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अनेकान्त
संवत् २००५ :: अप्रैल, सन् १९४८
किरण
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संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवामन्दिर, सरमावा
सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
सम्पादक-मंडल
विषय
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जुगलकिशोर मुख्तार
डाधान सम्पादक मुनि कान्तिसागर दरबारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद गोयलीय
डालमियानगर (विहार)
विषय-सूची
पृष्ठ विषय जैन तपस्वी
१२५ त्यागका वास्तविक रूप स्वरूप-भावना
१२६ जय स्याद्वाद रत्नकरण्डके कतृ त्व-विषयमें अपने ही लोगों द्वारा बलि ___ मेरा विचार और निर्णय १२७ किये गये महापुरुष अमूल्य तत्त्व-विचार १४० महामुनि सुकुमाल इज्जत बड़ी या रुपया १४१ सेठीजीका अन्तिम पत्र अनेकान्त
१४३ सम्पादकीय पराक्रमी जैन
१४५ साहित्य-परिचय और शङ्का-समाधान
समालाचन
१५८
१६५
१६४
454545454545
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वीरसेवामन्दिरको सहायता
गत किरणमें प्रकाशित सहायता के बाद वीरसेवामन्दिरको निम्न सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं: ३१) लाला उदयराम जिनेश्वरप्रसाद जी जैन बजाज सहारनपुर ( दर्शन प्रतिमा ग्रहण करनेके श्रव सरपर निकाले हुए दानमेंसे लायब्रेरी सहायतार्थ ) मार्फत पं० परमानन्दजी जैन शास्त्री । ५) बाबू माईदयालजी जैन बी० ए० देहली और लाला श्रीचन्दजी जैन देहरादून (पुत्र-पुत्रीके विवाह की खुशी में ) ।
अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर
३६)
सूचना
अनेकान्त कार्यालयको कुछ सहायता प्राप्त हुई है जिसके आधारपर हम ३३ विद्यार्थियों, लायब्रेरी अथवा वाचनालयों को रियायती मूल्य ३) तीन रुपया में अनेकान्त एक वर्ष तक दे सकते हैं । जिन्हें आवश्यकता हो वे ३) रुपया शीघ्र मनिआर्डर से भेज देवें, रुपया आनेपर अनेकान्त चालू कर दिया जावेगा ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
सूचना
अनेकान्तके पिछले वर्षोंकी कुछ फाइलें, वर्ष ४-५-६-७-८की अवशिष्ट बची हैं । जो महानुभाव खरीदना चाहेंगे, उन्हें वीर जयन्ती से वीरशासन जयन्ती तक निर्दिष्ट मूलमें ही दी जावेंगी । अतः ऑर्डर भेजने की शीघ्रता करें, अन्यथा ये फाइलें भी पहले दूसरे और तीसरे वर्षकी तरह अप्राप्य हो जायेंगी ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
अनेकान्तको सहायता
:
गत दूसरी किरणमें प्रकाशित सहायता के बाद अनेकान्तको निम्न सहायता और प्राप्त हुई हैं, जिसके लिये दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं: २०) लाला सुमेरीलाल गुलाबरायजी, बाराबङ्की (इन्द्रकुमार जैनकी दादीकी मृत्यु- समय निकाले गये १०१ ) के दानमेंसे) ।
५)
५)
३०)
बाबू दीपचन्दजी, कानपुर (चि० पुत्र के विवाहोपलक्ष में निकाले गये दानमेंसे) ।
बाबू चिरञ्जीलालजी जैन, वर्धा (चि० पुत्रके विवाहोपलक्ष में निकाले हुए दानमेंसे) ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
सूचना
अनेकान्त कार्यालयके लिये एक सुयोग्य विद्वान की आवश्यकता है जो पत्र व्यवहार आदि कार्योंके साथ प्रूफ रीडिंग करनेमें भी दक्ष हो । वेतन योग्यतानुसार दिया जावेगा । जो विद्वान आना चाहें वे निम्न पतेपर पत्र व्यवहार करें ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर)
भूल सुधार
'पराक्रमी जैन' शीर्षक लेखके अन्त में लेखकका नाम और तारीख छपनेसे रह गई है। कृपया प्रेमी पाठक वहाँ अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय' और तारीख १४ फरवरी सन् १९४० बना लेवें ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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वार्षिक मूल्य ५)
वर्ष ९ किरण ४
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
ॐ
자
नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
शीतरितु जो रैं अंग सब ही सकोरेँ तहाँ— तनको न मोरेँ नदीधोरैं धीर जे खरे । जेठकी झकोरैं जहाँ अंडा चील छोरै पशुपंछी छाँह लोरेँ गिरि कोरें तप वे धरे ॥ घोर घनघोर घटा चहूँ श्रोर डोरैं ज्यों-ज्योंचलत हिलोरें त्यों-त्यों फोरें बल ये अरे देह- नेह तो परमारथसौ प्रीति जोरें ऐसे गुरु ओर हम हाथ अंजली करे |
1
— कवि भूधरदास
वीर सेवामन्दिर ( समन्तभद्राश्रम ), सरसावा, जिला सहारनपुर चैत्र शुक्ल, वीरनिर्वाण - संवत् २४७४, विक्रम संवत् २००५
जैन तपस्वी
वस्तु तत्त्व-संघोतक
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प्रीषमकी ऋतुमाहिं जल थल सूख जाहि परत प्रचंड धूप आगिसी बरत है । दावाकीसी ज्वाल - माल वहत बयार प्रति लागत लपट कोऊ धीर न धरत है ॥ धरती तपत मानों तवासी तपाय राखी बडवानल - सम शैल जो जरत है । ताके श्रृंग शिलापर जोर जुग पाँव धर तपस्या मुनि करम हरत
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- कवि भगवतीदास
एक किरणका मूल्य ||
अप्रैल
१९४८
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स्वरूप-भावना
भी
कैराना जिला मुजफ्फरनगरके बड़े मन्दिरके शास्त्रभण्डारका निरीक्षण करते हुये, आजसे कोई १५ वर्ष पहले जो षट्पत्रात्मक ग्रन्थसंग्रह प्राप्त हुआ था और जिसके षट्दर्शनसूत्रादि आठ ग्रन्थोंमेंसे रावण-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' नामका एक ग्रन्थ गत वर्षकी १२वी किरणमें प्रकाशित किया जाचुका है उसीपरसे यह 'स्वरूप-भावना' नामका ग्रन्थ भी नोट किया गया था, जो आज प्रकाशित किया जाता है। यह अध्यात्म-विषयका एक बड़ा ही सुन्दर एवं चित्ताकर्षक लघु ग्रन्थ अथवा प्रकरण है। इसमें संक्षेपतः श्रात्माके शुद्ध स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए 'उसी पावन स्वरूपकी मैं सदा भावना करता हूँ' ऐसा बार-बार कहा गया है । इसके कर्ताका नाम मालूम नहीं होसका । कुछ दिन हुए देहली पंचायतीमन्दिरके शास्त्रभण्डारमें भी इसकी एक प्रतिका पता चला है, जो प्राचीन गुटके में है परन्तु उसमें भी कर्ताका नाम नहीं दिया । किसी अन्य विद्वानको यदि कर्ताके नामका पता चले तो वे सूचित करनेकी कृपा करें। –सम्पादक]
(भुजंगप्रयात) मुनि-स्तुत्य-चित्तत्व-नीरेज-भृङ्ग, परित्यक्त-रागादि-दोषाऽनुसङ्गम् । जगद्वस्तु-विद्योतकं ज्ञानरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥१॥ स्वशुद्धात्म-पीयूष-वा शिपूरं, जिनेन्द्रोक्त-जीवादि-तत्त्वार्थ-सारम् । 'सुवर्णत्ववन्नित्य-चैतन्य-रूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥२॥ गलत्कर्म-बन्धं त्रुटन्मोह-पाशं, स्वदेह-त्रिलोक-प्रमाण-प्रदेशम् । , तरुस्थाऽग्निवदेहतो भिन्नरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥३॥ शरीरादि-नोकर्म-कर्म-प्रमुक्त, निरुद्धास्रवं सप्तभङ्गि-प्रयुक्तम् । स्वशक्ति-स्थिताऽनन्त-बोध-स्वरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥४॥ स्वरुच्यग्नि-निर्दग्ध-दुःकर्म-कक्ष, स्वसंवेदन-ज्ञान-गम्यं निरक्षम् । . लसद्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥५॥ परिप्राप्त-संसार-वार्राशि-पार, निजानन्द-सत्पान-भृञ्चित्करीरम् । चिदानन्द-बीजं परब्रह्मरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥६॥ विनष्टाऽन्यभाव-प्रभूत-प्रमादं, निरस्ताङ्ग-सञ्ज्ञान-लिङ्गादिभेदम् । निरातङ्क-सानन्द-चैतन्य-रूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥७॥ स्वचिद्भाव-वाक्-सम्भवाऽनन्त-शक्ति, निराशं निरीशंपरिप्राप्त-मुक्तिम । त्रिलोकेश्वरं निश्चलं नित्यरूपं, सदा पावनं भावयामि स्वरूपम् ॥८॥
स्वरूपभावना समाप्ता
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रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
[सम्पादकीय]
(गत किरणसे आगे) (३) रत्नकरण्ड और आप्रमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व स्वामी समन्तभद्रके साथ सम्बन्धित करते हैं तो सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालालजीकी जो तीसरी दूसरे देवनन्दी पूज्यपादके साथ । यह पद्य यदि क्रममें दलील (युक्ति) है उसका सार यह है कि 'वादिराज- तीसरा हो और तीसरा दूसरेके स्थानपर हो, और सूरिके पार्श्वनाथचरितमें प्राप्तमीमांसाको तो 'देवा- ऐसा होना लेखकोंकी कृपासे कुछ भी असम्भव या गम' नामसे उल्लेख करते हुए 'स्वामि-कृत' कहा गया अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवादके लिये कोई है और रत्नकरण्डको स्वामिकृत न कहकर 'योगीन्द्र- स्थान नहीं रहता; तब देवागम (आप्तमीमांसा) और कृत' बतलाया है। 'स्वामी'का अभिप्राय स्वामी रत्नकरण्ड दोनों निर्विवादरूपसे प्रचलित मान्यताके समन्तभद्रसे और 'योगीन्द्र'का अभिप्राय उस नामके अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित हो जाते
आचायेसे अथवा आप्तमीमांसाकारसे भिन्न हैं और शेष पद्यका सम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद और किसी दूसरे समन्तभद्रसे है। दोनों ग्रन्थोंके कर्ता एक उनके शब्दशास्त्रसे लगाया जा सकता है। चंकि उक्त ही समन्तभद नहीं हो सकते अथवा यों कहिये कि पार्श्वनाथचरित-सम्बन्धी प्राचीन प्रतियोंकी खोज वादिराज-सम्मत नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों ग्रन्थों- अभी तक नहीं हो पाई है, जिससे पद्योंकी क्रमभिन्नताके उल्लेख-सम्बन्धी दोनों पद्योंके मध्यमें 'अचिन्त्य- का पता चलता और जिसकी बहुत बड़ी सम्भावना महिमादेवः' नामका एक पद्य पड़ा हुआ है जिसके जान पड़ती है, अत: उपलब्ध क्रमको लेकर ही इन 'देव' शब्दका अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपादसे है और पद्योंके प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थपर विचार जो उनके शब्दशास्त्र(जैनेन्द्र)की सूचनाको साथमें किया जाता है:लिये हुए हैं। जिन पद्योंपरसे इस युक्तिवाद अथवा पद्योंके उपलब्ध क्रमपरसे दो बातें फलित होती रनकरण्ड और प्राप्तमीमांसाके एकक त्वपर हैं-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्रकी आपत्तिका जन्म हा है वे इस प्रकार हैं:-
स्तुतिको लिये हुए हैं और उनमें उनकी तीन कृतियों"स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । का उल्लेख है; और दूसरी यह कि तीनों पद्योंमें देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥१७॥ क्रमशः तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा । ____ उल्लेख है। इन दोनोंमेंसे कोई एक बात ही ग्रन्थकारके शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥१८॥ द्वारा अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है-दोनों त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्य सुखावहः । नहीं । वह एक बात कौनसी हो सकती है, यही यहाँअर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥१९॥ पर विचारणीय है। तीसरे पद्यमें उल्लिखित 'रत्न• इन पद्यों से जिन प्रथम और तृतीय पद्योंमें करण्डक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डप्रन्थोंका नामोल्लेख है उनका विषय स्पष्ट है और श्रावकाचार नहीं है जो स्वामी समन्तभद्रकी कृतिरूप जिसमें किसी प्रन्थका नामोल्लेख नहीं है उस द्वितीय से प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि 'योगीन्द्र' नामके पद्यका विषय अस्पष्ट है, इस बातको प्रोफेसर साहबने आचार्य-द्वारा रचा हा उसी नामका को स्वयं स्वीकार किया है । और इसीलिये द्वितीय पद्यके ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों माशय तथा पर्थक विषयमें विवाद है-एक उसे पाम तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका
