक गई, अतः पृथिवीमें वैसा परिणभ्राम्यन्त्यहो न त्वमिति स्मरन्ति पर्यायनामानि तवैव तानि ॥" मन होगया, इसी प्रकार कारणकूट मिलनेपर - इस श्लोकके पढ़ते ही लड़का अच्छा होगया। आत्मामें रागादिभावरूप परिणमन होजाता है। लोग यह न समझने लगें कि धनंजयने किसी वस्तु- जिसप्रकार छायारूप होना आत्माका निजस्वभाव की आकांक्षासे स्तोत्र बनाया था, इसलिये वह स्तोत्र- नहीं है। यही श्रद्धान होना तो शुद्धात्मश्रद्धान के अन्तमें कहते हैं :
है-सम्यग्दर्शन है।
(सागर-चतुर्मासमें दिया गया वर्णीजीका एक प्रवचन)
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साहित्य-परिचय और समालोचन
[.इस स्तम्भमें समालोचनार्थ आये नये ग्रन्थादि साहित्यका परिचय और समालोचन किया जाता है। समालोचनाके लिये प्रत्येक ग्रन्थादिकी दो-दो प्रतियाँ पानी जरूरी हैं।
-स० सम्पादक ] १. मोक्षमार्गप्रकाश-लेखक, आचार्यकल्प प्रकाशक भारतीयज्ञानपीठ काशी, पृष्ठ संख्या ३५४ पं० टोडरमलजी। सम्पादक पं० लालबहादुर शास्त्री। मूल्य सजिल्द प्रतिका तेरह रुपया। प्रकाशक, भारतवर्षीय दि० जैन संघ, चौरासी- प्रस्तुत ग्रन्थका विषय उसके नामसे स्पष्ट है । मथुरा। पृष्ठ संख्या, सब मिलाकर ४२८ । नूल्य, इसमें जैन-मठ, जैनसिद्धान्तभवन, सिद्धान्तवसदि सजिल्द प्रतिका आठ रुपया।
आदि शास्त्रभंडार मूडबिद्री, जैनमठ कारकल और पुस्तुत ग्रन्थ पंडितप्रवर टोडरमलजीके मोक्षमार्ग- आदिनाथ ग्रन्थभण्डार अलिपूर आदि स्थानोंके भप्रकाशका ढूढारी भाषासे खड़ी भाषामें अनूदित ण्डारोंमें स्थित ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी एक सूची है। उक्त संस्करण है । इस संस्करणमें भाषापरिवर्तनके साथ सूचीका संकलन भारतीयज्ञानपीठ काशीकी कन्नड़ विषयको स्पष्ट करनेके लिये अनेक ग्रन्थोंके आधारसे शाखाके द्वारा हुआ है । दि० जैन समाजमें विविध टिप्पण भी फुटनोटमें दिये गये हैं जिनसे जैनेतरग्रन्थ- प्रान्तोंके समस्त शास्त्र-भण्डारोंमें स्थित ग्रंथोंकी एक कारोंकी मान्यताओंका भली-भांति परिचय मिल जाता मुम्मिल सूचीकी बहुत आवश्यकता है, उसका है। और ग्रन्थगत विशेष कथनोंको स्पष्ट करनेके लिये अभाव पद-पदपर खटकता है, जबकि श्वेताम्बपरिशिष्ट भी लगाये गये हैं। इससे स्थलोंका अच्छा रीय समाजके शास्त्र-भण्डारोंकी कई विशाल-सूचियां बोध होजाता है।
प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रस्तुत सूचीके प्रकाशनसे ___ग्रन्थके आदिमें ५० पृष्ठकी महत्वकी प्रस्तावना
उसकी आंशिक पूर्ति हो जाती है। खेद है कि हमें है जिसमें ग्रन्थकर्ता पं० टोडरमलजीके जीवन-इतिवृत्त
अभी तक भी इस बातका पता नहीं है कि हमारे पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है और उनकी कृति
पास कितनी शास्त्र-सम्पत्ति है। अस्तु, भारतीय
ज्ञानपीठ काशीद्वारा किया गया यह प्रयत्न प्रशंसयोंका सामान्य परिचय भी दिया गया है। पंडितजीका निश्चित जन्म-संवत अभी और
नीय है। आशा है ज्ञानपीठ इस दिशामें और भी चारणीय है।
प्रयत्नशील होगी। .
