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________________ श्री पंडितप्रवर दौलतरामजी और उनकी साहित्यिक रचनाएँ 4 मनकर बड़ी प्रसन्नता हुई, और विचार किया कि ब्रह्मचारी रायमल्ल का नाम तो उल्लेखनीय है ही, यह तो रामायण की ही कथा है मैं इसे जरूर किन्तु उन्होंने अन्य सज्जनोंसे भी प्रेरणा कराई है। सनूंगा और पढ़ने का अभ्यास भी करूंगा, उस रतनचन्द मेघडिया, पंडित टोडरमलजीके हरिचन्द दिनसे वे रोजाना उसे सनने लगे और थोड़ा थोड़ा और गुमानीराय नामके दोनों पुत्रों बालब्रह्मचारी पढ़ने का अभ्यास भी करने लगे। यह सब कार्य देवीदासजी, जिन्होंने आचार्य नरेन्द्रसेनके सिद्धान्तउन्हीं सज्जनके पास किया, अब आपकी रुचि पढ़ने सार ग्रन्थकी टीका सं० १३३८ में बनाकर समाप्त तथा जैनधमका परिचय प्राप्त करनेकी हुई और की है, और जयपुर राज्यके तत्कालीन सुयोग्य उसे जानकर जैनधर्ममें दीक्षित हो गए। वे कहते थे दीवान रतनचन्दजी इन सबके अनुरोधसे यह टीका कि मैंने पद्मपुराणका अपने जीवन में कई बार सं० १८२४ में समाप्त हुई है। स्वाध्याय किया है वह बड़ा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। पं० टोडरमलजीके असमयमें दिवंगत होजाने इस तरह न मालूम उक्त कथा ग्रन्थ और उसकी इस टीकासे जैनधर्मका प्रभाव तथा लोगोंकी श्रद्धाका से 'पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी उनकी अधूरी टीकाको भी कितना संरक्षण एवं स्थिरीकरण हुआ है । इसी आपने उक्त रतनचन्दजी दीवानके अनुरोधसे सं. तरह पं० दौलतरामजी की अन्य आदिपुराण, हरि १८२७ में पूर्ण किया है और इसके बाद हरिवंशपुराण वंशपुराणकी टीकाएँ हैं जो कि उसी मधुर एवं की टीका उक्त रायमल्लजीकी प्रेरणा तथा अन्य प्रांजल भाषा को लिये हुए है और जिनके अध्ययन साधर्मी भाइयोंके अनुरोधसे सं० १८२६ में राजा से हृदय गद्गद् हो जाता है और श्रद्धासे भर जाता पृथ्वीसिंहके राज्यकालमें समाप्त हुई है । इसके है । इसका प्रधान कारण टीकाकार की आन्तरिक सिवाय परमात्म-प्रकाशकी टीका कब बनी अह भद्रता, निर्मलता, सुश्रद्धा और निष्काम साहित्य कुछ मालूम नहीं हो सका। बहुत संभव है कि वह सेवा है। पंडितजीके टीका ग्रन्थोंसे नसमाजका इनसे पूर्व बनी हो। इन टीका ग्रन्थोंके अतिरिक्त बड़ा उपकार हुआ है, और उनसे जैनधर्मके प्रचार श्रीपालचरितकी टीका भी इनकी बनाई हुई बतलाई में सहायता भी मिली है। जाती है परन्तु वह मेरे देखने में अब तक नहीं आई, पद्मपुराणकी टीकाके एक वर्षके बाद प्रादि इसीसे यहाँ उस पर कोई विचार नहीं हो सका। पुराणकी टीका भी पूर्ण हुई जिसे वे पहलेसे कर रहे वीर सेवा मन्दिर, सरसावा थे। इस टीकाके बनानेका अनुरोध करने वालोंमें ता०१६-६-४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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