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१२८
अनेकान्त
[ वर्ष ९
उल्लेख है-भले ही वह दूसरा रत्नकरण्ड कहींपर देवनन्दी पूज्यपादका वाचक नहीं कहा जा सकता, उपलब्ध न हो अथवा उसके अस्तित्वको प्रमाणित न उस वक्त तक जब तक कि यह सिद्ध न कर दिया जाय किया जा सके। और तब इन पद्योंको लेकर जो कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। विवाद खड़ा किया गया है वही स्थिर नहीं रहता- क्योंकि प्रसिद्ध साधनोंके द्वारा कोई भी बात सिद्ध समाप्त हो जाता है अथवा यों कहिये कि प्रोफेसर नहीं की जा सकती। साहबकी तीसरी श्रापत्ति निराधार होकर बेकार हो इन्हीं सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए, अाजसे जाती है । परन्तु प्रो० साहबको दूसरा रत्नकरण्ड इष्ट कोई २३ वर्ष पहले रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तानहीं है, तभी उन्होंने प्रचलित रत्नकरण्डके ही छठे वनाके साथमें दिये हुए स्वामी समन्तभद्रके विस्तृत पद्य 'क्षुत्पिपासा'को आप्तमीमांसाके विरोध में उपस्थित परिचय (इतिहास)में जब मैंने 'स्वामिनश्चरितं तस्य' किया था, जिसका ऊपर परिहार किया जा चुका है। और 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन दो पद्योंको पार्श्व
और इसलिये तीसरे पद्यमें उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' नाथचरितसे एक साथ उद्धृत किया था तब मैंने यदि प्रचलित रत्नकरण्डश्रावकाचार ही है तो तीनों फुटनोट (पादटिप्पणी)में यह बतला दिया था कि पद्योंको स्वामी समन्तभद्र के साथ ही सम्बन्धित इनके मध्यमें 'अचिन्त्यमहिमा देव:' नामका एक कहना होगा, जबतक कि कोई स्पष्टबाधा इसके तीसरा पद्य मुद्रित प्रतिमें और पाया जाता है जो मेरी विरोधमें उपस्थित न की जाय । इसके सिवाय, दूसरी रायमें इन दोनों पद्योंके बाद होना चाहिये-तभी कोई गति नहीं; क्योंकि प्रचलित रत्नकरण्डको आप्त- वह देवनन्दी आचार्यका वाचक हो सकता है । साथ मीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकृत माननमे कोई ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह तीसर। बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी उसका पद्य सचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियोंमें इन दोनों ऊपर दो आपत्तियोंका विचार करते हुए भले प्रकार पद्योंके मध्यमें ही पाया जाता है .और मध्यका ही निरसन किया जा चुका है और यह तीसरी आपत्ति पद्य है तो यह कहना पड़ेगा कि वादिराजने समन्तअपने स्वरूप में ही स्थिर न होकर प्रसिद्ध तथा संदिग्ध भद्रको अपना हित चाहने वालोंके द्वारा वन्दनीय बनी हुई है। और इसलिये प्रो० साहबके अभिमत- और अचिन्त्य महिमावाला देव प्रतिपादन किया है। को सिद्ध करनेमें असमर्थ है । जब आदि-अन्तके साथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भले दोनों पद्य स्वामी समन्तभद्रसे सम्बन्धित हों तब प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके किसी व्याकरण ग्रन्थका मध्यके पद्यको किसी दूसरेके साथ सम्बद्ध नहीं उल्लेख किया है"। अपनी इस दृष्टि और रायके किया जा सकता । उदाहरणके तौरपर कल्पना अनुरूप ही मैं 'अचिन्त्यमहिमा देवः' पद्यको प्रधानतः कीजिये कि रत्नकरण्डके उल्लेख वाले तीसरे पद्यके 'देवागम' और 'रत्नकरण्ड'के उल्लेख वाले पद्योंके स्थानपर स्वामी समन्तभद्र-प्रणीत स्वयंभूस्तोत्रके उत्तरवर्ती तीसरा पद्य मानता आरहा हूँ और तदनुउल्लेखको लिये हुए निम्न प्रकारके आशयका कोई सार ही उसके 'देव' पदका देवनन्दी अर्थ करनेमें पद्य है
प्रवृत्त हुआ हूं। अतः इन तीनों पद्योंके क्रमविषयमें ' स्वयम्भूस्तुतिकर्तारं भस्मव्याधि-विनाशनम् । मेरी दृष्टि और मान्यताको छोड़कर किसीको भी. विराग-द्वेष-वादादिमनेकान्तमतं नुमः ।।'
मेरे उस अर्थका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए जो ऐसे पद्यकी मौजूदगीमें क्या द्वितीय पद्यमें समाधितन्त्रकी प्रस्तावना तथा सत्साधु-स्मरण-मङ्गलउल्लिखित 'देव' शब्दको देवनन्दी पूज्यपादका वाचक पाठमें दिया हुआ है' । क्योंकि मुद्रितप्रतिका पद्य-क्रम कहा जा सकता है ? यदि नहीं कहा जा सकता तो १ प्रो० साहबने अपने मतकी पुष्टिमें उसे पेश करने सचमुच रत्नकरण्डके उल्लेखवाले पद्यकी मौजूदगीमें भी उसे ही उसका दुरुपयोग किया है।
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किरण ३]
रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
१२९
ही ठीक होनेपर मैं उस पद्यके 'देव' पदको समन्त- कोठियाके लेखमें उद्धृत होचुके हैं। इसके सिवाय, भदका ही वाचक मानता है और इस तरह तीनों वादिराजके पार्श्वनाथचरितसे ४७ वर्ष पूर्व शक सं० पद्योंको समंतभद्रके स्तुति-विषयक समझता हूँ। अस्तु। ९०० में लिखे गये चामुण्डरायके त्रिषष्ठिशलाका__अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्योंको महापुराणमें -भी 'देव' उपपदके साथ समन्तभद्रका स्वामी समन्तभद्रके साथ सम्बन्धित करने अथवा स्मरण किया गया है और उन्हें तत्त्वार्थभाष्यादिका रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलाने में कर्ता लिखा है । ऐसी हालतमें प्रो० साहबका कोई दुसरी बाधा आती है ? जहाँ तक मैने इस समन्तभद्रके साथ 'देव' पदकी अ. विषयपर गंभीरताके साथ विचार किया है मुझे उसमें करना ठीक नहीं है-वे साहित्यिकोंमें 'देव' विशेषणकोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्योंमें क्रमशः के साथ भी प्रसिद्धिको प्राप्त रहे हैं। तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा और अब प्रो० साहबका अपने अन्तिम लेखमें ममन्तभद्रका स्मरण किया गया है। उक्त क्रमसे रक्खे यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नहीं रखता कि "जो हुए तीनों पद्योंका अर्थ निम्न प्रकार है:
उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं उन सबमें 'देव' पद 'उन स्वामी (समन्तभद्रका चरित्र किसके लिये समन्तभद्रके साथ-साथ पाया जाता है। ऐसा कोई विस्मयकारक (आश्चर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने एक भी उल्लेख नहीं जहाँ केवल 'देव' शब्दसं 'देवागम' (आप्तमीमांसा) नामके अपने प्रवचन-द्वारा
समन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है । वे अचि- वास्तवमें कोई उत्तर नहीं, इसे केवल उत्तरके लिये न्त्यमहिमा-युक्त देव (समन्तभद्र) अपना हित चाहने
ही उत्तर कहा जा सकता है: क्योंकि जब कोई विशेषण वालोंके द्वारा सदा वन्दनीय हैं, जिनके द्वारा (सर्वज्ञ किसीके साथ जुड़ा होता है तभी तो वह किसी ही नहीं किन्तु) शब्द भी' भले प्रकार सिद्ध हो
प्रसङ्गपर संकेतादिके रूपमें अलगसे भी कहा जा वे ही योगीन्द्र (समन्तभद्र) सच्चे अर्थोंमें त्यागी (त्याग- सकता है, जो विशेषण कभी साथमें जुड़ा ही न हो भावसे युक्त अथवा दाता) हुए हैं जिन्होंने सुखार्थी वह न तो अलगसे कहा जा सकता है और न उसका भव्यसमूहके लिये अक्षयसुखका कारणभूत धर्मरत्नों- वाचक ही हो सकता है। प्रो० साहब ऐसा कोई भी का पिटारा–रत्नकरण्ड' नामका धर्मशास्त्र-दान उल्लेग्य प्रस्तुत नहीं कर सकेंगे जिसमें समन्तभद्रक किया है।
साथ 'स्वामी' पद जुड़नेसे पहले उन्हें केवल 'स्वामी' इस अर्थपरसे स्पष्ट है कि दूसरे तथा तीसरे पदके द्वारा उल्लेखि
पदके द्वारा उल्लेखित किया गया हो । अतः मूल बात पद्यमें ऐसी कोई बात नहीं जो स्वामी समन्तभद्रके समन्तभद्रके साथ 'देव' विशेषणका पाया जाना है, साथ सङ्गत न बैठती हो । समन्तभद्रके लिये 'देव' जिसके उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं और जिनके विशेषणका प्रयोग काई अनावी अथवा उनके पदसे आधारपर द्वितीय पद्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' विशेषण कोई अधिक चीज नहीं है। देषागमकी वसुनन्दि-वृत्ति, अथवा उपपदको समन्तभद्रकं साथ सङ्गत कहा जा पं० आशाधरकी. सागारधर्मामृत-टीका, आचार्य सकता है। प्रो० साहब वादिराजके इमा उल्लेखको जयसेनकी समयसार-टाका, नरेन्द्रसेन आचायेके वैसा एक उल्लेख समझ सकते हैं जिसमें 'देव' सिद्धान्तसार-संग्रह और आप्तमीमांसामूलकी एक शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया है। वि० संवत् १७५२की प्रतिको अन्तिम पुष्पिकामें क्योंकि वादिराजके सामन अनेक प्राचीन उल्लेखोंके समन्तभद्रके साथ 'देव' पदका खुला प्रयोग पाया जाता है, जिन सबके अवतरण पं० दरबारीलालजी
१ अनेकान्त वर्ष ८ कि० १०-११, पृ० ४१०-११ १ मूलमें प्रयुक्त हुए 'च' शब्दका अर्थ ।
२ अनेकान्त वर्ष कि० १ पृ०३३
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रूप में समन्तभद्रको भी 'देव' पदके द्वारा उल्लेखित करने के कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो० साहब ने श्लेषार्थको लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है उसका अर्थ जब स्वामी समन्तभद्र-परक किया जाता तब 'देव' पद स्वामी समन्तभद्रका, अकलङ्क-परक अर्थ करनेसे अकलङ्कका और विद्यानन्द-परक अर्थ करनेसे विद्यानन्दका ही वाचक होता है । इससे समन्तभद्र नाम साथमें न रहते हुए भी समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका अलग से प्रयोग अघटित नहीं है, यह प्रो० साहब द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्यसे भी जाना जाता हैं ।
अनेकान्त
यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्दको एकान्ततः 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैसा समझनेके कारण ही उन्होंने उक्त पद्यमें देबनन्दीके लिये उसका प्रयोग किया है; क्योंकि वादिराजने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरण में अकलङ्कके लिये 'देव' पदका बहुत प्रयोग किया है', इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरितमें भी वे 'तर्कभूबल्लभो देवः स जयत्यकलङ्कधी:' इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' पदके द्वारा अकलङ्कका उल्लेख कर रह हैं । और जब अकलङ्कके लिये वे 'देव' पदका उल्लेख कर रहे हैं तब अकलङ्कसे भी बड़े और उनके भी पूज्यगुरु समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नहीं है । इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चयविवरणके अन्तिम भागमें पूज्यपादका देवनन्दी नाम
[ वर्ष ९.