इस संस्करणमें कितनी ही अशुद्धियाँ रह गई हैं। इस संस्करणमें कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं जो
प्रस्तावके पृष्ठ २६ पर अप्रकाशित ग्रंथोंकी जो तालिका खटकने योग्य है फिर भी सम्पादकजीन इस सस्करणक. दी गई है उसमें ५५ नम्बरका ग्रन्थ प्रद्य प्रचरित पीछे जो परिश्रम किया है वह सराहनीय है। संघने
है जो महाकवि महासेनकी अनुपम कृतिरूपसे प्रसिद्ध इस संस्करणको प्रकाशितकर खड़ी भाषा-प्रेमी पाठकोंका एक बड़ा हित किया है इसके लिये वह चन्द दिगम्बर जैन-ग्रन्थमाला. बम्बईद्वारा प्रकाशित
है। वह अपने मूलरूपमें सं० १६७३ में माणिकअवश्य धन्यवादाह है। सफाई-छपाई अच्छी है। स्वा- होचका है जिसका नं०८ है। अतः उसे अप्रकाशित ध्याय प्रेमियोंको इसे मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए। ग्रन्थोंकी तालिकामें नहीं रखना चाहिये।
२. कन्नड-प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थ-सूची--- सूचीके १२६ वें पृष्ठपर मूडबिद्रीके जैन-मठके सम्पादक पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री, ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी सूची देते हुए ११५ वें नं० पर
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किरण १]
साहित्य-परिचय और समालोचन
वादिराजकृत 'यशोधर-काव्य' का परिचय दिया है टीका थी तो उसके अन्तकी प्रशस्तिके पद्य भी
और लिखा है कि इसमें स्वोपज्ञ संस्कृत टीका भी उद्धृत कर दिये जाते जिससे फिर शंकाको कोई है और विशेषद्वारा उस टीकाको क्षेमपुरके नेमिनाथ- स्थान नहीं रहता । अस्तु, दोनों ग्रन्थोंकी चैत्यालयमें रचे जानेका भी समुल्लेख किया है। ३२ पत्रात्मकसंख्या, और क्षेमपुरके नेमिनाथचैत्यावादिराजने अपने किसी काव्य-ग्रन्थपर स्वोपज्ञ लयमें निर्माण ये दोनों बातें विचारणीय हैं। क्योंकि टीका लिखी हो, यह ज्ञात नहीं होता। उनके दोनों टीकाओंका एक ही स्थानमें निर्माण होना यशोधर-काव्य और पार्श्वनाथ-चरित दोनों ही ग्रन्थ अवश्य ही विचारणीय है। छपाई-सफाई प्रायः मुद्रित हो चुके हैं, पर उनकी स्वोपज्ञ टीकाओंका कोई अच्छी है। यह ग्रन्थ प्रत्येक पुस्तकालयमें संग्रह परिचय नहीं है। मालूम होता है कि किसी अन्य · करने योग्य है। विद्वान्की टीकाको ही 'स्वोपज्ञ' भूलसे लिखा गया । है; क्योंकि उसी सूचीके १३० वें पृष्ठपर १२६ वें ३. हिन्दी-पद्य-संग्रह-सम्पादक-मुनि कान्तिसागर नम्बरके ग्रन्थ 'यशोधर-काव्य-टीका' के, जिसका रच- प्रकाशक-श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान-भंडार, सूरत । पृष्ठयता पंडित लक्ष्मण है और जिसकी पत्र-संख्या भी संख्या ६८ । ११५ नम्बरके समान ३२ बतलाई गई है, अन्तिम प्रस्तुत पुस्तकमें विभिन्न कवियोंद्वारा संकलित प्रशस्तिके दो पद्य सूचीमें निम्नरूपसे दिये हुए हैं :- नगरोंकी परिचयात्मक गजलोंका संग्रह है जो ऐति"अकारयदिमा टीका चिक्कणो गुणरक्षणः ।
हासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इनसे उन नगरोंकी अकरोजि नदासोऽयं चिक्कणात्मजलचमणः ॥१॥
तत्कालीन परिस्थितिका चित्र सामने आजाता है । ... श्रीमत्पद्मणगुम्मटेत्यभिहितौ श्रीवर्णिनौ भूतले, ..
