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________________ किरण १] 1 रहेगा । जबसे मैंने इस वतमान सम्बन्धी शरीरसे संयोग किया है । बाल- कालको छोड़कर बाकी समय के भीतर जो कुछ मैंने कर्म किये हैं वह सब मैं जानता हूँ। जो दुःख मैंने भोगे हैं उन्हें भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ भलाई की है उस भाईको भी जानता हूँ । जिन्होंने मेरे साथ बुराई है उसको भी मैं जानता हूँ। जिसके साथ मैंने बुराई की है उस बुराई को भी मैं जानता हूँ। जिसके साथ मैंने भलाई की है उसको भी मैं जानता हूँ । अपने योग्य विषयके भीतर अपनेको मैं भलीभाँति जानता हूँ। अपने विषयके ग्रहण करनेमें मैं अपने को पूर्ण सम्पन्न देखता हूँ। मैं ज्ञानी हूँ, ज्ञानवान् हूँ, अपना तथा अपने ज्ञानका विनाश कभी नहीं चाहता । सदा सुख ही चाहता हूँ । पापों के फलकों भोगनेसे डरता हूँ, पुण्यके फलको भोगनेसे नहीं डरता। इससे प्रतीत होता है कि मेरा स्वभाव सुख ही है । मैं जानता हूँ कि वास्तवमें मेरा स्वभाव सुख ही है । वह सुख मेरे ही अन्दर है, मेरी ही सम्पत्ति है । मैं ही उसका स्वामी हूँ, मैं ही उसकी खोज कर सकता हूँ, मैं ही उसका कर्ता हूँ और मैं ही उसका भोगता हूँ। जिस समय मुझे दुःख भोगने पड़ते हैं उस समय मैं उलझनमें पड़जाता हूँ । यदि वह दुःख किसी चैतन्यके निमित्तसे प्रतिभासित होजाता है तब तो क्रोध उपस्थित होकर उससे वैर व बदला लेनेका निश्चय - सा कर लेता हूँ। और यदि वह दुःख स्वयं शारीरिक विकारके अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल भावके निमित्तसे होता हुआ जान पड़ता है तब अपने कर्मोंके दोषों को ही कारण जानकर क्षमाप्रार्थी होजाता हूँ । एक दशामें तो क्रोध और दूसरीमें क्षमा कितना भारी अन्तर है। दुःख एक है, कार्य-कारणके वशसे दशा दो हो जाती हैं। यह मैं भली-भाँति जानता हूँ । अपने विषय में अपनी क्रूरताको या अपने सौन्दर्यको जितना मैं जानता हूँ अन्य नहीं जानता । इसीलिये 1 किसके विषय में क्या जानता हूँ Jain Education International २१ में अपने विषय में ज्ञानी हूँ, परन्तु अन्यके विषय में अज्ञानी । ३. में अपने और पंच परमेष्ठी से भिन्न अन्य पदार्थों के विषय में क्या जानता हूं ? " अपने विषयमें जितना मुझे निश्चय है उतना ही अन्यके विषयमें अनिश्चय है, धोखा है। जितनी सुध-बुध अपने विषय में करने में मैं स्वतंत्र हूँ उतना ही अन्यकी सुध-बुध रखनेमें परतंत्र हूं। मेरी जितनी भी प्रवृत्तियाँ अन्यमें और अन्य विषयोंकी जानकारीमें बढ़ती जा रही हैं उतना ही भय, चिन्ता, उसकी रक्षाका भार और स्वार्थ अधिकाधिक होता जारहा है । जितना-जितना अन्यको मैं अपनाता जारहा हूँ उतना उतना घमंड बढ़ता जाता है । स्वाभिमानको अभिमानके भारसे दबाता जाता हूँ । यहाँ तक कि अभिमानको ही स्वाभिमान समझ बैठा हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि बिना अभिमानकी सामग्री के मेरे जीवनका कुछ भी मूल्य नहीं है । और उसके मदमें उन्मत्त होकर महानसे महान् पापोंमें भी फंस कर महान शारीरिक व मानसिक दुःखोंको निरन्तर भोगकर भी दुखोंको भूल रहा हूँ । दुःखोंकी प्राप्तिके साधनोंमें ऐसा मग्न होकर मिथ्या आनन्दकी लहरोंमें बहा चला जारहा हूँ। अपनी बेहाल अव स्थाको ही अपना हाल, अपना गुण, अपना कर्तव्य निश्चत किये जाता हूँ । अपनेको पराया और परायेको अपना दोनोंका मेल ही दुःखोंसे रक्षाका उपाय मानकर संलग्न होरहा हूँ । इस प्रकार सुखोंके साधन मिलाते-मिलाते भी न मालूम यह दुःखोंके व क्रोधके बादल क्यों छाये रहते हैं । यहाँ ज्ञान असमर्थ हो कर इस प्रकार दुःखों के विषय में जानकारी करने में व उन दुःखों से बचने के उपायोंको जाननेमें असमर्थ होरहा हूँ, अज्ञानी होरहा हूँ। अंशमात्र भी नहीं जान रहा हूँ, जिन विषयोंमें आनन्द मनाता हूँ वही विषयभोगके बाद दुःख क्यों बन जाते हैं ? जिस For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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