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________________ १४ अनेकान्त विषय इन्द्रायणके फल समान हैं, संसारी जीव हैं हैं बड़ा आश्चर्य है, जे उत्तमजन बिषयों को विषतुल्य जानकरि तजैं हैं अर तप करें हैं ते धन्य हैं, अनेक विवेकी जीव पुण्याधिकारी महाउत्साहके धरणहारे जिना शासन के प्रसादसे aaa प्राप्त भये हैं, मैं कब इन विषयों का त्याग कर स्नेह रूप कीचसे निकस निवृत्ति का कारण जिनेन्द्रका मार्ग अरूंगा। मैं पृथ्वीकी बहुत सुखसे प्रतिपालना करी, अर भोग भी मनवांछित भोगेर पुत्र भी मेरे महा-पराक्रमी उपजे । अब भी मैं वैराग्यमें विलम्ब करू तो यह बड़ा विपरीत है, हमारे वंश की यही रीति है कि पुत्र को राजलक्ष्मी देकर वैराग्यको धारण कर महाधीर तप करनेको वनमें प्रवेश करे। ऐसा चिन्तवन कर राजा भोगति उदासचित्त कई एक दिन घरमें रहे ।" - पद्मपुराण टीका पृ० २६५-६ इसमें बतलाया गया है कि राजा दशरथने किसी अत्यंत वृद्ध खोजेके हाथ कोई वस्तु रानी केकईके पास भेजी थी जिसे वह शरीर की अस्थि रतावश देर से पहुंचा सका, जबकि वही वस्तु अन्य रानियोंके पास पहले पहुंच चुकी थी । अतएक head ने राजा दशरथसे शिकायत की, तब राजा दशरथ उस खोजे पर अत्यंत क्रुद्ध हुए, तब उस खोजेने अपने शरीर की जर्जर अवस्थाका जो परिचय दिया है उससे राजा दशरथको भी सांसारिक भोगोंसे उदासीनता हो गई, इस तरह इन कथा पुराणादि साहित्यके अध्ययनसे आत्मा अपने स्वरूप की ओर सन्मुख हो जाता है । ऊपरके उद्धरणसे जहाँ इस ग्रंथकी भाषाका सामान्य परिचय मिलता है वहाँ उसकी मधुरता एवं रोचकताका भी आभास हो जाता है। पंडित दौलतरामजीने पांच छह ग्रंथोंकी टीका बनाई है। पर उन सबमें सबसे पहले पुण्यात्रवकथाकोषकी और सबसे बादमें हरिवंशपुराणकी टीका बनकर Jain Education International समाप्त हुई है अर्थात् सं० १७७७ से लेकर सं १८२६ तक ५२ वर्षका अन्तराल इन दोनों टीका ग्रंथों के मध्य का है। इस टीका ग्रंथ का मूल नाम 'पद्मचरित' है । उसमें सुप्रसिद्ध पौराणिक राम, लक्ष्मण और सीता के जीवन की झांकी का अनुपम चित्रण किया गया है। इसके कर्ता आचार्य रविषेण हैं जो विक्रम की आठवीं शताब्दीके द्वितीय चरण में ( वि० सं० ७३३ में ) हुए हैं। यह ग्रंथ अपनी सानीका एक ही है । इस ग्रंथकी यह टीका श्री ब्रह्मचारी रायमल्लके अनुरोधले संवत् १८२३ में समाप्त हुई है । यह टीका जैनसमाजमें इतनी प्रसिद्ध है कि इसका पठनपाठन प्राय: भारतवर्ष के विभिन्न नगरों और गावों में जहाँ जहाँ जैन वस्ती हैं वहांके चैत्यालयों में और अपने घरोंमें होता है । इस ग्रन्थकी लोकप्रियता का इससे बड़ा सुबूत और क्या हो सकता है कि इसकी दश दश प्रतियाँ तक कई शास्त्रभंडारोंमें देखी गई हैं। सबसे महत्वकी बात तो यह है कि इस टीका को सुनकर तथा पढ़कर अनेक सज्जनों की श्रद्धा जैनधममें सुदृढ़ हुई है और अनेकों की चलित श्रद्धा को दृढ़ता भी प्राप्त हुई है। ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं जिन्होंने इस टीका ग्रन्थके अध्ययनसे अपने को जैनधर्म में आरूढ़ किया है । उन सबमें स्व० पूज्य बाबा भागीरथजी वर्णी का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है जो अपनी आदर्श त्यागवृत्तिके द्वारा जैनसमाजमें प्रसिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं। आप अपनी बाल्यावस्थामें जैनधर्मके प्रबल विरोधी थे और उसके अनुयायियों तक को गालियाँ भी देते थे; परन्तु दिल्लीमें जमुना स्नान को रोजाना जाते समय एक जैनसज्जन का मकान जैनमंदिर के समीप ही था, वे प्रतिदिन प्रात:दिन आपने उसे खड़े होकर थोड़ी देर सुना और काल पद्मपुराण का स्वाध्याय किया करते | एक १ संवत् श्रष्टादरा सतजान, ताऊपर तेईस खान | शुक्लपक्ष नौमी शनिवार, माघमास रोहिणी रिखिसार ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527268
Book TitleAnekant 1949 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1949
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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