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________________ अनेकान्त [वर्ष १० दानका कोई विशेष मूल्य नहीं है-वह दानके घटित नहीं हे ता और इसलिये वह दानकी कोटिमें ठीक फलोंको नहीं फल सकता । पाँच लाखके दानी ही नहीं आता-गुप्तदान कैसा ? वह तो स्पष्ट रिश्वत शेष तीन सेठ तो दानके व्यापारीमात्र हैं-दानकी अथवा घूस है, जो एक उच्चाधिकारीको लोभमें . कोई स्पिरिट, भावना और आत्मोपकार तथा परोप- डालकर उनके अधिकारोंका दुरुपयोग कराने और कारको लिये हुए अनुग्रह दृष्टि उनमें नहीं पाई जाती अपना बहुत बड़ा लोकिक स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये और इसलिए उनके दानको वास्तवमें दान कहना दी गई है और उस स्वार्थसिद्धिकी उत्कट भावनामें ही न चाहिये । सेठ ताराचन्दने तो ब्लैकमार्केट इस बातको बिल्कुल ही भुला दिया गया है कि द्वारा बहुतोंको सताकर कमाये हुए उस अन्याय- वनस्पतिघीके प्रचारसे लोकमें कितनी हानि होरही हैद्रव्यको दान करके उसका बदला भी अपने ऊपर जनताका स्वास्थ्य कितना गिर गया तथा गिरता चलनेवाले एक मुकदमेको टलानेके रूपमें चुका लिया जाता है और वह नित्य नई कितनी व कितने प्रकारहै और सेठ विनोदीरामने बदलेमें 'रायबहादुर' की बीमारियोंकी शिकार होती जाती है, जिन सबके तथा 'आनरेरी मजिस्ट्रट' के पद प्राप्त कर लिये हैं कारण उसका जीवन भाररूप होरहा है । उस सेठने अतः परमार्थिक दृष्टिसे उनके उस दानका कोई मूल्य सबके दुख-कष्टोंकी ओरसे अपनी आँखें बन्द करली नहीं है। प्रत्युत इसके, दस-दस हजारके उन चारों हैं-उसकी तरफसे बूढ़ा मरो चाहे जवान उसे अपनी दानियोंके दान दानकी ठीक स्पिरिट, भावना तथा हत्यासे काम ! फिर दानके अंगस्वरूप किसीके स्व-परकी अनुग्रहबुद्धि आदिको लिये हुए हैं और अनुग्रह-उपकारकी बात तो उसके पास कहाँ फटक इसलिये दानके ठीक फलको फलने वाले सम्यक सकती है ? वह तो उससे कोसों दूर है। महात्मादान कहे जानेके योग्य हैं। इसीसे मैं उनके दानी गान्धी जैसे सन्तपुरुष वनस्पतिघीके विरोधमें जो सेठ दयाचन्द, सेठ ज्ञानानन्द, ला० विवेकचन्द कुछ कह गये हैं उसे भी उसने ठुकरा दिया है और और बाबू सेवारामजीको पाँच-पाँच लाखके दानी उस अधिकारीको भी ठुकरानेके लिये राजी कर लिया चारों सेठों डालचन्द, ताराचन्द, रामानन्द है जो बात-बातमें गांधीजीके अनुयायी होनेका दम और विनोदीरामसे बड़े दानी समझता हूँ। इनके भरा करता है और दूसरोंको भी गांधीजीके आदेशादानका फल हर हालतमें उन तथाकथित दानियोंके नुसार चलनेकी प्रेरणा किया करता है । ऐसा ढोंगी, दान-फलसे बड़ा है और इसलिये उन दस-दस दम्भी, बगुला-भगत उच्चाधिकारी जो तुच्छ लोभमें हजारके दानियोंमेंसे प्रत्येक दानी उन पाँच-पाँच पड़कर अपने कर्तव्यसे च्युत, पथसे भ्रष्ट और लाखके दानियोंसे बड़ा दानी है। अपने अधिकारका दुरुपयोग करनेके लिये उतारू । सुनकर अध्यापक वीरभद्रजी अपनी प्रस- होजाता है वह दानका पात्र भी नहीं है। इसतरह नता व्यक्त करते हुए बोले-'परन्तु सेठ रामानन्द- परमार्थिक दृष्टिसे सेठ रामानन्दका दान कोई दान जीने तो दान देकर अपना नाम भी नहीं चाहा, नहीं है। और न लोकमें ही ऐसे दानको दान कहा उन्होंने गुप्तदान दिया है और गुप्तदानका महत्व जाता है । यदि द्रव्यको अपनेसे पृथक करके अधिक कहा जाता है, फिर तुमने उन्हें छोटा दानी किसीको दे देने मात्रके कारण ही उसे दान कहा कैसे कह दिया ? जरा उनके विषयको भी कुछ जाय तो वह सबसे निकृष्ट दान है, उसका उद्देश्य स्पष्ट करके बतलाओ। बुरा एवं लोकहितमें बाधक होनेसे वह भविष्यमें विद्यार्थी-सेठ रामानन्दका दान तो वास्तवमें घोर दुःखों तथा आपदाओंके रूपमें फलेगा। और कोई दान ही नहीं है-उसपर दानका कोई लक्षण इसलिये पाँच-पाँच लाखके उक्त चारों दानियोंमें सेठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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