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________________ अनेकान्त [वर्ष 10 मानसिक विकास भी बढ़ता था। पर जबसे धार्मिक धर्मतत्वों या धर्माचार्योकी खामखाहमें हंसी प्रतिबन्ध लगा दिए गए एवं "स्वधर्मे निधनं श्रेयः उड़ा देना या छोटा या गलत समझ लेना सच पूछिए परधर्मो भगवहः” इत्यादि तथा धर्ममें बुद्धि और तो उन तत्वोंमें जरा भी कमी नहीं लाता। वे तो तर्कको लगाना मना कर दिया गया तथा यह आम हमेशा वैसेके वैसे ही रहते हैं / हाँ, ऐसा करनेवाला फतवा या धर्माज्ञा हर एकके यहां होगईं कि धर्मशास्त्रों उनकी जानकारीसे और ज्ञानके विकाससे वंचित ने जो कुछ कह दिया है एवं गुरु लोग जो उसका अर्थ अवश्य हो जाता है। लगा देते हैं उसे मानना ही होगा-और जो न मानेगा इसी वातावरणमें जैनधर्म या जैन धर्माचार्योंके.. वह नास्तिक और धर्मद्वषी या धर्मद्रोही समझा विरुद्ध जो घना देषका या असहानभतिका या असजायगा-तबसे ही ये धार्मिक विद्वेष लड़ाई-झगड़े हयोगकी भावनाका प्रचार भारतमें चारों तरफ जोरोंमें इत्यादि बढ़ गए हमने एकदम दूसरेकी बातें जानना अब भी मौजूद है। उसने देशकी भारी हानि की है। . छोड़ दिया-धीरे धीरे अपने धर्मके तत्वोंको भी जैनधर्मके तत्व एवं शिक्षाएं तो अब भी वही हैं और भल गए मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी रुक कर दूसरे धर्मोंकी भी। पर इस तरहके परस्परके द्वेषधीरे धीरे एकदम गायब ही होगया। विद्वष एवं मनोमालिन्यने एक-दूसरेकी बातोंको धर्माचार्योंने-चाहे वे किसी भी धर्मके हों- जाननेसे हमें वंचित रखा और इस तरह हमारा बहुत सोचने-विचारने, अनुशीलन और मनन करनेके मानसिक तथा बौद्धिक विकास रुकनेके साथ ही आपबाद ही कोई तत्व या Theory पेश की है। हर एक सी कटुता और बढ़नेमें ही सहायक हुई / पर धाने जैसा और जितना ठीक समझा अपने तरीकेसे- र्मिक शिक्षाओंमें तो फिर भी कोई परिवर्तन नहीं : अपनी बुद्धिके अनुसार लोगोंके सामने रखा। माना हुआ। हम इस सत्यको अपनी धर्मान्धताके जोशमें - कि इनमें बहुत तो सच्चे Sincere of honest एकदम भूल जाते हैं और यह कि ऐसा करके जोशमें ईमानदार रहे और बहुतोंने अपनी विद्वत्ता एवं हम दूसरोंका नहीं, बल्कि स्वयं अपना ही नुकसान प्रतिभा तथा प्रभावका अनुचित उपयोग भी किया- करते है। जिससे सत्यके बजाय असत्य फैलनेमें काफी सहा- जैनधर्म बुद्धिवादका समर्थक हामी या प्रतियता मिली / सब कुछ होते हुए भी इतना तो निश्चित पादक है / वह कोई भी ऐसी बात स्वीकार करने है कि ये लोग बहुत बड़े विद्वान् एवं विचारवान या से इनकार करता है जो बुद्धि और तर्ककी कसौटीThin less थे। फिर आज जो हवा हम चारों तरफ पर ठीक और खरा एवं व्यावहारिक न उतरे, देखते हैं कि एक महज अदना मामूली आदमी भी इनकार ही नहीं करता अपने सभी Followers जो धर्म या धार्मिक तत्वोंका-क ख ग घ-भी नहीं अनुयायियोंको ऐसा करनेसे मना भी करता है। जानता वह भी दूसरे धर्मवाले विद्वान और गुरुकी वह कहता है कि किसी भी तत्त्वका, देवताका, गुरूका निन्दा कर देता है और हंसी उड़ा देता है-क्या यह और शास्त्रका वगैर परीक्षा लिए और परीक्षा लेनेपर कम मूढ़ताजनक और मूर्खतापूर्ण है ? क्या यह जब तक ठीक न उतरे या ठीक न जंचे विश्वास मत सचमुच अपनी वेवकूफी और अज्ञानताको ही नहीं करो, मत मानो / वह कहता है कि ऐसा करके ही जाहिर करना है ? आज हमारी हालत यह है कि तुम सत्य और ठीक मार्गपर स्थित होगे या स्थिर हम ऐसा करके ही अपनेको धार्मिक एवं बहादुर होगे एवं उससे विचलित न होगे, कोई बहका नहीं समझते हैं जब कि बात ठीक इसके विपरीत होनी सकेगा-धर्मके नामपर ढोंग और आडम्बरके चाहिए। शिकार होकर अधार्मिकता करनेसे बच सकोगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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