से उल्लेख न करके पूज्यपाद नामसे ही उल्लेख किया है', जिससे मालूम होता कि यही नाम उनको अधिक इष्ट था ।
ऐसी स्थिति में यदि वादिराजका अपने द्वितीय पसे देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होता तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके 'जैनेन्द्र' व्याकरणका साथमें स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्यको रत्नकरण्डके उल्लेख वाले पद्यके बादमें रखते, जिससे समन्तभद्रका स्मरण विषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ समझा जाता । जब ऐसा कुछ भी नहीं है तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्यमें 'देव' विशेषरण के द्वारा समन्तभद्रका ही उल्लेख किया गया है । उनका अचिन्त्यमहिमासे युक्त होना और उनके द्वारा शब्दों का सिद्ध होना भी कोई सङ्गत नहीं है । वे पूज्यपाद से भी अधिक महान थे, उनकी महानताका खुला गान किया है, उन्हें सबअकलङ्क और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े आचार्योंने पदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद - तीर्थको कलिकाल में भी प्रभावित करने वाला, वीरशासनकी हजारगुणी वृद्धि है । उनके असाधारण गुणोंके कीर्तनों और महिकरने वाला, और 'जैनशासनका प्रणेता' तक लिखा मायके वर्णनोंसे जैन साहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक 'सत्साधु- स्मरण - मङ्गलपाठ' में दिये हुए समन्तभद्र के स्मरणॉपरसे सहज ही में प्राप्त कर सकते हैं । समन्तभद्र के एक परिचय-पद्यसे मालूम होता है कि वे 'सिद्धसारस्वत थे - सरस्वती उन्हें सिद्ध थी; वादीभसिंह - जैसे आचार्य उन्हें 'सरस्वतीकी स्वच्छन्द विहारभूमि' बतलाते हैं और एक दूसरे प्रन्थकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हुए ग्रन्थसमूहरूपी निर्मलकमल-सरोवरमें, जो भावरूप हंसोंसे परिपूर्ण है, सरस्वतीको क्रीडा करती हुई उल्लेखित करते हैं । इससे समन्तभद्र के द्वारा शब्दों१ “विद्यानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मति - सागरं वन्दे जिनेन्द्र मुदा" |
१ जैसा कि नीचे के कुछ उदाहरणोंसे प्रकट है:“देवस्तार्किक चक्रचूडामणिभूयात्स वः श्रयसे” । पू० ३ "भूयो भेदनयावगाहगहनं देवस्य यद्वाङमयम्” । " तथा च देवस्यान्यत्र वचनं - "व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव नः” । “देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यतः क इव बोद्ध २ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-४ पृ० २६ मतीव दक्षः" । प्रस्ताव २
प्रस्ताव १
३ सत्साधुस्मरणमगलपाठ, पृ० ३४, ४६
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किरण ३ ]
का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती । उनका 'जिनशतक' उनके अपूर्व व्याकरणपाण्डित्य और शब्दोंके एकाधिपत्यको सूचित करता है । पूज्यपादने तो अपने जैनेन्द्रव्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह सूत्र रखकर समन्तभद्र-द्वारा होने वाली शब्दसिद्धिको स्पष्ट सूचित भी किया है, जिस परसे उनके व्याकरण - शास्त्रकी भी सूचना मिलती है । और श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने अपने गद्यकथाकोशमें उन्हें तर्कशास्त्र की तरह व्याकरण - शास्त्रका भी व्याख्याता (निर्माता ) ' लिखा है । इतनेपर भी प्रो० साहबका अपने पिछले लेख में यह लिखना कि "उनका बनाया हुआ न तो कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उसके काई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते हैं" व्यर्थ की खींचतान के सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं तो उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह कभी था ही नहीं । वादिराज के ही द्वारा पार्श्वनाथ - चरितमें उल्लिखित 'सन्मतिसूत्र' की वह विवृति और विशेषवादीकी वह कृति आज कहाँ मिल रही है ? यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजके उल्लेख विषय में अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती तो फिर समन्तभद्रके शब्दशास्त्र के उपलब्ध न होने मात्रसे ही वैसी कल्पना क्यों की जाती है ? उसमें कुछ भी औचित्य मालूम नहीं होता। अतः वादिराजके उक्त द्वितीय पद्य नं० १८का यथावस्थित क्रमकी दृष्टि से समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेनेमें किसी भी बाधाके लिये कोई स्थान नहीं हैं ।
रही तीसरे पद्यकी बात, उसमें 'योगीन्द्रः' पदको लेकर जो वाद-विवाद अथवा झमेला खड़ा किया गया है उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं हो सकता जो समन्तभद्रको योगी अथवा १ अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ पृ० ४१६ २ ‘जैनग्रन्थावली' में रॉयल एशयाटिक सोसाइटीकी रिपोर्टके श्राधारपर समन्तभद्रके एक प्राकृत व्याकरणका नामोल्लेख है और उसे १२०० श्लोकपरिमाण सूचित किया है ।
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Taaresh कर्तृत्व- विषयमें मेरा विचार और निर्णय
योगीन्द्र माननेके लिये तय्यार न हो, खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे— सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पच आचारोंका स्वय आचरण करनेवाले और दूसरोंको आचरण कराने वाले दीक्षागुरुके रूपमें थे-, 'पदर्द्धिक' थे तपके बलपर चारणऋद्धिको प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्रमय वचनबलसे शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला लिया था ( ' स्वमन्त्रवचन- व्याहूत चन्द्रप्रभः) | योगसाधना जैन मुनिका पहला कार्य होता है और इस लिये जैन मुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात हैं, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य हो जाता है । इसीसे जिस वीरशासनके स्वामी समन्तभद्र अन्य उपासक थे उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का०६) में उन्होंने दया, दम और त्यागके साथ समाधि (यांगसाधना ) को भी उसका प्रधान अङ्ग बतलाया हूँ | तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यउपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हो ?
१३१
सबसे पहले सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने इस योगीन्द्र-विषयक चर्चाको 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं ?' इस शीर्षक के अपने लेखमं उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि " योगीन्द्र- जैसा विशेषण तो उन्हें ( समन्तभद्रको ) कहीं भी नहीं दिया गया ।" इसके उत्तर में जब मैंन 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे' इस शीर्षकका लेख लिखा और उसमें अनेक प्रमाणों के आधारपर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' विशेषणोंका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषयमें मौन हा रहे, परन्तु प्रो० साहबने इस चर्चाको यह लिखकर लम्बा किया कि
१ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-४, पृ० २६, ३० २ श्रनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६, पृ० ४२-४८
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अनेकान्त
[वर्ष ९
_ "मुख्तार साहब तथा न्यायाचार्यजीने जिस तपस्वीवाले वेषके साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डु
'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत राङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है । उन्होंने जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो । जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनसे जान पड़ता यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डके कर्ताको भी है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेंसे किसी एकने भी अभी 'योगीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता । नक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न वास्तवमें 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि,
हा या किसीसे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत मुनि, यति, तपस्वी आदिकका वाचक है; जैसा कि कथाकोपमं समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द आया धनञ्जय-नाममालाके निम्न वाक्यसे प्रकट हैहै। केवल प्रेमीजीने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख ऋषिर्यतिमुनिभिक्षुस्तापसः संयतो व्रती । भेजा था कि "दोनों कथाओंमें कोई विशेष फर्क नहीं तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥३॥ है, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः जैनसाहित्यमें योगीकी अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी । पूर्ण अनुवाद है"। उसीके आधारपर आज उक्त जैसे शब्दोंका प्रयोग अधिक पाया जाता है, जो दोनों विद्वानोंको “यह कहने में कोई आपत्ति मालूम उसके पर्याय नाम हैं। रत्नकरण्डमें भी यांत, मुनि नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य-कथाकोषमें और तपस्वी शब्द योगीके लिये व्यवहृत हुए हैं। स्वामी समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित तपस्वीको प्राप्त तथा आगमकी तरह सम्यग्दर्शनका किया है।"
विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक - इसपर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोषको मँगाकर पद्य ' में दिया है वह खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। देखा गया और उसपरसे समन्तभद्रको 'योगी' तथा उसमें लिखा है कि-'जो इन्द्रिय-विषयों तथा 'योगीन्द्र' बतलाने वाले जब डेढ दर्जनके करीब इच्छाओंके वशीभूत नहीं हैं, आरम्भों तथा परिग्रहोंप्रमाण न्यायाचार्यजीने अपने अन्तिम लेख में से रहित हैं और ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरणोंमें लीन उद्धृत किये तब उसके उत्तरमें प्रो० साहब अब रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' इस लक्षणसे अपने पिछले लेखमें यह कहने बैठे हैं, जिसे वे भिन्न योगीके और कोई सीन नहीं होते । एक नेमिदत्त-कथाकोषके अनुकूल पहले भी कह सकते स्थानपर सामायिकमें स्थित गृहस्थको 'चेलोपसृष्टथे, कि "कथानकमें समन्तभद्रको केवल उनके कपट- मुनि'की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिखा है।' वेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेषमें चेलोपसृष्टमुनिका अभिप्राय उस नग्न दिगम्बर जैन कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता"। योगीसे हैं जो मौन-पूर्वक योग-साधना करता हुआ यह उत्तर भी वास्तवमें कोई उत्तर नहीं है। इसे ध्यानमग्न हो और उस समय किसीने उसको वस्त्र भी केवल उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। ओढा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसग समझता क्योंकि समन्तभद्रके योग-चमत्कारको देखकर जब है । सामायिकमें स्थित वस्त्रसहित गृहस्थको उस शिवकोटिराजा, उनके भाई शिवायन और प्रजाके मुनिकी उपमा देते हुए उसे जा यतिभाव-योगीके बहुतसे जन जैनधर्ममें दीक्षित होगये तब योगरूपमें भावको प्राप्त हुआ लिखा है और अगले पद्यमें उसे ममन्तभद्रकी ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और "अचल्योग" भा बतलाया है उससे स्पष्ट जाना वे आम तौरपर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर १ विषयाऽऽशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । कोई समझ सकता है; क्योंकि वह योगचमत्कार ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ समन्तभद्र के साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराज- २ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।. १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०-११ पृ० ४२०-२१
चेलोपसष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥१०२।।
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रण ३]
रत्नकरण्डके कतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
१३३
जाता है कि रत्नकरण्डमें भी योगीके लिये 'यति' लिये जबतक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरे समन्तशब्दका प्रयोग किया गया है। इसके सिवाय, अक- भद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता लकुदेवने अष्टशती (देवागम-भाष्य)के मङ्गल-पदामें होसके तब तक 'रत्नकरण्ड'के कर्ताके लिये 'योगीन्द्र' प्राप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रको 'यति' लिखा विशेषणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके है। जो मन्मार्गमें यत्नशील अथवा मन-वचन-कायके आधारपर स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे नियन्त्रणरूप योगकी साधनामें तत्पर योगीका समन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता।
और श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्ट- ऐसी वस्तुस्थितिमें वादिराजके उक्त दोनों पद्योंसहस्रीमें उन्हें 'यतिभृत्' और 'यतीश' तक लिखा को प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक ४२, जो दोनों ही 'योगिराज' अथवा 'योगीन्द्र' अर्थ- समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं के द्योतक हैं, और 'यतीश'के साथ 'प्रथिततर' होती' । प्रत्युत इसके, वादिराजके प्रायः समकालीन विशेषण लगाकर तो यह भी सूचित किया गया है विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामें 'रत्नकि वे एक बहुत बड़े प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसे ही करण्ड' उपासकाध्ययनको साफ तौरपर स्वामी उल्लेखोंको दृष्टिम रखकर वादिराजन उक्त पद्यमें समन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। 'समन्तभद्रकं लिये 'योगीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया उन्होंने अपनी टीकाके केवल मंधि-वाक्योंमें ही जान पड़ता है। और इसलिये यह कहना कि 'समन्तभद्रस्वामि-विरचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैसी
योगी नहीं थे अथवा योगीरूपसे उनका घोषणा नहीं की बल्कि टीकाकी आदिम निम्न कहीं उल्लेख नहीं किसी तरह भी समुचित नहीं कहा प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है-- जा सकता । रत्नकरण्डकी अब तक ऐसी कोई प्राचीन "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरल. प्रति भी प्रोः साहबकी तरफसे उपस्थित नहीं की गई करण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं जिसमें ग्रन्थको 'योगीन्द्र' नामका कोई विद्वान् रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कतकामोनिविघ्नत:शास्त्रपरिलिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्रसे भिन्न दूसरा समाप्त्यादिकं फलमभिलषनिष्टदेवताविशेष कोई समन्तभद्र उसका कर्ता है ऐसी स्पष्ट सूचना नमस्कुर्वन्नाह ।" माथमें की गई हो।
हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेनेकी है समन्तभद्र नामके दूसरे छह विद्वानोंकी खोज और वह यह कि प्रो० साहबने अपने विलुप्त अध्याय' करके मैंने उसे रत्नकरण्डश्रावकाचारकी अपनी में यह लिखा था कि दिगम्बर जैन साहित्यमें जो प्रस्तावनामें आजसे कोई २३ वर्षे पहले प्रकट किया प्राचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषतः विभषित किये था-उसके बादसे और किसी समन्तभद्रका अब तक
गये हैं वे श्राप्तमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ही कोई पता नहीं चला। उनमेंसे एक 'लघु', दूसरे हैं।" और आगे श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखमें 'चिक', तीसरे ‘गेरुसोप्पे', चौथे 'अभिनव', पाँचवे भद्रबाह द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देख'भट्रारक', छठे 'गृहस्थ' विशेषणसे विशिष्ट पाये जाते कर यह बतलाते हुए कि "भद्रबाहुकी उपाधि स्वामी हैं। उनमेंसे कोई भी अपने समयादिककी दृष्टिसे
थी जो कि साहित्यमें प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड'का कता नहीं हो सकता। आर इस लिये ही प्रयक्त हुई है," समन्तभद्र और भद्रबाह १ "येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम् ।"
१ सन् १९१२में तंजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिराजके २ "म श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृद-भयाद्विभुर्भानुमान् ।”
'यशोधर-चरित की प्रस्तावनामें, टी. ए. गोपीनाथराव "स्वामी जीयात्स शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलङ्कोरुकीर्तिः ।” ३माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार
एम. ए. ने भी इन तीनों पद्योंको इसी क्रमके माथ प्रस्तावना पृ० ५से ६।
समन्तभद्रविषयक सूचित किया है।
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१३४
अनेकान्त
[ वर्ष ९
द्वितीयको "एक ही व्यक्ति" प्रतिपादन किया था। सकते' जिनमें वे पद्य सम्मिलित न हों। इसपरसे कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन इस तरह प्रो० साहबकी तीसरी आपत्तिमें कुछ समन्तभद्रके साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ हो उन्हें भी सार मालूम नहीं होता। युक्तिके पूर्णतः सिद्ध न प्रो० साहबके मतानुसार प्राप्तमीमाका कर्ता समझना होनेके कारण वह रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाके चाहिये । तदनुसार ही प्रो० साहबके सामने रत्न- एककत त्वमें बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये करण्डकी टीकाका उक्त प्रमाण यह प्रदर्शित करनेके उसे भी समुचित नहीं कहा जा सकता। लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्राचार्य भी रत्न- (४) अब रही चौथी आपत्तिकी बात; जिसे प्रो० करण्डको स्वामी समन्तभद्रकृत लिख रहे हैं और साहबने रत्नकरण्डके निम्न उपान्त्य पद्यपरसे कल्पित प्रो० साहब 'स्वामी' पदका असाधारण सम्बन्ध करके रक्खा हैआप्तमीमसाकारके साथ जोड़ रहे हैं तब वे उसे येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं । आप्तमीमांसाकारसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्रकी नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धित्रिषु विष्टपेषु ।। कृति कैसे बतलाते हैं ? इसके उत्तर में प्रो० साहबने इस पद्यमें प्रन्थका उपसंहार करते हुए यह लिखा है कि "प्रभाचन्द्रका उल्लेख केवल इतना ही तो बतलाया गया है कि 'जिस (भव्यजीव)ने आत्माको है कि रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र हैं उन्होंने निर्दोष विद्या, निर्दोष दृष्टि और निर्दोष क्रियारूप यह तो प्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकरण्डके कर्ता रत्नोंके पिटारेके भावमें परिणत किया है-अपने श्राप्तमीमांसीके भी रचयिता हैं' ।" परन्तु साथमें आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रलगा हुआ 'स्वामी' पद तो उन्हींके मन्तव्यानुसार रूप रत्नत्रय धर्मका आविर्भाव किया है-उसे तीनों उसे प्रकट कर रहा है यह देखकर उन्होंने यह भी लोकोंमें सर्वार्थसिद्धि-धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप सभी कह दिया है कि 'रत्नकरण्डके कर्ता समन्तभद्रके प्रयोजनोंकी सिद्धि-स्वयंवरा कन्याकी तरह स्वय साथ 'स्वामी' पद बादको जुड़ गया है-चाहे उसका प्राप्त होजाती है, अर्थात् उक्त सर्वार्थसिद्धि उसे कारण भ्रांति हो या जानबूझकर ऐसा किया गया हो।' स्वेच्छासे अपना पति बनानी है, जिससे वह चारों परन्तु अपने प्रयोजनके लिये इस कह देने मात्रसे पुरुषार्थोंका स्वामी होता है और उसका कोई भी कोई काम नहीं चल सकता जब तक कि उसका कोई प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।' प्राचीन आधार व्यक्त न किया जाय-कमसे कम इस अर्थको स्वीकार करते हुए प्रो० साहबका प्रभाचन्द्राचार्यसे पहलेकी लिखी हुई रत्नकरण्डकी जो कुछ विशेष कहना है वह यह हैकोई ऐसी प्राचीन मूलप्रति पेश होनी चाहिये थी "यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रके द्वारा बतलाये गये जिसमें समन्तभद्रके साथ स्वामी पद लगा हुआ न वाच्यार्थके अतिरिक्त श्लेषरूपसे यह अर्थ भी मुझे हो। लेकिन प्रो० साहबने पहलेकी ऐसी कोई भी स्पष्ट दिखाई देता है कि "जिसने अपनेको अकलङ्क प्रति पेश नहीं की तब वे बादको भ्रान्ति आदिके और विद्यानन्दके द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन वश स्वामी पदके जुड़नेकी बात कैसे कह सकते और चारित्ररूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे हैं ? नहीं कह सकते, उसी तरह जिस तरह कि तीनों स्थलोंपर सर्व अर्थों की सिद्धिरूप सर्वार्थसिद्धि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्डके स्वयं प्राप्त हो जाती है, जैसे इच्छामात्रसे पतिको सात पद्योंको प्रभाचन्द्रीय टीकासे पहलेकी ऐसी अपनी पत्नी ।" यहाँ निःसन्देहतः रत्नकरण्डकारने प्राचीन प्रतियोंके न मिलनेके कारण प्रक्षिप्त नहीं कह तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकाओंका उल्लेख
- १ अनेकान्त वर्ष ६, किरण १ पृ० १२पर प्रकाशित प्रो. १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३, पृ० १२६ । .
