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________________ प्राप्तकी श्रद्धाका फल (श्री 105 क्षुल्लक पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी ) -:*:आत्मानुशासनमें गुणभद्र स्वामी लिखते हैं :- ऊपर पुरुषत्वका वेष यह शोभा नहीं देता। सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिराल्सा सर्वकर्मक्षयात्, एक आदमी था / शरीरका सुन्दर था। उसने सद्वृत्तात्स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात्स श्रुतेः। स्त्रियों जैसे हाथ मटकाना और आंख चलाना सीख सा चाप्तात्स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यत- लिया। राजाका दरबार भरा था। अच्छे-अच्छे लोग स्तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखद सन्तः श्रयन्तु श्रियै // उसमें बैठे हुए थे। वह आदमी भी स्त्रीके वेषमें 'संसारके यावन्मात्र प्राणी सुख चाहते हैं, सुखकी वहाँ पहुँचा। सब लोग उसे देखकर हँसने लगे। प्राप्ति समस्त कर्मोंके क्षयसे हो सकती है। वह कर्मों- सबसे बड़ा जो आफीसर था वह भी हँसने लगा। का क्षय सम्यकचारित्रसे हो सकता है। सम्यक- उसने कहा हँसनेकी क्या बात है ? तुम लोग अंतचारित्र सम्यग्ज्ञानसे सम्बन्ध रखता है। सम्यग्ज्ञान रङ्गस स्त्री हो और में बहिरङ्गका / यदि तुम अन्तआगमसे होता है, आगम अतिसे होता है, श्रुति रङ्गके स्त्री न होते तो इतनी बहुसंख्यक जनताके आप्तसे होती है और आप्त वह है जिसके रागादि ऊपर मुट्ठी भर लोग राज्य कैसे करते ? वास्तवमें दोष नष्ट हो चुके हैं। इस प्रकार युक्तिद्वारा विचार यही बात है, तुम्हारा राज्य तुम्हारे प्रमाद और कर सर्व सुखोंको देनेवाले श्रीअरहन्तदेवकी उपा- तुम्हारी कायरतासे गया है / अंग्रेजोंने और मुसलसना करो, उसीसे इहलौकिक और पारलौकिक लक्ष्मी से टटलौकिक और पारलौकिक लक्ष्मी मानोंने क्या किया ? उस समय तुम्हारी जैसी प्राप्त हो सकती है।' हालत थी उसमें यदि अंग्रेज न आते तो कोई उनके . यथार्थमें आप्त भगवानकी श्रद्धा बड़ा कल्याण दादा आत / इतना खयाल अवश्य रक्खो कि अपनेकरनेवाली है। आप्त उस पवित्र आत्माको कहते द्वारा किसीका बुरा न हो जाय, पर जो तुम्हारा .हैं जिसके हृदयसे रागादि दोष और बानावरणादि विघात करनेको आवे उससे अपनी रक्षा जिस तरह आवरण निकल चुके हैं, जो सर्वज्ञ है और मोक्षमार्ग- बने कर सकते हो, ऐसी जिनागमकी आज्ञा है। का नेता है ऐसे प्राप्तके सुदृढ़ श्रद्धानसे यदि जीवका गुरु वही है, जो साक्षात्मोक्षमार्ग में प्रवेशकर कल्याण नहीं होगा तो किससे होगा ? भयसे आप चुका है, ऐलक मुनिकी सब क्रिया पालते हैं पर लोगोंके चेहरे सूख रहे हैं, कहते फिरते हो कोई उनकी एक हाथकी लंगोटी उनके गुरु होनेमें बाधक हमारा रक्षक नहीं है। संसारमें कौन किसकी रक्षा है। सेर तभी होगा जब 80 तोलेका होगा, चार करता है। आप लाग शूरवीरताको भूल गये इस- आना भर भी कम रहनेपर सेर नहीं कहला सकता, लिये दुःखी होगये। शूरवीर ही संसारका मार्ग पर अंशतः गुरुत्व तो उनमें भी है / गुरुत्व ही क्यों। चलाता है और शूरवीर ही मोक्षका मार्ग चला आप्तपना भी अंशतः उनमें प्रकट हो जाता है। सकता है / आप पुरुष हैं / पुरुष होकर इतने भय- संयमियोंकी बात जाने दीजिये, अविरत सम्यग्दधिभीत होनेकी क्या आवश्यकता ? यदि आप अपनी में भी आप्तका अंश जागृत हो जाता है इसीलिये रक्षा नहीं कर सकते तो लुगी पहिन लो, पुरुषत्वका तो उसे 'घरमांहि जिनेश्वरका लघुनंदन' कहा। गर्व छोड़ दो / अन्तरङ्गमें स्त्री जैसी भीरुता और यथार्थ देव, गुरु और धमकी भक्ति करना Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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