दि० जैनशास्त्र-भंडारोंमें इस प्रकारकी अनेक गजलें, भ्रातारौश्चारुचरित्रवार्धिहिमगू तत्प्रीतये लक्ष्मणः। कवित्त तथा लावनियाँ पाई जाती हैं जिनमें उनकी मन्दो बन्धुरवादिराजविदषः काव्यस्य कल्याणदां. ऐतिहासिक परिस्थितिके साथ वहाँकी जनताकी टीका क्षेमपुरेऽकरोद् गुरुतरश्रीनेमिचैत्यालये ॥२॥" धार्मिक परिणतिका भी परिज्ञान होजाता है। मुनिजी
इन पद्योंसे स्पष्ट मालूम होता है कि यशोधर का यह कार्य प्रशंसनीय है। आशा है वे इस काव्यकी. इस टीकाको लक्ष्मणने अपने पिताके अनु
प्रकारकी अन्य ऐतिहासिक कविताओंका भी संग्रह रोधसे बनाई है और अपने दोनों भाई पद्मण और प्रकाशित करनेका प्रयत्न करेंगे। गुम्मट वणिद्वयके कहनेसे उनके प्रेमवश क्षेमपुरके पुस्तकके अन्तमें बतौर परिशिष्टके गजलोंमें बृहत् नेमिनाथ-चैत्यालयमें उसे रचा है। बहुत प्रयुक्त हुए नगर, ग्राम, राजा, मंत्री, सेठ और संभव है दूसरी प्रतिमें, जिसका ऊपर उल्लेख श्रावक-श्राविकाओंके नामोंकी सूचीका न होना खटकिया गया है यही टीका साथमें अंकित हो, कता है । आशा है अगले संस्करणमें इस बातका जिसे स्वोपज्ञ बतलाया गया है, यदि वह स्वोपज्ञ ध्यान रक्खा जावेगा।
-परमानन्द जैन, शास्त्री
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सम्पादकीय
अनेकान्तका नया वर्ष
और जिन वर्षों में अनेकान्तको घाटा न रहकर कुछ बचत ही इस किरणके साथ अनेकान्तका १० वाँ वर्ष प्रारम्भ रही थी । यहाँपर एक बात खासतौरसे नोट कर देनेकी है जो होता है और यह वर्षारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदाकी उस हालमें देहली म्यूजियमके सुपरिन्टेन्डेन्ट डा. वासुदेवशरणपुण्यतिथिसे किया जारहा है जो प्राचीन भारतका नव वर्ष जी अग्रवालने मिलनेपर कहा जिसका सार इतना ही है । दिवस new years day है तथा जिस दिन श्रीवीरभग- कि देवमूर्ति और देवालयके निर्माण तथा प्रतिष्ठादि कार्योंपानकी प्रथम दिव्यध्वनि-वाणी विपुलाचलपर्वतपर खिरी में जिस प्रकार आर्थिक दृष्टिको लक्ष्यमें नहीं रक्खा जाताथी-उनका शासनतीर्थ प्रवर्तित हुआ था और जो लोकमें अर्थोपार्जन उसका ध्येय नहीं होता-उसी प्रकार सरस्वतीवीरशासनजयन्ती पर्वके रूपमें विश्रुत है । अब अनेकान्त देवीको मूर्ति जो साहित्य है उसके निर्माणादि कार्योमें देहलीसे प्रकाशित हुआ करेगा और देहलीके अकलंकप्रेसमें आर्थिक दृष्टिको लक्ष्यमें नहीं रखना चाहिये । प्रयोजन उनउसके छपानेकी योजना की गई है। प्रेसने समयपर पत्र- का यह कि अनेकान्तको शुद्ध साहित्यिक तथा ऐतिहासिक को छापकर देनेका पुख्ता वादा किया है और वह एक पत्र बनाना चाहिये और उसमें महत्वके प्राचीन ग्रन्थोंको सप्ताहमें एक किरणको छाप देनेके लिये वचनबद्ध हुआ है। भी प्रकाशित करते रहना चाहिये । जैनसमाजमें साहित्यिक छपाईका चार्ज और देहलीका खर्च बढ़ जानेपर भी प्रचार- रुचि कम होनेसे यदि पत्रकी ग्राहकसंख्या कम रहे