साहबका उत्तर पत्र।
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किरण ३]
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
१३५
किया है। सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई और अर्थतः अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दिकृत पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों श्लोकवार्तिकमें प्रायः पूरी ही प्रथित है । अत: जिसने स्थलोंपर किया गया है वे तीन स्थल कौनसे हैं अकलङ्ककृत और विद्यानन्दिकी रचनाओंको हृयङ्गम जहाँपर सर्व अर्थकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं कर लिया उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं आजाती है। रत्न- प्राप्त होजाती है ? तब प्रोफेसर साहव उत्तर देते हुए करण्डके इस उल्लेखपरसे निर्विवादतः सिद्ध होजाता लिखते हैंहै कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन "मेरा खयाल था कि वहाँ तो किसी नई है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं है।" ऐसी हालतमें "रत्नकरण्डकारका श्राप्तमीमांसा तीन स्थलोंकी सङ्गति सुस्पष्ट है जो टीकाकारने बतला के कर्तासे एकत्व सिद्ध नहीं होता।"
दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र; क्योंकि वे यहाँ प्रो० साहब-द्वारा कल्पित इस लेखा तत्त्वार्थसूत्रके विषय होनेसे सर्वार्थसिद्धिमें तथा प्रकसुघटित होने में दो प्रबल बाधाएँ हैं-एक तो यह कि
लङ्कदेव और विद्यानन्दिकी टीकाओं में विवेचित हैं
और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है।" जब 'वीतकलंक' से अकलंकका और विद्यासे विद्यानन्दका अर्थ लेलिया गया तब 'दृष्टि' और 'क्रिया' दो
यह उत्तर कुछ भी सङ्गत मालूम नहीं होता;
क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'त्रिषु विष्टयेषु' का स्पष्ट ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मलनिर्दोष अथवा सम्यक् जैसे मौलिक विशेषणसे शुन्य।
अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमें' दिया है। ऐसी हालतमें श्लेषार्थके साथ जो “निर्मल ज्ञान" अर्थ
उसके स्वीकारकी घोषणा करते हुए और यह आश्वाभी जोड़ा गया है वह नहीं बन सकेगा और उसके
14 सन देते हुए भी कि उस विषयमें टीकाकारसे भिन्न न जोड़नेपर वह श्लेषार्थ ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ
"किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं" टीकाकार
का अर्थ न देकर 'अर्थात' शब्दके साथ उसके अर्थअसङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमें तृतीय पद्यसे प्रारम्भ करके इस पद्यके पूर्व तक सम्यक्दर्शन-ज्ञान
की निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना चारित्ररूप तीन रत्नोंका ही धर्मरूपसे वर्णन है, जिस
और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान . का उपसहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्यमें उनको
और चारित्र" बतलाना अर्थका अनर्थ करना अथवा अपनानेवालेके लिये सर्व अर्थकी सिद्धिरूप फलकी
खींचतानकी पराकाष्ठा है । इससे उत्तरकी सङ्गति व्यवस्था की गई है। इसकी तरफ किसीका भी ध्यान
और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिषु विष्टयेषु'
बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंमें दर्शन, ज्ञान पदोंका अर्थ जो “तीनों स्थलोंपर" किया गया है वह
और चारित्र विवेचित हैं-प्रतिपादित हैं, बल्कि यह सङ्गत नहीं बैठता; क्योंकि अकलंकदेवका राज
कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चात्रिमें सर्वार्थवार्तिक और विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक ग्रन्थ ये दो
सिद्धि आदि टीकाएँ विवेचित हैं-प्रतिपादित हैं, ही स्थल ऐसे हैं जहाँपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि
जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस (तत्त्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा अर्थत: पाई जाती है,
तरह आधार-आधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति तीसरे स्थलकी बात मूलके किसी भी शब्दपरसं उस
बिगड़ जायगी; और तब श्लेरूषपमें यह भी फलित का आशय व्यक्त न करनेके कारण नहीं बनती। यह
नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी
टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं जहाँपर . १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६ पृ० ५३
पूज्यपादकी टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त होजाती है। २ अनेकान्त वर्ष ८ किरण ३ पृ. १३२
१ अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३ पृ० १३०
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अनेकान्त
[वर्ष ९
इन दोनों बाधाओंके सिवाय श्लेषकी यह कल्पना होजाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपादसे अप्रासङ्गिक भी जान पड़ती है, क्योंकि रत्नकरण्डके पश्चात्कालीन हैं, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिमे भी साथ उसका कोई मेल नहीं मिलता, रत्नकरण्ड पीछेकी है" कोरी कल्पनाके सिवाय और कुछ भी तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका भी नहीं जिससे किसी नहीं है । उसे किसी तरह भी युक्तिसङ्गत नहीं कहा तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिठलाया जा सकता-रत्नकरण्डके 'अप्तोपज्ञमनुल्लंध्य' पद्यका जाता, वह तो आगमकी ख्यातिको प्राप्त एक स्वतन्त्र न्यायावतारमें पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादिकी उक्त टीकाओंका केवल उत्तरके लिये किया गया प्रयासमात्र है और कोई आधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। इसीसे उसको प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहबको अपने और इसलिये उसके साथ उक्त श्लेषका आयोजन पूर्व कथनके विरोधका भी कुछ खयाल नहीं रहा; एक प्रकारका असम्बद्ध प्रलाप ठहरता है जैसा कि मैं इससे पहले द्वितीयादि आपत्तियोंके अथवा या कहिये कि विवाह तो किसीका और गीत विचारकी भूमिकामें प्रकट कर चुका हूँ। किसीके' इस उक्तिको चरितार्थ करता है। यदि विना यहाँपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है सम्बन्धविशेषके केवल शब्दछलको लेकर ही श्लेषकी और वह यह कि प्रो० साहब श्लेषकी कल्पनाके बिना कल्पना अपने किसी प्रयोजनके वश की जाय और उक्त पद्यकी रचनाको अटपटी और अस्वाभाविक उसे उचित समझा जाय तब तो बहुत कुछ अनर्थोंके समझते हैं। परन्तु पद्यका जो अर्थ ऊपर दिया गया सङ्घटित होनेकी सम्भावना है । उदाहरणके लिये है और जो आचार्य प्रभाचन्द्र-सम्मत है उससे पद्यकी स्वामिसमन्तभद्र-प्रणीत 'जिनशतक'के उपान्त्य पद्य रचनामें कहीं भी कुछ अटपटापन या अस्वाभाविकता (नं० ११५)में भी 'प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा' इस का दर्शन नहीं होता है। वह विना किसी श्लेषकल्पनाके वाक्यके अन्तर्गत 'सर्वार्थसिद्धि' पदका प्रयोग पाया ग्रन्थके पूर्व कथनके साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता जाता है और ६१वें पद्यमें तो 'प्राप्य सर्वार्थसिद्धिं गां' हुआ ठीक उसके उपसंहाररूपमें स्थित है । उसमें इस वाक्यके साथ उसका रूप और स्पष्ट होजाता है, प्रयुक्त हुए विद्या, दृष्टि जैसे शब्द पहले भी ग्रन्थमें उसके साथ वाले 'गा' पदका अर्थ वाणी लगा लेनेसे ज्ञान-दर्शन जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, उनके अर्थमें वह वचनात्मिका 'सर्वार्थसिद्धि' होजाती है। इस प्रो० साहबको कोई विवाद भी नहीं है। हाँ, 'विद्या' 'सर्वार्थसिद्धि'का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थकी तरह से श्लेषरूपमें 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि लगाया जायगा तो स्वामी कल्पना है, जिसके समर्थनमें कोई प्रमाण उपस्थित समन्तभद्रको भी पूज्यपादके बादका विद्वान् कहना नहीं किया गया, केवल नामका एक देश कहकर उसे
पूज्यपादके 'चतुष्टय समन्तभद्रस्य' इस मान्य कर लिया है'। तब प्रो० साहबकी दृष्टिमें व्याकरणसूत्रमें उल्लिखित समन्तभद्र चिन्ताके विषय बन जायेंगे तथा और भी शिलालेखों, प्रशस्तियों १ जहाँतक मुझे मालूम है संस्कृत साहित्यमें श्लेषरूपसे तथा पट्टावलियों आदिकी कितनी ही गड़बड़ उपस्थित नामका एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुषके लिये उसका हो जायगी। अतः सम्बन्धविशेषको निर्धारित किये। पुल्लिंग अंश और स्त्रीके लिये स्त्रीलिंग अंश ग्रहण किया विना केवल शब्दोंके समानार्थको लेकर ही श्लेषार्थकी जाता है; जैसे 'सत्यभामा' नामका स्त्रीके लिये 'भामा' कल्पना व्यर्थ है।
अंशका प्रयोग होता है न कि 'सत्य' अंशका । इसी तरह ___ इस तरह जब श्लेषार्थ ही सुघटित न होकर 'विद्यानन्द' नामका 'विद्या' अंश, जो कि स्त्रीलिंग है, पुरुषके बाधित ठहरता है तब उसके आधारपर यह कहना । लिये व्यवहृत नहीं होता । चुनाँचे प्रो० साहबने श्लेषके कि "रत्नकरण्डके इस उल्लेखपरसे निर्विवादतः सिद्ध उदाहरणरूपमें जो 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य
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किरण. ४]
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय
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पद्यकी रचनाका अटपटापन या अस्वाभाविकपन प्रयोग किया गया है । इनमें 'वीतकलङ्क' शब्द सबसे एकमात्र 'वीतकलङ्क' शब्दके साथ केन्द्रित जान अधिक शुद्धसे भी अधिक स्पष्टार्थको लिये हुए है' पड़ता है, उसे ही सीधे वाच्य-वाचक-सम्बन्धका और वह अन्तमें स्थित हुआ अन्तदीपककी तरह बोधक न समझकर आपने उदाहरणमें प्रस्तुत किया पूर्वमें प्रयुक्त हुए 'सत्' आदि सभी शब्दोंकी अर्थदृष्टिहै। परन्तु सम्यक् शब्दके लिये अथवा उसके स्थान पर प्रकाश डालता है, जिसकी जरूरत थी, क्योंकि पर 'वीतकलङ्क' शब्दका प्रयोग छन्द तथा स्पष्टार्थकी 'सत्' सम्यक् जैसे शब्द प्रशंसादिके भी वाचक हैं दृष्टिसे कुछ भी अटपटा, असङ्गत या अस्वाभाविक वह प्रशंसादि किस चीजमें है ? दोषोंके दूर होनेमें नहीं है। क्योंकि 'कलङ्क'का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है। है। उसे भी 'वीतकलङ्क' शब्द व्यक्त कर रहा है।
और उसके साथमें 'वीत' विशेषणविगत, मुक्त त्यक्त, दर्शनमें दोष शङ्का-मूढतादिक, ज्ञानमें संशय-विपर्यविनष्ट अथवा रहित जैसे अर्थका वाचक है, जिसका यादिक और चारित्रमें राग-द्वेषादि होते हैं। इन दोषोंसे प्रयोग समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थों में भी ऐसे स्थलोंपर रहित जो दर्शन-ज्ञान और चारित्र हैं वे ही वीतकलङ्क पाया जाता है जहाँ श्लेषार्थका कोई काम नहीं; जैसे अथवा निर्दोष दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उन्हीं रूप जो
आप्तमीमांसाके 'वीतरागः' तथा 'वीतमोहतः' पदोंमें, अपने आत्माको परिणत करता है उसे ही लोकस्वयम्भूस्तोत्रके 'वीतघनः' तथा 'वीतरागे' पदोंमें, परलोक सर्व अर्थोकी सिद्धि प्राप्त होती है। यही उक्त युक्त्यनुशासनके 'वीतविकल्पधीः' और जिनशतकके उपान्त्य पद्यका फलितार्थ है, और इससे यह स्पष्ट 'वीतचेतोविकाराभिः' पदमें । जिसमेंसे दोष या जाना जाता है कि पद्यमें 'सम्यक् के स्थानपर 'वीतकलङ्क निकल गया अथवा जो उससे मुक्त है उसे कलङ्क' शब्दका प्रयोग बहुत सोच-समझकर गहरी दूरवीतदोष, निर्दोष, निष्कलङ्क, अकलङ्क तथा बीतकलङ्क दृष्टिके साथ किया गया है। छन्दकी दृष्टिसे भी वहाँ जैसे नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो सब एक सत, सम्यक् , समीचीन, शुद्ध या समञ्जस जैसे ही अर्थके वाचक पर्याय नाम हैं। वास्तवमें जो शब्दों से किसीका प्रयोग नहीं बनता और इसलिये निर्दोष है वही सम्यक् (यथार्थ) कहे जानेके योग्य 'वीतकलङ्क' शब्दका प्रयोग श्लेषार्थके लिये अथवा है-दोषोंसे युक्त अथवा पूर्णको सम्यक् नहीं कह द्राविडी प्राणायामके रूपमें नहीं है जैसा कि प्रोफेसर कते । रत्नकरण्डम सत्, सम्य, समाचान, शुद्ध साहब समझते है । यह बिना किसी श्लेषाथेकी और वीतकलङ्क इन पाँचों शब्दोंको एक ही अर्थमें कल्पनाके ग्रन्थसन्दर्भके साथ सुसम्बद्ध और अपने प्रयुक्त किया है और वह है यथार्थता-निर्दोषता, स्थानपर सुप्रयुक्त है। जिसके लिये स्वम्भूस्तोत्रमें 'सुमञ्जस' शब्दका भी अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि
