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________________ अनेकान्त [वर्ष 10 र्षण या खुला विद्वष या लड़ाईका रूप नहीं लेने देना हो जायगी या हो जाती है। हमारी भारतीय संस्कृचाहिये, न उससे कटुता ही किसी तरहकी होनी ति या पृथक संस्कृतियां कितनी पुरानी हैं यह हमारे चाहिये / वस्तुका ठीक-ठीक असली स्वरूप जाननेके आधुनिक विशेषज्ञोंद्वारा अभी तक कुछ निश्चित लिये यह खंडन-मंडन विशद और निष्पक्षरूपमें नहीं हुआ है / पुराने खडहर भग्नावशेष अभी चारों होना जरूरी है / ज्ञान किसी भी वस्तु या विषयका तरफ भरे पड़े हैं जिनकी खुदाई बाकी है / अङ्गऐसा करके ही परिष्कृत हो सकता है। रेजोंने जो कुछ थोड़ी बहुत खुदाई इधर-उधर करके हमें जो कुछ बतलाया अभी तक हम उसीपर निर्भर भगवान महावीर जैनधर्मके चौबीसवें और हैं और सब्र किए बैठे हैं। पर अब हमारी स्वतंत्र आखिरी प्रचारक, परिष्कारक या प्रवर्तक हुए / हमें यह जानबूझकर हमारे विदेशी सत्ताधिकारियोंद्वारा सरकारको चुप बैठना ठीक नहीं। अपनी संस्कृतिकी यह बतलाया जाता रहा कि महावीर जैनधर्मके संस्था प्राचीनता सावित करना परम आवश्यक है। मथुराकी . पक हैं या हुए। और यह केवल इसलिए कि भारत खुदाईसे हमने एक-दूसरेको नया कह कहकर देशकी अपनी पुरानी और प्राचीनतम संस्कृतियोंको भूल बड़ी भारी हानि की / अपनी सारी संस्कृतियोंकी जाय / यदि संभव होता और ऐतिहासिक प्रमाण प्राचीनताको ही खड़-मंडल कर दिया / यह ठीक नहीं रहते तो इन लोगोंने भगवान महावीर या बुद्ध नहीं / को ईसासे पांचसौ वर्ष पूर्व होनेके बजाय पाँचसौ मगवान ऋषभदेव जैनधर्मके सबसे प्रथम वर्ष बाद होना ही दिखलाते / यदि तिव्बत और तीर्थङ्कर या प्रचारक हुए। पहले जैनधर्म ही सना- : चीनकी पुस्तकें नहीं रहतीं तो महावीर और बुद्धकी तन सत्यपर निश्चित या नियत होनेसे "सनातन सत्ता या होना ही शंकाजनक बतलाई जाती या धर्म" कहा जाता था। पर इधर करीब एक हजार अधिक-से-अधिक गड़रियोंके सरदारके रूपमें ही रहते वर्षों से जब दूसरोंने इस शब्दको अपना लिया और या कुछ ऐसा ही होता / परन्तु वहां ये मजबूर थे जैनधर्मको “जैन" नामकरण दे दिया तबसे यह और कम से कम इन्हें इन भारतीय धर्मोको पश्चि- बजाय "सनातन धर्म" के "जैनधर्म" होगया। कुछ मीय धमों एवं संस्कृतियोंसे पहलेका स्वीकार करना लोगोंने इसे सनातन जैनधर्म कहकर प्रचारित करनेही पड़ा। फिर भी इन्होंने लगातार यही चेष्टा की है की चेष्टा की पर वे सफल न हो सके / भगवान ऋषहमारे दिमागोंमें भरनकी कि रोम, ग्रीस या मिश्र भदेवके बाद समय समयपर तेइस तीथङ्कर और और बैवीलोनियां वगैरहकी संस्कृतियां भारतीय हुए जिन्होंने उसी एक नियत या. निश्चित सत्यका संस्कृतियोंसे पुरानी थीं या हैं या रही हैं / और इस प्रचार किया जिन्हें जैन तत्त्व या जैनधर्मके नामसे बातकी शिक्षा या प्रचार इस तरीकोंसे Inci3scent आज हम जानते हैं / आखिरी चौवीसचे तीथङ्कर लगातार की गई है कि हमारे विशेषज्ञोंने भी वैसा भगवान महावीर हुए जिनका पावन जन्म आजसे ही मानना ठीक समझा जाने लगा या समझा गया। पच्चीससौ वर्ष पहले वैशालीके लिच्छवी वंशके यदि केवल जैनधर्मको ही लिया जाय और उसकी प्रजातनके राजवंशमें हुआ / उन्होंने विवाह नहीं प्राचीनताका ठीक unbiased अनुसंधान किया किया / बाल-ब्रह्मचारी रहे / वयस्क होनेपर उन्होंने जाय और धार्मिक विद्वष-भावना या हम बड़े तो संसारके दुःखोंको देखकर उसे दूर करनेका उपाय हम बड़ेकी भावना छोड़कर देखा जाय तो इससे जाननेके लिये राज्य छोड़कर कठिन तपस्या आरंभ भारतका गौरव. बढ़ेगा ही / और भारतकी की। तपश्चर्याके पश्चात् जिस सत्यपर वें पहुँचे संस्कृतिकी प्राचीनतमता अपने आप सावित वह वही सनातन वैज्ञानिक सत्य था जिसे हम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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