और की दृष्टिसे मूल्य वही २) रु. वार्षिक ही रक्खा गया है। इतने उससे घाटा उठाना पड़े तो उसकी चिन्ता न करन मूल्यमें पत्रका खर्च पूरा नहीं हो सकता उस वक्र तक जब चाहिये-वह घाटा उन सज्जोंके द्वारा पूरा होना चाहिये तक कि पत्रकी ग्राहकसंख्या हजारोंकी तादादमें न बढ़े जो सरस्वती अथवा जिनवाणी-माताकी पूजा-उपासना और कोई भी पत्र हानि उठा कर अधिक समय तक किया करते हैं और देव गुरु-सरस्वतीको समान-दृष्टिसे जीवित नहीं रह सकता । पिछले वर्ष जो घाटा रहा उसे देखते हैं। ऐसा होनेपर जैनसमाजमें साहित्यिक रुचि भी वृदेखते हुए इस वर्ष पत्रको निकालनेका साहस नहीं होता द्धिको प्राप्त होगी, जिससे पत्रको फिर घाटा नहीं रहेगा और था परन्तु अनेक सज्जोंका यह अनुरोध हुआ कि अनेकान्त- लोकका जो अनन्त उपकार होगा उसका मूल्य नहीं आँका को बन्द नहीं करना चाहिये, क्योंकि इसके द्वारा कितने जा सकता-स्थायी साहित्यसे होनेवाला लाभ देवमूर्तियों ही महत्वके साहित्यका गहरी छान-बीनके साथ नव-निर्माण आदिसे होनेवाले लामसे कुछ भी कम नहीं है। बात बहुत
और प्राचीन साहित्यका सुसम्पादन होकर प्रकाशन होता अच्छी तथा सुन्दर है और उसपर जैनसमाजको खासतौरसे है, जो बन्द होनेपर रुक जायगा और उससे समाजको भारी ध्यान देकर अनेकान्तकी सहायतामें सविशेष रूपसे हानि पहुँचेगी । इधर वीरसेवामन्दिरके एक विद्वान्ने सावधान होना चाहिये, जिससे अनेकान्त घाटेकी चिन्तासे निजी प्रयत्नसे १०० और दूसरे विद्वान्ने २०० नये मुक्त रहकर प्राचीन साहित्यके उद्धार और समयोपयोगी नवग्राहक बनानेका दृढ संकल्प करके प्रोत्साहित किया । उधर साहित्यके निर्माणादि कार्योंमें पूर्णतः दत्तचित्त रहे और इस गुण-ग्राहक प्रेमी-पाठकोंसे यह आशा की गई कि वे तरह समाज तथा देशकी ठीक-ठीक सेवा कर सके । अनेकान्तको अनेक मार्गोंसे सहायता भेजकर तथा भिजवा अनेकान्तकी सहायताके अनेक मार्ग हैं जिहें पाठक अन्यत्र कर उसी प्रकारसे अपना हार्दिक सहयोग प्रदान करेंगे प्रकाशित 'अनेकान्तकी सहायताके मार्ग' इस शीर्षकपरसे जिस प्रकार कि वे अनेकान्तके ४थे, वें वर्षों में करते रहे हैं जान सकते हैं।
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देहलीमें कीर-शासन-जयन्तीका अपूर्व समारोह
भारतको राजधानी देहलीमें भारतके आध्यात्मिक संत दुनिया प्रशान्त है। वह शान्तिका उपाय चाहती है। पूज्य श्री १०५ शुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णीकी अध्यक्षतामें शान्तिका सर्वश्रेष्ठ उपाय महावीरकी अहिंसा है। विदेशोंसे श्रावण कृष्णा प्रतिपदा, ता. ११ जुलाई सन् १९४६ को अहिंसाके प्रचारकी माँग प्रारही है, अहिंसाके प्रचारका रात्रिके ७॥ बजेसे १०॥ बजे तक लालमन्दिरजीके अहाते- इससे और महान् अवसर कब मिलेगा! आप दश-बीसमें वीर-सेवामन्दिर सरसावाके तत्वावधानमें धीर-शासन- लाख रुपया इकट्ठे कीजिये और एक जहाज खरीदकर जयन्तीका अपूर्व समारोह सानन्द सम्पन्न हुआ। विदेश चलिये और यहाँ पर वीर-शासनकी वास्तविक