- प्रन्थका अन्तःपरीक्षण करनेपर उसमें कितनी ही बातें निजभक्तथा' नामका पद्य उद्धृत किया है उसमें विद्या- ऐसी पाई जाती हैं जो उसकी अति प्राचीनताकी द्योतक नन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेख न करके पूरा ही नाम हैं उसके कितने ही उपदेशों-श्राचारों, विधि-विधानों दिया है। विद्यानन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेखका दूसरा अथवा क्रियाकाण्डोंकी तो परम्परा भी टीकाकार कोई भी उदाहरण देखनेमें नहीं आता।
प्रभाचन्द्रके समयमें लुप्त हुई सी जान पड़ती है, १ 'कलङ्कोऽङ्क कालायसमले दोषापवादयोः।' विश्व० कोश०. इसीसे वे उनपर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल सके और दोषके अर्थमें कलङ्क शब्दके प्रयोगका एक सुस्पष्ट उदा- न बादको ही किसीके द्वारा वह डाला जा सका है; हरण इस प्रकार है
जैसे 'मूध्वरूह-मुष्ठि-वासो-बन्धं' और 'चतुरावर्तअपाकुवन्ति यद्वाचः काय-वाक-चित्त-सम्भवम् । त्रितय' नामक पद्योंमें वर्णित आचारकी बात। अष्टकलकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।-ज्ञानार्णव मूलगुणोंमें पञ्च अणुव्रतोंका समावेश भी प्राचीन
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परम्पराका द्योतक है जिसमें समन्तभद्र से शताब्दियों • बाद भारी परिवर्तन हुआ और उसके अणुव्रतोंका
स्थान पचदम्बर फलोंने ले लिया। एक चाण्डालपुत्रको 'देव' अर्थात् आराध्य बतलाने और एक गृहस्थको मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश भी बहुत प्राचीनकालके संसूचक हैं जबकि देश और समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको • ग्रहण करने में सक्षम था । परन्तु यहाँ उन संब बातोंके विचार एवं विवेचनका अवसर नहीं है - वे तो स्वतन्त्र लेखके विषय हैं, अथवा अवसर मिलनेपर 'समीचीन धर्मशास्त्र' की प्रस्तावना में उनपर यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा । यहाँ मैं उदाहरण के तौरपर सिर्फ दो बातें ही निवेदन कर देना चाहता हूँ और वे इस प्रकार हैं
(क) रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनको तीन मूढताओं से रहित बतलाया है और उन मूढताओं में पाखण्डि मूढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप दिया है वह इस प्रकार हैसग्रन्थाऽऽरम्भ-हिंमानां संसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डि - मोहनम् ||२४||
'जो सग्रन्थ हैं - धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त हैं —श्ररम्भ सहित हैं—कृषि-वाणिज्यादि सावधकर्म करते हैं-, हिंसामें रत हैं और संसार के आवर्ती में प्रवृत्त हो रहे हैं - भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कर्मोंद्वारा दुनिया के चक्कर अथवा गोरखधन्धे में फँसे हुए हैं, ऐसे पाखण्डियोंका - वस्तुतः पापके खण्डन में प्रवृत्त न होने वाले लिङ्गी साधुओं का जो (पाखण्डी रूपमें अथवा साधु-गुरु-बुद्धिसे) आदर-सत्कार है उसे 'पाखण्डिमूढ' समझना चाहिए ।'
अनेकान्त
१ इस विषयको विशेष जाननेके लिये देखो लेखकका 'जैनाचार्यों का शासन : भेद' नामक ग्रन्थ पृष्ठ ७ से १५ । उसमें दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूलगुणोंमें व्रतोंके स्थानपर पञ्चदम्बरकी कल्पना रूढ होचुकी थी और इस लिये भी रत्नकरण्डसे शताब्दियों बादकी रचना है ।
[ वर्ष ९
इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्ड ग्रन्थकी रचना उस समय हुई है जब कि 'पाखण्डी' शब्द अपने मूल अर्थ में - 'पापं खण्डयतीति पाखण्डी' इस नियुक्ति के अनुसार – पापका खण्डन करने के लिये प्रवृत्त हुए तपस्वी साधुओंके लिये आमतौर पर व्यवहृत होता था, चाहे वे साधु स्वमतके हों या परमतके । चुनाँचे मूलाचार ( ० ५) में 'रत्तवड - चरग तापस-परिहत्तादीयअरपासंडा' वाक्य के द्वारा रक्तपादिक साधुओं को अन्यमतके पाखण्डी बतलाया है, जिससे साफ ध्वनित हैं कि तब स्वमत (जैनों) के तपस्वी साधु भी 'पाखण्डी ' कहलाते थे । और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचार्यके समयासार प्रन्थकी 'पाखंडी-लिंगारिण व गिहलिंगाणि होता है, जिनमें पाखण्डीलिङ्गको अनगार साधुओं बहुप्पयारा' इत्यादि गाथा नं० ४०८ आदि से भी (निर्मन्थादि मुनियों) का लिङ्ग बतलाया है । परन्तु 'पाखण्डी' शब्द के अर्थकी यह स्थिति आजसे कोई दशों शताब्दियों पहले से बदल चुकी है और तबसे यह अर्थ में व्यवहृत होता रहा है । इस अर्थका रत्न'शब्द' प्रायः 'धूर्त' अथवा 'दम्भी कपटी' 'जैसे विकृत करण्डके उक्त पद्यमें प्रयुक्त हुए 'पाखण्डिन् ' शब्दके प्रयोगको यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं । यहाँ 'पाखण्डी' शब्द के (मिध्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थ में लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकोंने भ्रमवश आधुनिक दृष्टिसे ले लिया है, तो अर्थका अर्थ हो जाय और 'पाखण्डऔर असम्बद्ध ठहरे। क्योंकि इस पदक अर्थ है मोहम्' पदमें पड़ा हुआ 'पाखण्डिन् ' शब्द अनर्थक 'पाखण्डियों के विषय में मूढ होना' अर्थात् पाखण्डीके वास्तविक' स्वरूपको न समझकर अपाखण्डियों
१ पाखण्डीका वास्तविक स्वरूप वही है जिसे ग्रन्थकार महोदय 'तपस्वी' के निम्न लक्षणमें समाविष्ट किया है। ऐसे ही तपस्वी साधु पापोंका खण्डन करने में समर्थ होते हैं:- विषयाशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञान-ध्यान- तपोरतस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥
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किरण ४]
अथवा पावट्याभासोंको पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप आदर-सत्कारका व्यवहार करना । इस पदका विन्यास प्रन्थमें पहले से प्रयुक्त 'देवतामूढम् ' पदके समान ही है, जिसका श्राशय है कि 'जो देवता नहीं हैं- रागद्वेषसं मलीन देवताभास हैं - उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना । ऐसी हालत में 'पाखण्डिन' शब्दका अर्थ 'धूत' जैसा करनेपर इसका ऐसा अर्थ होजाता है कि धूर्तोंके विषय में मूढ होना अर्थात जो धूत नहीं हैं उन्हें धूर्त समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कारका व्यवहार करना' और यह अर्थ किसी तरह भी मंङ्गत नहीं कहा जा सकता । अतः रत्नकरण्डमें 'पाखण्डिन्' शब्द अपने मूल पुरातन अर्थही व्यवहृत हुआ है, इसमें जरा भी सन्देहके लिये स्थान नहीं हैं । इस अर्थकी विकृति विक्रम सं० ७३४से पहले हो चुकी थी और वह धूर्त जैसे अर्थ में व्यवहृत होने लगा था, इसका पता उक्त संवत् अथवा वीरनिर्वाण सं० १२०४में बनकर समाप्त हुए श्रीरविषेणाचार्य कृत पद्मचरितके निम्न वाक्यसे चलता है-- जिसमें भरत चक्रवर्तीके प्रति यह कहा गया है कि जिन ब्राह्मणों की सृष्टि आपने की है वे वर्द्धमान जिनेन्द्रके निर्वाणके बाद कलियुग में महाउद्धत 'पाखण्डी' हो जायेंगे । और अगले पद्य में उन्हें 'सदा पापक्रियोद्यताः' विशेषरण भी दिया गया हैवर्द्धमान-जिनस्याऽन्ते भविष्यन्ति कलौ युगे । एते ये भवता सृष्टाः पाखण्डिनो महोद्धताः ॥। ४- ११६
रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय
- ऐसी हालत में रत्नकरण्डकी रचना उन विद्या नन्द आचार्यके बाकी नहीं हो सकती जिनका समय प्रो० साहबने ई० सन् ८१६ (वि० संवत् ८७३) के लगभग बतलाया है।
(ख) रत्नकर एडमें एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है:
गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य | भैक्ष्याऽशन स्वपस्यन्नुत्कृष्टश्वेल-खण्ड-धरः ॥ १४७॥
इसमें, ११वी प्रतिमा (कक्षा) - स्थित उत्कृष्ट श्रावक
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का स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन'को जाकर गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही गई है उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह प्रन्थ उस समय बना है जबकि जैन मुनिजन श्रमतौर पर वनोंमें रहा करते थे, वनोंमें ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थेऔर वहीं जाकर गुरु (आचार्य) के पास उत्कृष्ट श्रावकपदकी दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति उस समयकी हैं जबकि चैत्यवास - मन्दिर - मठों में मुनियोंका आमतौर निवास - प्रारम्भ नहीं हुआ था । चैत्यवास विक्रमकी ४थी ५वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था - यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ पहले हुआ था - ऐसा तद्विषयक इतिहाससे जाना जाता है। पं० नाथूरामजी प्रेसीके 'वनवासी और 'चैत्यवासी सम्प्रदाय' नामक निबन्धसे भी इस विषयपर कितना ही प्रकाश पड़ता है' और इस लिये भी रत्नकरण्डकी रचना विद्यानन्द आचार्यके बादकी नहीं हो सकती और न उस रत्नमालाकार के समसामयिक अथवा उसके गुरुकी कृति हो सकती है जो स्पष्ट शब्दों में जैन मुनियोंके लिये वनवासका निषेध कर रहा है - उसे उत्तम मुनियोंके द्वारा वर्जित बतला रहा है - और चैत्यवासका खुला पोषण कर रहा है । वह तो उन्हीं स्वामी समन्तभद्रकी कृति होनी चाहिये जो प्रसिद्ध वनवासी थे, जिन्हें प्रोफेसर साहबने श्वेताम्बर पट्टावलियोंके आधारपर 'वनवासी' गच्छ अथवा सङ्घके प्रस्थापक 'सामन्तभद्र' लिखा है जिनका श्वेताम्बर - मान्य समय भी दिगम्बरमान्य समय (विक्रमकी दूसरी शताब्दी) के अनुकूल है और जिनका आप्तमीमांसाकार के साथ एकत्व माननेमें प्रो० सा०को कोई आपत्ति भी नहीं है ।
रत्नकरण्डके इन सब उल्लेखोंकी रोशनी में प्रो० साहबकी चौथी आपत्ति और भी निःसार एवं निस्तेज हो जाती हैं और उनके द्वारा प्रन्थके उपान्त्य पथमें की गई क्षेषार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही १ जैन साहित्य और इतिहास पृ० ३४७ से २६६ २ कलौकाले वने वासो वर्ज्यते मुनिसत्तमैः । स्थापितं च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः || २२ - रत्नमाला
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अनेकान्त
[वर्ष ९
निर्मूल ठहरती है-उसका कहींसे भी कोई समर्थन ८७३)के पश्चात् और वादिराजके समय अर्थात नहीं होता । रत्नकरण्डके समयको जाने-अनजाने शक सं० ९४७ (वि० सं० १०८२)से पूर्व सिद्ध होता रत्नमालाके रचनाकाल (विक्रमकी ११वीं शताब्दीके है। इस समयावधिके प्रकाशमें रत्नकरण्डश्रावउत्तराध या उसके भी बाद)के समीप लानेका आग्रह काचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप आजाते करनेपर यशस्तिलकके अन्तर्गत सोमदेवसूरिका ४६ हैं और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं कल्पोंमें वर्णित उपासकाध्ययन (वि० सं० १०१६) रहता'।"
और श्रीचामुण्डरायका चारित्रसार (वि० सं० १०३५के . इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालगभग) दोनों रत्नकरण्डके पूर्ववर्ती ठहरेंगे, जिन्हें लोचनोंके साथ विचार करनेपर प्रो. साहबकी चारों किसी तरह भी रत्नकरण्डके पूर्ववर्ती सिद्ध नहीं किया दलीलें अथवा आपत्तियोंमेंसे एक भी इस योग्य नहीं जा सकता; क्योंकि दोनों रत्नकरण्डके कितने ही ठहरती जो रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा.. शब्दादिके अनुसरणको लिये हुए हैं-चारित्रसारमें का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने अथवा दोनोंके एक तो रत्नकरण्डका 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' नामका एक कर्तृत्वमें कोई बाधा उत्पन्न करनेमें समर्थ हो सके पूरा पद्य भी 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत है। और तब और इसलिये बाधक प्रमाणोंके अभाव एवं साधक प्रो० साहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय- प्रमाणोंके सद्भावमें यह कहना न्याय-प्राप्त है कि का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी समन्त
रत्नकरण्डश्रावकाचार उन्हीं समन्तभद्र आचार्यकी भद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है। उनके विरुद्ध जायगा, कृति है जो प्राप्तमीमांसा (देवागम)के रचयिता हैं। जिसे उन्होंने धवलाकी चतुर्थ पुस्तक (क्षेत्रस्पर्शन और यही मेरा निर्णय है। अनु०) प्रस्तावनामें व्यक्त किया है और जिसका उन्हें उत्तरके चक्कर में पड़कर कुछ ध्यान रहा मालूम नहीं वीरसेवामन्दिर, सरसावा ) होता और वे यहाँ तक लिख गये हैं कि "रत्नकरण्ड
ता० २१-४-१९४८
जुगलकिशोर मुख्तार की रचनाका समय इस (विद्यानन्दसमय वि० सं० १ अनेकान्त वर्ष ७, किरण ५-६, पृ० ५४
अमूल्य तत्त्वविचार बहुत पुण्यके पुञ्जसे इस शुभ मानव-देहकी प्राप्ति हुई; तो भी अरे रे ! भवचक्रका एक भी चक्कर दूर
। सुखको प्राप्त करनेसे सुख दूर होजाता है, इसे जरा अपने ध्यानमें लो। अहो ! इस क्षण-क्षणमें होने वाले भयङ्कर भाव-मरणमें तुम क्यों लवलीन हो रहे हो ? ॥१॥..
यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो सही कि तुम्हारा बढ़ ही क्या गया ? क्या कुटुम्ब परिवारके बढ़नेसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो ? हर्गिज ऐसा मत मानो; क संसारका बढ़ना मानो मनुष्य-देहको हार जाना है । अहो ! इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता ? ||२||
निर्दोष सुख और निर्दोष आनन्दको, जहाँ कहींसे भी वह मिल सके वहींसे प्राप्त करो जिससे कि यह दिव्य शक्तिमान आत्मा जञ्जीरोंसे निकल सके। इस बातकी सदा मुझे दया है कि परवस्तुमें मोह नहीं . करना । जिसके अन्तमें दुःख है उसे सुख कहना, यह त्यागने योग्य सिद्धान्त है ।।३।।
मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप क्या है, यह सम्बन्ध किस कारणसे हुआ है, उसे रक्खू या छोड़ दूँ ? यदि इन बातोंका विवेकपूर्वक शान्तभावसे विचार किया तो आत्मज्ञानके सब सिद्धान्त-तत्त्व अनुभवमें आगए ॥४॥
_ . -श्रीमद्राजचन्द्र
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कथा-कहानी
इज्जत बड़ी या रुपया
[ लेखक - अयोध्याप्रसाद गोयलीय ]
हलीकी एक प्रसिद्ध सर्राफ़ेकी दूकान पर ४०-५० हज़ार रुपयोंकी गिन्नियाँ गिनी जारही थीं कि एक उचट कर इधर-उधर होगई। काफी तलाश करनेपर भी नहीं मिली। उस दूकानपर उनका कोई ग़रीब रिश्तेदार भी बैठा हुआ था। संयोगकी बात कि उसके पास भी एक गिन्नी थी। गिन्नी न मिलते देख, उसने मनमें सोचा कि "शायद अब तलाशी ली जायगी । ग़रीब होने के नाते मुझपर शक जायगा। मेरे पास भी गिन्नी हो सकती है किसीको यकीन नहीं आयगा । गिन्नी भी छीन लेंगे और वेइज्जत भी करेंगे। इससे तो बेहतर यही है कि गिन्नी देकर इज्जत बचाली जाए।"
ग़रीबने यही किया ! जेबमेंसे गिन्नी चुपके से निकाल कर ऐसी जगह डाल दी कि खोजनेवालोंको मिल गई । गिन्नी देकर वह खुशी-खुशी अपने घर चला गया ! बात आई-गई हुई !
I
दीवाली पर दावात साफ़ की गई उसमें से एक गिन्नी निकली । गिन्नीको दावातमेंसे निकलते देख · लाला साहब बड़े क्रुद्ध हुए । “रुपयोंकी तो बिसात क्या, यहाँ गिन्नियाँ इधर-उधर रूली फिरती हैं, फिर भी रोकड़ बहीका जमा खर्च ठीक मिलता रहता है । हद्द होगई इस अन्धेरकी ।"
रोकड़िया परेशान कि यह हुआ तो क्या हुआ ? "इतनी सचाई और लगन से हिसाब रखनेपर भी यह लाँछन व्यर्थमें लग रहा है ।" सोचते-सोचते उसे उस रोजकी घटना याद आई। काफी देर अक्ल से कुश्ती लड़ने पर उसे खयाल आया कि " कहीं वह गिन्नी उचट कर दाबात में तो नहीं गिर गई थी, तब वह गिन्नी मिली कैसे ? शायद उस ग़रीबने अपने पास से डालकर खुजवादी हो ।" यह स्ख़याल आते ही वह स्वयं अपनी इस मूर्खता पर हँस पड़ा । भला उसके
पास गिन्नी कहाँसे आती ? उसके बड़ोंने भी कभी गिन्नियाँ देखी हैं जो वह देखता ? और शायद कहींसे झाँप भी ली हो तो, वह इतना बुद्ध कब है जो उसे हमें दे देता ?"
ܬ
जब खयाल कल्पनाने साथ नहीं दिया तो यह उलझा हुआ विचार लाला साहबके सामने पेश किया गया ! लाला साहब सब समझ गये । उनका रिश्तेदार ग़रीब तो जरूर है, पर विश्वस्त और बाइज्जत है, यह वह जानते थे । अतः लाला साहब उसके पास गये और वास्तविक घटना जाननी चाही तो काफी टालमटोलके बाद ठीक स्थिति समझादी ! लाला साहब गिन्नी वापिस करने लगे तो बोला
"भैया साहब, मैं अब इसे लेकर क्या करूँगा ? मेरी उस वक्त आबरू रह गई यही क्या कम है ? आबरू के लिये ऐसी हजारों गिन्नियाँ कुर्बान ! मेरे भाग्यमें गिन्नी होती तो यह घटना ही क्यों घटती ? मुझे सन्तोष है कि मेरी बात रह गई। रुपया तो हाथका मैल है फिर भी इकट्ठा हो सकता है, पर इज्जत - आबरू वह जानेपर फिर वापिस नहीं आती।”
२
कुछ इसी से मिलती-जुलती घटना इन पंक्तियोंके लेखकके साथ भी घटी । सन् १९२० में लाला नारायणदास सूरजभानकी दुकानपर कपड़ेका काम सीखता था । उनके यहाँ हुण्डियोंका लेन-देन भी होता था । दिनमें कई बार दलाल रुपये लाता और ले जाता। बार-बार उन चाँदीके रुपयों को कौन गिने ? बग़ैर गिने ही आते और चले जाते । उन रुपयों को मैं ही लेता और देता; कभी एक रुपयेकी भी घटीबढ़ी नहीं हुई । एक रोज असावधानीसे वह रुपये ऊपरसे नीचे गिर पड़े और खनखन करते हुए समूची दुकान में बिखर गये । बटोर कर गिने तो
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अनेकान्त
[वर्ष ९
पाँच रुपये कम ! मेरी जेबमें भी घर खर्चके लिये हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरते हैं। एक रोज उनका पत्र ५) रुपये चाँदीके पड़े थे ! मैं बड़ा चकराया, अब आया कि "जिस चारपाईपर मैं सोया था, अगर क्या होगा? न मिले तो जैसे बात बनेगी ? लाला वहाँ लाल रङ्गका मेरा अङ्गोछा मिले तो सम्हाल कर चुपचाप गद्दीपर बैठे थे, मैंने ही रुपये बखेरे थे और रख लेना।" अंगोछा तलाश किया गया, मगर नहीं मैं ही उन्हें गिन रहा था । जी बड़ा धुकड़-पुकड़ करने मिला। वे जाड़ोंके विस्तरोंमें सोचते थे और वह लगा। छोटी आयु और नया-नया इनके यहाँ बाया जाड़े खत्म होनेसे ऊपर टाँडपर रख दिये गये थे। हूँ । यद्यपि पूरा विश्वास करते हैं, परन्तु प्रामाणिकता- सिर्फ एक अङ्गोछेके लिये घरभरके इतने विस्तरे उठा की जाँचसे तो अभी नहीं निकला हूँ। कहीं इन्हें शक कर देखनेकी जरूरत नहीं समझी गई । और होगया तो, जेबमें पाँच रुपये हैं ही चोर बनते क्या अङ्गोछा नहीं मिलनेकी उन्हें सूचना भिजवादी गई ! देर लगेगी ? इसी ऊहापोहमें गिन्नी वाली घटना बात आई-गई हुई, वे हमेशाकी तरह हमारे यहाँ याद आई तो मन एकदम स्वस्थ्य होगया। रुपये अपने आते-जाते रहे। पाससे मिलानेका सङ्कल्प करके भी खोजने में लगा दीवालीपर मकानकी सफाई हुई और जाड़ोंके रहा और मेरे सौभाग्यसे पाँचों रुपये मिल भी गये! बिस्तरे धूपमें डाले गये तो उनमेंसे लाल अङ्गोछा ___ रुपये मिलनेपर मुझे प्रसन्नता होनेके बजाय धमसे नीचे गिरा। खोलकर देखा तो दस हजारके क्रोध हो या ! मैंने लालासे कहा-"देखिये पाँच नोट निकले। हम सब हैरान कि यह इतने नोट रुपये कम हो रहे थे और मेरी जेबमें भी पाँच ही कहाँसे आये, किसने यहाँ छिपाकर रखे। सोचतेथे! न मिलते तो मैं चोर बन गया था। आइन्दा सोचते खयाल आया कि हो न हो यह रुपये उनके हुण्डियोंके रुपये गिनकर लेने और देने चाहियें।" ही होंगे। इस अङ्गोछेमें रुपये थे इसीलिये तो उन्होंने लाला मेरे इस बचपने पर हँसे और बोले-"तुम व्यर्थ अङ्गोछा तलाश करके रखनेको लिखा था, सिर्फ अपने जीको हलका क्यों कर रहे हो तुमपर यकीन अङ्गोछेके लिये वे क्यों लिखते ? मैं उनके पास रुपये न होता तो हम यह हजारों रुपये तुम्हें कैसे बिन गिने लेकर गया और उलाहना देते हुए बोला-"चाचा दे दिया करते ? और इतने रुपये बार-बार गिनना जी! आप भी खूब हैं, इतनी बड़ी रकमका तो ज़िक्र कैसे मुमकिन हो सकता है ? आजतक बीच एक पैसे- भी नहीं किया, सिर्फ अङ्गोछा सम्हालकर रखलेनेको का फर्क न पड़ा तो आगे क्यों पड़ेगा, और पड़ेगा लिख दिया और हमारे मना लिख देनेपर भी आपने भी तो तुम्हें उसकी चिन्ता क्यों ?"
