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________________ श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ जगतसिंहजी द्वितीयका राज्य संवत् १७६० से १८०८ ओंका विस्तृत वर्णन दिया हुआ है। और दूसरा तक रहा है। अतः पण्डितजीका सं० १७६८में जगत- ग्रन्थ 'अध्यात्म बारहखड़ी' है जिसे उन्होंने संवत् सिंहजीकी कृपा का उल्लेख करना समुचित ही है। १७६८ में समाप्त किया था । इस ग्रन्थकी प्रशस्ति क्योंकि वे वहां सं० १७६५ से पूर्व पहुंच चुके थे। में उस समयके उदयपुर निवासी कितने ही साधर्मी परिडतजीने वहां राजकार्योंका विधिवत् संचा- सज्जनोंका नामोल्लेख किया गया है जिससे पण्डित लन करते हुए जैन ग्रन्थोंका अच्छा अभ्यास किया जीके प्रयत्नसे तत्कालीन उदयपुरमें साधर्मी सज्जन और अपने दैनिक नैमत्तिक कार्योंके साथ गृहस्थो- गोष्ठी और तत्त्वचर्चादिका अच्छा समागम एवं चित देवपूजा और गुरु उपासनादि षट्कर्मोंका भी प्रभाव होगया था। अध्यात्मबारहखड़ी की प्रशस्ति भलीभाँति पालन किया। साथ ही वहाँके जैनियोंमें में दियेहुए साधर्मी सज्जनोंके नाम इस प्रकार हैं:धार्मिक संस्कारोंकी दृढ़ता लानेके लिये शास्त्र स्वा- पृथ्वीराज, चतुर्भुज, मनोहरदास, हरिदास, वखताध्याय और पठन-पाठनका कार्य भी किया। जिससे वरदास, कर्णदास और पण्डित चीमा इन सबकी उस समय वहांके स्त्री-पुरुषोंमें धर्मका खासा प्रचार प्रेरणा एवं अनरोधसे उक्त ग्रन्थकी रचना की गई है हो गया था । और वे अपने आवश्यक कर्तव्योंके जैसाकि ग्रन्थप्रशस्तिगत निम्न पद्योंसे मालूम होता साथ स्वाध्याय, तत्त्वचिंतन और सामयिकादि कार्यों है:का उत्साहके साथ विधिवत् अनुष्ठान करते थे। . इसके अतिरिक्त उन्होंने वहाँ रहते हुए प्राचार्य उदियापुर में रुचिधरा कैयक जीव सजीव । वसुनन्दीके उपासकाध्ययन ( वसुनन्दीश्रावकाचार) पृथ्वीराज चतुभुजा श्रद्धा धरहिं अतीव ॥५॥ की एक टब्बा टीकाका निर्माण भी किया था जिसे दास मनोहर अर हरी द्वै वखतावर कर्ण । उन्होंने वहाँके निवासी सेठ वेलजीके अनुरोधसे केवल केवल रूपकों, राबै एकहि सर्ण ॥६॥ पूर्ण किया था। यह (टब्बा टबा टीका कब बनी, यह ठीक मालूम चीमा परिडत आदि ले, मनमें धरिउ विचार । नहीं हो सका। पर जान पड़ता है कि इसका निर्माण बारहखड़ा हा भात्त.मय, ज्ञानरूप आवकार ॥७॥ • भी सं० १८०८ से पूर्व ही हुआ है, क्योंकि इसके भाषा छन्दनि माहि जो, अक्षर मात्रा लेय । बाद उनका उदयपुर रहना निश्चित नहीं है। प्रभके नाम बखानिये, समुझे बह त सनेय ॥८॥ - इसके सिवाय ऊपर उल्लिखित उन दोनों ग्रन्थों । इह विचार कर सब जना, उर धर प्रभु की भक्ति । का भी प्रणयन किया जिनमें 'क्रियाकोष' सं० १७६५ की रचना है और उसमें जैन श्रावकोंकी ५३ क्रिया- बोल दोलतराम सौं करि सनेह रस व्यक्ति ॥६॥ १-देखो रायमल्लका परिचय, वीरवाणी अङ्क २। २-उदयापुरमें कियौ वखान, दौलतराम आनन्द सुत जान। वांच्यो श्रावक वृत्त विचार, वसुनन्दी गाथा अविकार ॥ बोले सेठ बेलजी नाम, सुन नप मंत्री दौलतराम । टबा. होय जो गाथा तनो, पुण्य उपजै जियको धनो॥ सुनिके दौलत वैन सुवैन, मन भरि गायो मारग जैन । -टबा टीका प्रशस्ति । ३-संवत सत्रहसौ अट्ठाणव, फागुनमास प्रसिद्धा । शुक्ल पक्ष दुतिया उजयारा, भायो जगपति सिद्धा ॥३०॥ जबे उत्तराभाद्र नक्षत्रा, शुक्लजोग शुभकारी । बालव नाम करण तब वरतै, गायो ज्ञान विहारी ॥३॥ एक मुहूरत दिन जब चढ़ियो, मीन लगन तब सिद्धा । भगतिमाल त्रिभुवन राजाकौं, भेंट करी परसिद्धा ॥३२॥ -अध्यात्म बारहखड़ी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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