जनता चार-पाँच हजारकी तादादमें उपस्थित थी और अहिंसाका प्रचार करिये। उसमें अपूर्व उल्लास था। ला० रघुवीरसिंहजी जैनावाच
मुख्तार साहबकी संस्था वीर-सेवामन्दिर वीर-शासनकी कम्पनी और जैन-जागृत-संघके सदस्योंने इस समारोहकी
सेवा कर रही है, क्या आप लोग वीर-सेवामन्दिरको व्यवस्था की थी।
स्थानादिका प्रबन्ध नहीं कर सकते ! यदि श्राप लोग अपने पं० मुझालालजी समगौरयाके मंगलगानके पश्चात् दैनिक खर्च से फी-रुपया एक-पैसा भी निकालें, जो स्वामी निजानन्दजीने अपने भाषणमें वीर-शासनकी महत्ता- अधिक नहीं है ता लाखा रुपया इकट्ठा ह
अधिक नहीं है तो लाखों रुपया इकटठा होसकता है और को बतलाया । अनन्तर जैटली साहबने, जो दर्शन-शास्त्रके उससे धीर-शासनके प्रचारमें पूरी मदद मिल सकती है। प्रौढ विद्वान् हैं और जैनधर्मसे विशेष प्रेम रखते हैं, आप वीर-सेवामन्दिरको अपनाएँ और उसकी तन-मनभारतीय-दर्शनोंके साथ तुलनात्मकरूपसे जैनदर्शन और धनसे सहायता करें जिससे वह प्राचीन-शास्त्रोंके उद्धार उसके अहिंसा, सत्य तथा कर्म श्रादि सिद्धान्तोंका सुन्दर करनेमें समर्थ होसके। भाषण चालू रखते हुए पूज्य एवं मार्मिक विवेचन किया और बतलाया कि भारतीय- वर्णीजीने कहा कि श्राज वीर-शासनका दिवस है। आजसे दर्शनोंमें जैन-दर्शनका सबसे महत्वपूर्ण स्थान है और आप लोग मद्य, मांस और मधुके त्यागपूर्वक अष्ट मूलगुणोंमहावीरका शासन ही विरोधोंका समन्वय करनेवाला है। को धारण करनेकी प्रतिज्ञा करें। आपने भाषणके श्रादि और अन्तमें महावीरके चरणों में
इसके बाद पं० राजेन्द्रकुमारजी प्रधानमंत्री दि. जैनअपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित की। पश्चात् बा. जय
संघने पू.य वर्णीजीकी भावनापर जोर देते हुए कहा कि भगवानजी एडवोकेट पानीपतने अपने महत्वपूर्ण भाषणमें
मुख्तार साहबने जैन-साहित्यकी बड़ी सेवा की है और धीर-शासनके प्रचारकी प्रेरणा करते हुए अपने जीवनको
उसके लिये अपना सब कुछ दे दिया है। आप लोग अपनी वीर-शासनका सच्चा अनुयायी बनानेकी ओर संकेत किया।
आमदनीमेंसे डेढ़ परसेन्ट निकालकर उसे धीर-सेवामन्दिरको अनन्तर वीर-सेवामन्दिरके संस्थापक पं० जुगलकिशोरजी
प्राचीन-शास्त्रोंके समद्धारके लिये दे देवें। वीर-सेवामन्दिरने मुख्तारने वीर-शासनदिवसकी महत्ता और तिथिकी
का जैन-संस्कृतिके संरक्षणका बड़ा कार्य किया है। इसपर
न पवित्रता एवं ऐतिहासिक प्राचीनताका उल्लेख करते हुए अनेक सजनोंने उसी समय अपने नाम लिखाये। 'महावीर-सन्देश' नामकी स्वरचित कविता पढ़कर सुनाई। इस तरह वीर-शासन-जयन्तीका यह महोत्सव बड़े इसके बाद अध्यक्ष महोदय पूज्य वर्णीजीका प्रभावक भाषण प्रानन्द और उल्लासके साथ समाप्त हुआ। हुआ। आपने भगवान् महावीरके शासन-सिद्धान्तोंका स्वयं आचरण करनेकी प्रेरण हुए कहा कि श्राज ......