कभी इशारा तक नहीं किया। बताइये कोई नौकर ... किन्तु मैं इस घटनासे ऐसा शङ्कित होगया कि ले गया होता तो टाँडपर चूहे ही काट गये होते तो, रुपये गिनकर लेने-देनेकी बातपर अड़ा रहा। और हमारा तो हमेशाको काला मुंह बना रहता। इस नियमकी स्वीकृति न मिलनेसे मैं बारबार पुच
चचा हँसकर बोले-"भाई जितनी बात लिखने कारनेपर भा दूसर दिनस दूकानपर नहा गया की थी. वह तो लिख ही दी थी। मेरा खयाल था
कि तुम समझ जाओगे कि कोई न कोई बात जरूर उक्त घटनाओंका सन् ३४में गुड़गाँवके लाला है। वर्ना दो आनेके पुराने अङ्गोछेके लिये दो पैसेका बनारसीदास जैनके सामने ज़िक्र आया तो बोले- कार्ड कौन खराब करता! और रुपयोंका ज़िक्र जानअजी साहब, एक इसी तरहकी घटना हम आपबीती बूझकर इसलिये नहीं किया कि अगर कोई उठा आपको सुनाते हैं।
ले गया होगा तो भी तुम अपने पाससे दे जाओगे। ___ हमारे पिताजीके एक मित्र हमारे जिलेमें रहते हैं। अपनी इस असावधानीके लिये तुम्हें परेशानीमें वे जब मुकदमे या सामान खरीदनेको गुड़गाँव आते डालना मुझे इष्ट न था।" १३ फरवरी १९४८
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अनेकान्त [महात्मा भगवानदीनजी]
र्शन, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलङ्कार उनके हाथोंमें एकान्त ही के हथियार होते हैं । पर वे
आदि विद्याओंके सिद्धान्त गढ़े नहीं हथियार अनेकान्तके खोलमें होते हैं इसलिये जब मापी जाते-खोजे जाते हैं, इकट्ठे किये भरी सभामें वे खोलसे बाहर आते हैं तो समझदार
. जाते हैं। इकटे होनेपर विद्वान उन्हें तमाशा देखने वाले हँस पड़ते हैं। अनेकान्तका और अलग-अलग करते हैं और उनके नाम रख देते हैं। भी सीधा नाम 'झगड़ा-फैसल' हो सकता है। अब नाम प्रायः अटपटे होते हैं। विद्वानों तकको उनके जहाँ 'झगड़ा-फैसल' मौजूद हो वहाँ झगड़ा कैसा ? समझने में मुश्किल होती है औरोंका तो कहना अनेकान्ती (यानी तरह-तरहसे कहने समझाने वाला) ही क्या ?
लड़े-झगड़ेगा क्यों ? वह तो दूसरेकी बातको समझने __ इस सवालका जवाब कि अनेकान्त कबसे है ? की कोशिश करेगा, शङ्का करेगा, कम बोलेगा, सामने यही हो सकता है कि जबसे जगत तबसे अनेकान्त । वालेको ज्यादा बोलने देगा और जब समझ जावेगा अगर जगतको किसीने बनाया है तो वह अनेकान्ती तो मुसका देगा, शायद हँस भी दे और शायद रहा होगा । और अगर जगत अनादि है तो सामनेवालेको गले लगाकर यह भी बोल उठे 'श्राहा. अनेकान्त भी अनादि है। इस द्वन्द्वयुक्त जगतमें आपका यह मतलब है, ठीक ! ठीक !'
और इस उपजने-विनशनेवाली दुनियामें अनेकान्तके कोई हकीम नुसखेमें अगर "वर्गे रेहाँ" लिख दे बिना एक क्षण भी काम नहीं चल सकता । तरह- तो आप जरूर कुछ पैसे अत्तारके यहाँ ठगा आयेंगे। तरहकी दुनियामें मेल बनाये रखने के लिये अनेकान्त यों आप वगैरेहाँ (तुलसीके पत्ते) घरकी तुलसीसे अत्यन्त आवश्यक है।
तोड़कर रोज ही चबा लेते हैं। अनेकान्तसे रोज . अनेकान्त तर्कका एक सिद्धान्त है । तर्क इकटी काम लेनेवाले आपमेंसे कुछ अनेकान्तको न समझते की हई विद्या है। अनेकान्तको बोलचालमें 'तरह-तरह होगे इसलिये उसे थोड़ासा साफ कर देना से कहना' कह सकते हैं। हम जब मिल-जुलकर प्रेम सेठ हीरालाल जब यह कह रहे हैं कि आज प्यारसे रहते हैं तब अनेकान्तमें ही बातचीत करते दो अक्टूबर दोपहरके ठीक बारह बजे मेरा लड़का हैं । हँसी-मजाकमें कभी-कभी एकान्त भी चल पड़ता रामू बड़ा भी है और छोटा भी तब वे अनेकान्तकी है। पर टिक नहीं पाता। लड़ाई-झगड़ोंमें एकान्तसे भाषा बोल रहे हैं। पर कोई एकदम यह कह बैठे ही काम लिया जाता है फिर भी वे लड़ाई-झगड़े चाहे 'बिल्कुल गलत' तो ऐसा कहनेवाला या तो मूर्ख है, घरेलू हों, देशके या धर्मके । अनेकान्तको काममें तो जल्दबाज है नहीं तो एकान्ती तो है ही। और कोई सब सब धर्मवाले लाते हैं पर अलग विद्याका रूप यह पूछ बैठे 'कैसे ?' तो वह. मला आदमी है, इसे हिन्दुस्तानके एक धर्म विशेषने ही दे रखा है। समझदार भी है पर बुद्धिपर जोर नहीं देना चाहता,
और वही इसकी दुहाई जगह-बजगह देता रहता है। अनेकान्तसे उसे प्यार भी है। बात बिल्कुल सीधी है . दो अनेकान्ती लड़-झगड़ नहीं सकते । पर रामू असलमें उस दिन दस बरसका हुआ वह अपने लड़ना-झगड़ना मनुष्यका स्वभाव बना हुआ है और सात बरसके छोटे भाई श्यामूसे बड़ा और तेरह अनेकान्तका हथियार लेकर ही लड़ते हैं तो असलमें बरसके बड़े भाई धर्मूसे छोटा है। सेठ हीरालाल यह
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अनेकान्त
[वर्ष ९
भी कह बैठे कि मेरे लोटेका पानी इसी वक्त ठण्डा पल्ला लेकर रोने नहीं लग जाती है। वह अनेकान्ती और गरम है तो अनेकान्तकी सीमामें ही रहेंगे। है, वह समझती है कि बहूका क्या मतलब है ! पानी अगर सौ दरजे गरम है तो घड़ेके अड़सठ महावीर स्वामी जब गर्भ में आये उसी दिनसे दरजेके पानीसे गरम और चूल्हेपर चढ़े बर्तनके उनके भक्त उन्हें भगवान नामसे पुकारते हैं। ठीक है। एकसौ बीस दरजेके पानीसे ठण्डा है। आह पतीलीमें अनेकान्त ऐसा करनेकी इजाजत देता है। निर्वाण हाथ डालकर लोटेमें डालिये तो आपको इनकी तक और उसके बादसे आजतक वे भगवान ही हैं। बातकी सचाईका पता लग जायगा । यह हुआ हँसता बचपनमें वे रोटी खाते थे, मुनि होकर आहार भी खेलता घरेलू अनेकान्त ।
लेते थे। अब कोई यह कहे कि भगवान महावीर रोटी अब लीजिये धमेका भारी भरकम अनेकान्त । खाते थे, आहार लेते थे तो इसमें भल कहाँ है ?
एक हिन्दू पीली मिट्टीके एक ढेलेमें कलाया लपेट अनेकांतीको इसे माननेमें कोई कठिनाई नहीं हो कर उसमें गणेशको ला बैठाता है। एक जैन उससे सकती। वही भक्त कुन्दकुन्द स्वामीके पास रहकर भी बढ़कर धानसे निकले एक चावलमें भगवानको यह कहने लगे कि भगवानने कभी खाना खाया ही विराजमान कर देता है। पर वही हिन्दू, कोयले, नहीं तो इसमें भी भूल कहाँ ? अनेकान्ती जरा बुद्धिखड़िया या गेरूके टुकड़ेमें वैसा करनेसे हिचक ही पर जोर देकर इसे समझ लेगा। कुन्दकुन्द स्वामी नहीं डरता है और वही जैन एक खण्डित मूर्ति या देहको भगवान नहीं मानते । जीवको भगवान एक कपड़ा पहने सुन्दर मूर्ति में भगवानकी स्थापना मानते हैं। देहको भगवान मानना निश्चयनय या करने में इतना भयभीत होता है मानों कोई बड़ा पाप सत्यनयकी शानके खिलाफ है। जीव न खाता है, न कर रहा हो। और वही हिन्दू जबलपुरके धुंआधारमें पीता है न करता है, न मरता है, न जन्म लेता है। जाकर जिसतिस पत्थरको गणेशजी मान लेता है साँप पवनभक्षी कहलाता है। दो द्रवायें मिलकर वही जैन सोनागिरिपर चढ़कर अनगढ़ मूर्तियोंको पानी बन जाती हैं यह बात स्कूलके लड़के भी जानते भगवानकी स्थापना मानकर उनके सामने माथा टेक हैं। महावीर स्वामीका देह निर्वाणसे एक समय पहले देता है । अतदाकार स्थापनाकी बात दोनों ही तक यदि सांस लेता रहा, लेता रहो। महावीर स्वामीरिवाजकी भाङ्ग पीकर भूल जाते हैं । यह घरमें के निर्लेप जीवको इससे क्या। महावीर भगवान अनेकान्ती रहते हुए रिवाजमें कटर एकान्ती बन जाते खाना खाते थे और नहीं भी खाते थे। यह इतना ही हैं। वे करें क्या? असल में धर्ममें अनेकान्तीने अभी ठीक कथन है जितना सेठ हीरालालका यह कह तक जगह ही नहीं पाई।
बैठना कि मेरा बीमार लड़का रामू पानी पीता भी है रेलमें बैठा एक मुसाफिर यदि यह चिल्ला उठे और नहीं पीता क्योंकि वह पीकर कय कर देता है, . 'जयपुर आगया' तो कोई दूसरा मुसाफिर उसके उसको हज्म नहीं होता। अनेकान्तमें वही तो गुण पीछे डण्डा लेकर खड़ा नहीं होता और न उससे है कि वह झगड़ेका फैसला चुटकी बजाते कर देता यही पूछता है कि जयपुर कैसे आगया, क्या जयपुर है। जभी तो मैंने उसका नाम झगड़ा फैसल रखा है। चला आता है जी तू आगया कहता है ? और न यह अनेकान्त घर-घरमें है, मन-मनमें है । मन्दिरकहकर उसे दुरुस्त करता है कि हम 'जयपुर आगये' मन्दिरमें नहीं है, धर्म-धर्ममें नहीं है, राज-राजमें ऐसा कह । कोई बहू यदि अपने बरसोंसे घरसे नहीं है। वहाँ फैलानेकी ज़रूरत है। पढ़ने-पढ़ानेकी भागे निखट्ट पतिके सम्बन्धमें अपनी सासके सामने चीज नहीं, लिखने-लिखानेसे कुछ होना आना नहीं। यह कह बैठे कि मैं तो सुहागिन होते विधवा हूँ, या अनेकान्तका पौदा अभ्यासका जल चाहता, सहिष्णुता मेरा पति जीता मरा हुआ है तो सास यह सुनकर के खादकी उसे जरूरत है, सर्वधर्म समभावके
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गौरव गाथा
पराक्रमी जन
पथिक ! इस बाटिकाकी बर्बादीका कारण इन उल्लुओं और कौओंसे न पूछकर हमसे सुन । ये तु भ्रम में डाल देंगे। हमारे ही बड़ोंने इसे अपने रक्तसे सींचा था । उन्हींकी हड्डियोंकी खातसे यह सर सब्ज हुआ था। वे चल बसे, हम चलने वाले हैं, पर इसके एक-एक अणुपर हमारा अमिट बलिदान अति है ।
जो लोग कहते हैं - 'भारतके आदि निवासी मैदान में उसकी पौद लगनी चाहिये, सार्व-प्रेमकी हवा उसको पिलाई जानी चाहिये, विचार स्वातन्त्र्यकी धूप उसे खिलानेकी जरूरत है, वह वट वृक्षकी तरह अमर है, बढ़ेगा, फैलेगा, फूलेगा, फलेगा ।
।
अगर कोई धर्म प्रगति-शील है, उसके प्रन्थों में नित्य कुछ घटाया बढ़ाया जाता है तो समझना चाहिये कि अनेकान्तका सिद्धान्त उस धर्ममें जीता जागता है यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिये कि उस धर्मके . पण्डितों और अनुयायियोंकी जिह्वापर है काममें नहीं है। विज्ञानमें, कानून में, साहित्य में, कलामें, सङ्गीत इत्यादि में वह जीवित है। देशमें, राजमें, धर्ममें वह मर चुका है । अनेकान्त व्यावहारिक धर्मका प्राण है और समुदायकी शान्तिका ईश्वर है । अनेकता ने कान्तके बिना टकरायेगी, टूटे-फूटेगी मरेगी नहीं । और अनेकता अनेकान्तके साथ, मिलेगी - जुलेगी, मीठे स्वर निकालेगी, आनन्दके बाजे बजायेगी, सुख देगी ।
अनेकान्तका फल है स्वसमय, आत्माकी मिर्लेप अवस्थाका ज्ञान, बेखुदीका इल्म, कर्मयोग, अनासक्तियोग, जीवन मुक्त होजाना और परमात्मा [ वीरसे]
बन जाना ।
और थे, हम एरियन (आर्य) यहाँ दूसरी जगह से आकर बसे', वे सचमुच दूसरी जगहसे प्राये होंगे । मगर हम यहाँके क़दीमी बाशिन्दे हैं । क़दीमी बाशिन्दे क्या, हम यहाँके मालिक हैं । यहाँके कणकरणपर हमारे आधिपत्यकी मुहर लगी हुई है ।
भारतवर्ष हमारे प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्तीके नामसे प्रसिद्ध है । उनकी अमर कीर्तिका सजीव स्मारक है । उससे पहले हमारा भारत जम्बूद्वीप आदि किन नामोंसे प्रसिद्ध था, इस गहराई में उतरनेकी यहाँ आवश्यकता नहीं । पहले से आजतक भारतकी धान और मानपर मिटने हमारा देश जबसे 'भारत' हुआ, उससे भी बहुत यद्यपि सबकी सब चिथड़ोंके बने काग़जपर लिखी की जो शानदार कुर्बानियाँ जैन-वीरोंने की हैं, वे हुई नहीं हैं, फिर भी इतिहासके अधूरे पृष्ठों और पृथ्वी के गर्भमें जो छुपी पड़ी हैं, आँख वाले उन्हें देख सकते हैं ।
सबसे उज्ज्वल पृष्ठ है, उसे न भी खोला जाय तो भी जिसे पौराणिक युग कहा जाता है, जो जैनोंका ऐतिहासिक युग के अवतरण जैनोंकी गौरव गरिमाके चारण बने हुए हैं ।
३२५ ई० पूर्व यूनानसे तूफ़ानकी तरह उठकर सिकन्दर महान् पर्वतोंको रौंदता, नदियोंको फलाँगता देशके- देश कुचलता हुआ भूखे शेरकी भाँति जब भारतपर टूटा, तबका चित्र काश लिया गया होता तो आज के युवक उसे देखकर दहशत से चीख उठते। बाज़ जैसे चिड़ियोंपर, सिंह जैसे हरिण समूहपर और नाग जैसे चूहोंपर झपटता है, उससे भी अधिक उसका भयानक आक्रमण था । करारी बूंदोंकी मार और सूर्यकी प्रचण्ड धूपको पर्वत जिस अनमने भाव
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अनेकान्त
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से सहन करता है। आँधीके वेगका वृक्ष जैसे सर दलित होते देखता ? जबकि उसकी धमनियोंमें रक्त झुकाकर बर्बस स्वागत करता है। उसी तरह भारतने और बाहुओंमें बल था ! सिकन्दरके आक्रमणपर यह सब किया !