.......... -परमानन्द,
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________________ Regd. No. D. 397 ==) हमारे सुरुचिपूर्ण प्रकाशन (== 1. अनित्य-भावना-श्रा०पद्मनन्दिकृत भावपूर्ण 6. उमास्वामिश्रावकाचारपरीक्षा-मुख्तार श्रीधार हृदयग्राही महत्वकी कृति, साहित्य-तपस्वी पण्डित | जुगलकिशोरद्वारा लिखित ग्रन्थ-परीक्षाओंका इतिहासजगलकिशोर मख्तारके हिन्दी-पद्यानवाद और भावार्थ सहित प्रथम अंश / मूल्य चार पाना। सहित / मूल्य चार पाना / 7. विवाह-समुद्देश्य-पंडित जुगलकिशोर 2. आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्व कानच्याथसत्र-सरल मुख्तारद्वारा रचित विवाहके रहस्यको बतलानेवाली संक्षिप्त नया सूत्र-ग्रन्थ, पं० जुगलकिशोर मुख्तारकी और विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य सुन्दर सुबोध हिन्दी-व्याख्यासहित / मूल्य चार श्राना / कृति / मूल्य पाठ श्राना। 3. न्याय-दीपिका-(महत्वका सर्वप्रिय संस्क ___नये प्रकाशन रण) अभिनव धर्मभूषण विरचित न्याय-विषयकी सुबोध प्राथमिक रचना। न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल 1. प्राप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीकासहित-( अनेक कोठियाद्वारा सम्पादित, हिन्दी-अनवाद, विस्तृत (101 विशेषताओंसे विशिष्ट महत्वपूर्ण अभिनव संस्करण) पृष्ठकी) प्रस्तावना, प्राकथन, परिशिष्टादिसे विशिष्ट, तार्किकशिरोमणि विद्यानन्दस्वामि-विरचित प्राप्तविषय४०० पृष्ठप्रसाण, लागत मूल्य पाँच रुपया। विद्वानों, की अद्वितीय रचना, न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल छात्रों और स्वाध्याय-प्रेमियोंने इस संस्करणको बहुत कोठियाद्वारा प्राचीन प्रतियोंपरसे संशोधित और सम्पापसन्द किया है। इसकी थोड़ी ही प्रतियाँ शेष रही हैं। दित, हिन्दी-अनुवाद, विस्तृत प्रस्तावना, और अनेक शीघ्रता करें। फिर न मिलने पर पछताना पड़ेगा। परिशिष्टोंसे अलङ्कत २०४२६.पेजी साइज, लगभग 4. सत्साधुस्मरणमङ्गलपाठ-अभूतपूर्व सुन्दर और विशिष्ट सङ्कलन, सङ्कलयिता पंडित जुगलकिशोर चार-सौ पृष्ट प्रमाण, मूल्य अाठ रुपया। यह संस्करण मुख्तार / भगवान महावीरसे लेकर जिनसेनाचार्य / शीघ्र प्रकाशित होरहा है। पर्यन्तके 21 महान् जैनाचार्योंके प्रभावक गुणस्मरणोंसे नाथ-स्तोत्र-उक्त विद्यानन्दाचार्ययुक्त / मूल्य पाठ श्राना। विरचित महत्वका स्तोत्र, हिन्दी-अनुवाद तथा प्रस्ता५. अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पञ्चाध्यायी तथा वनादि सहित / सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाटीसंहिता आदि ग्रन्थोंके रचयिता पंडित राजमल्ल लाल कोठिया। मूल्य एक रुपया। विरचित अपूर्व प्राध्यात्मिक कृति, न्यायाचार्य पंडित 3. शासन चतुस्त्रिशिका-विक्रमकी 13 वीं दरबारीलाल कोठिया और पं० परमानन्द शास्त्रीके शताब्दीके विद्वान् मुनि मदनकीर्ति-विरचित तीर्थसरल हिन्दी-अनुवादादिसहित तथा मुख्तार पंडित परिचयात्मक ऐतिहासिक अपूर्व रचना, हिन्दी अनुवादजुगलकिशोरद्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावनासे विशिष्ट / सहित / सम्पादक-न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल मूख्य डेढ़ रुपया। कोठिया। मूल्य बारह पाना / SEK RY- व्यवस्थापक वीरसेकामन्दिर, 7/33 दरियागंज, देहली। प्रकाशक-परमानन्द जैन शास्त्री, वीरसेवामंदिर 7/33 दरियागंज देहली, मुद्रक-अजितकुमार जैन शास्त्री, अकलंकप्रेस, सदरबाजार, देहली 915-PAUBDEUSeoni