उसने आगे बढ़कर सैल्युकसको रोका, तनिक जानपर खेल जानेका जिनका स्वभाव था, वह भारतके पानीका जौहर दिखलाया । जो सैल्यकस सिकन्दरकी युद्धाग्निमें पतङ्गेकी भाँति मर मिटे, कुछ भारत-विजय करने और सम्राट बनने आया था, वह गायकी तरह डकराये, कुछ नीची गर्दन किये भेड़ोंकी मैदानसे भाग खड़ा हुआ। भारत-विजयका स्वप्न तो मौत मरे, कुछ हाय कर के रह गये, कुछ विधाताकी भङ्ग हुआ ही ब्याजमें अपनी कन्या चन्द्रगुप्तसे लीला समझ चुप होगये । पर जिनके रक्तमें उबाल ब्याहनी पड़ी और काबुल, कान्धार, बिलोचिस्तान था, वे कीड़े-मकोड़े, भेड़, बकरियोंकी तरह कैसे जैसे प्रदेश भी पराजय स्वरूप देने पड़े। भारतको अपमानित जीवन व्यतीत करते?
दासताके पाशसे पहले-पहल मुक्तकर जैन-कुलोत्पन्न । उन्हींमें चन्द्रगुप्त था, पर निरा अबोध बालक। चन्द्रगुप्तने जैनोंकी गौरव-गाथाकी अमिट छाप . मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे सामर्थ्यवान सेना-संग्रह लगादी, जिसे आज भी पराधीन भारतीय बड़े गौरव किये बगैर रावणसे भिड़नेको प्रस्तुत नहीं हुए, तब के साथ सुनते और कहते हैं। बालक चन्द्रगुप्त उस सिकन्दरसे कैसे टकराता जो पहाड़की तरह कठोर और दैत्यकी तरह रक्त- . मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त जैनने भारतको दासताके लोलुप था
पापसे मुक्त करके एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करके पर चन्द्रगुप्तमें साहस था, उसमें धैये था और और अभूतपूर्व शासन-व्यवस्थाकी नींव डालकर जो चट्टानकी तरह स्थिर निश्चय था । 'भरत'का 'भारत' शानदार उदाहरण उपस्थित किया है, उसपर हजारों वह पददलित होते कैसे देख सकता था? उसने प्रन्थ लिखे जानेपर भी लेखकोंको अभी सन्तोष लोहेसे लोहा काटनेका निश्चय किया। सिकन्दरके नहीं है। पेटमें घुसकर उसने उसकी अन्तरङ्ग शक्ति और चन्द्रगप्तके बाद बिन्दुसार, अशोक, सम्प्रति कमजोरीको भाँपा! और चाणक्यको लेकर नवीन
आदि मौर्य सम्राटोंने उत्तरोत्तर भारतमें शासनका पद्धतिसे सैन्य-संग्रह प्रारम्भ कर दिया।
सुव्यवस्थाकी ! यह मौर्यवंश जैनधर्मानुयायी थ । भाग्यकी बात; महान् सिकन्दरकी किस्मतमें केवल अशोकने और उसके पुत्रने व्यक्तिगत बौद्ध पराजयका कलङ्क नहीं बदा था । वह सैनिकोंके धर्म ग्रहण कर लिया था वैसे मौर्य राज्य घराना जैन विद्रोह करनेपर पञ्जाबसे लौट गया और मार्गमें मर धर्मानुयायी था। अशोकके पौत्र सम्प्रतिने अपने गया । उसके सेनापति सेल्युकसके हृदयमें भारत शासनकालमें जैनधर्मके प्रचारका बहुत अधिक विजय करनेकी लालसा थी। सिकन्दरके आँख बन्द उद्योग किया। यहाँ तक कि काबुल, कान्धार और करते ही उसने वह विश्व-विजयी सेना फिर भारतकी बिलोचिस्तान जैसे बर्बर प्रदेशोंमें भी धर्मकी
ओर फेरी और कामदेवकी तरह दुन्दुभि बजाता प्रभावना बढ़ानेके लिये जैनसाधुओंके संघ भिजवाए। हुआ भारतपर छागया।
___मौर्य राजाओंके निरन्तर प्रयत्न करने पर भारत चन्द्रगुप्तके क्रोधकी सीमा न रही । भारतके जब सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था । घर-घरमें सुखी जीवनमें वह कैसे अशान्ति देख ले, वह कैसे मङ्गलाचार होरहे थे । उपद्रवों और सैनिक-प्रदर्शनोंके अपने नेत्रोंसे धार्मिक क्षेत्रोंपर होते उत्पात देखे और बजाए धार्मिक महोत्सव होते थे, रथ-यात्राएँ कैसे कानोंसे अबलाओंका करुण-क्रन्दन सुने ? वह निकलती थीं। भारतीय स्वच्छन्द श्वास लेते थे.तभी अपने पूर्वजोंके भारतको क्योंकर विदेशियोंसे पद- एक दुर्घटना हुई ।
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किरण ३]
पराक्रमी जैन
जैनधर्मका यह प्रचार, शान्तिका यह साम्राज्य की बागडोर छीन ली। खारवेलने अपने शासनकालजैनधर्मद्वेषी मौर्य सेनापति पुष्यमित्रसे न देखा गया में जो जो लोकोत्तर और वीरता-धीरताके कार्य किये, उसने विश्वासघात करके धोखेसे मौर्य सम्राट् इसकी साक्षी हाथी गुफामें अङ्कित शिलालेख आज वृहद्रथको मार डाला और स्वयं सम्राट् बन बैठा'। भी दे रहा है। ___इस पुष्यमित्रने अपने शासनकालमें बौद्धों और इस प्रकार दोबार भारतको विदेशियोंकी अधीजैनोंपर वह-वह कहर ढाये, अत्याचार किये, जो नतासे जैनसम्राटोंने बचाया । जब जैन साम्राज्य नष्ट महमूद गजनवी, अलाउद्दीन, तैमूर, औरङ्गजेब, कर दिये गये और यहाँ अनेक दूषित वातावरण नादिरशाहने भी न किये होंगे?
उत्पन्न होगये, तब भारत मुसलमानों द्वारा विजित
कर लिया गया । इस मुस्लिम कालीन भारतमें भी . इसी समय (ई० स० १८४) यवनराज दिमेत्रने
मनन राजपूतानेमें, कर्माशाह, भामाशाह, दयालशाह, आशाभारतपर आक्रमण कर दिया, वह चाहता था कि शाह, वस्तपालः तेजपाल, विमलशाह, भीमसी भारतपर वह स्वयं शासन करे । भारतको पराधीनता कोठारी आदिने जो जो वीरता-धीरताके कार्य किये के पाशमें बाँधनेका यह दूसरा प्रयत्न था। किन्तु हैं, वे राजपूतानेके कण-कणपर अङ्कित हैं। इन्हीं दिनों कलिङ्गका राजा खारवेल जो कि जैन था, द्वितीयाके चन्द्रमाके समान बढ रहा था। उसने
१ इस वीर पराक्रमी सम्राटका जीवन लेखककी "आर्यदिमेत्र और पुष्यमित्र दोनोंके हाथसे भारतके शासन
कालीन भारत” पुस्तकमें देखिये।
२ भारत परतन्त्र क्यों हुआ ? इसका विस्तार पूर्वक वर्णन १ मौर्य राजाओंका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये लेखक लेखककी "आर्यकालीन भारत" पुस्तकमें मिलेगा। .. की “मौर्यसाम्राज्यके जैनवीर" १७३ पृष्ठकी पुस्तक ३ इन सब शूरवीरोंका परिचय राजपूतानेके "जैन वीर" ..देखनी चाहिये।
पुस्तकमें देखिये ।
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तत्त्व-चर्चा
शंका-समाधान
१३ शङ्का – दिगम्बर- परम्परा और समस्त दिगम्बर - साहित्य में भगवान महावीरके बालब्रह्मचारी एवं अविवाहित होनेकी जो मान्यता पाई जाती है वह क्या श्वेताम्बर - परम्परा और श्वेताम्बर - साहित्य में उपलब्ध होती है ?
१३ समाधान - हाँ, उपलब्ध होती है । विक्रम की छठी शताब्दी के विद्वान् और बहु सम्मानास्पद एवं विभिन्न नियुक्तियों के कर्ता आचार्य भद्रबाहुने अपनी प्रधान और महत्वपूर्ण रचना 'आवश्यक निर्युक्ति' में भगवान महावीरकी उन चार तीर्थंकरोंके साथ परिगणना की है जिन्होंने न राज्य किया और न विवाह किया तथा जो कुमारावस्था में ही प्रवृजित (दीक्षित) होगये और जिससे यह जाना जाता है कि श्वेताम्बर परम्परामें भी भद्रबाहु जैसे महान् आचार्य और उनके अनुयायी भगवान महाबीरको बाल. ब्रह्मचारी एवं अविवाहित स्वीकार करते थे । यथा
वीरं नेिमिं पासं मल्लिं च वासुपूज्जं च ॥ एए मुत्तण जिणे श्रवसेसा श्रासि रायाणो || रायकुलेसु वि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तियकुलेसु । न य इत्थाभिसेया कुमारवासंमि पव्वइया || - आवश्यक० नि०गा० २२१, २२२ अर्थात् वीर, अरिष्टनेमि, पार्श्व, मल्लि और वासुपूज्य इन पाँच जिनों (तीर्थकरों ) को छोड़कर शेष जिन राजा हुए। तथा उक्त पाँचों जिन विशुद्ध क्षत्रिय राजकुलों में उत्पन्न होकर भी स्त्री-सम्बन्धसे रहित रहे और कुमारावस्थामें ही इन्होंने दीक्षा ली ।
आचार्य भद्रबाहु का यह सम्मुल्लेख दोनों परम्प: राके मधुर सम्मेलनमें एक अन्यतम सहायक हो सकता है ।
१४ शङ्का - पंच णमोकार मंत्रमें जो 'मो लोए सव्व साहूणं' अन्तिम वाक्य है उसमें 'लोए' और 'सव्व' इन दो पदोंको जो पहलेके चार वाक्यों
-
में भी नहीं हैं, क्यों दिया गया है ? यदि उनका देना वहाँ सार्थक है तो पहले अन्य चार वाक्यों में भी प्रत्येकमें उन्हें देना चाहिए था ?
१४ समाधान - 'लोए' और 'सव्व' ये दोनों पद अन्त दीपक हैं, वे अन्तिम वाक्यमें सम्बन्धित होते हुए पूर्वके अन्य चार वाक्योंमें भी सम्बन्धित होते हैं। मतलब यह कि जिन दीपक पदको एक जगह से दूसरी जगह भी जोड़ा जाता है वे तीन तरह ' के होते हैं-१ आदि दीपक पद, २ मध्य दीपक पद और ३ अन्त दीपक पद । प्रकृत में 'लोए' और 'सव' पद अंतिम वाक्यमें आनेसे अन्त दीपक पद हैं अतः वे पहले वाक्यों में भी जुड़ते हैं और इसलिए पूरे नमस्कार मंत्र का अर्थ निम्न प्रकार समझना चाहिए१ लोक में (त्रिकालगत) सर्व अरिहन्तों को नमस्कार हो । २ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व सिद्धोंको नमस्कार हो । ३ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व आचार्योंको नमस्कार हो । ४ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो ५ लोक में (त्रिकालवर्ती) सर्व साधुओं को नमस्का रहो ।
यही वीरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकाकी पहली पुस्तक ( पृ० ५२) में कहा है- .
'सर्व नमस्कारेष्वत्र तनसर्वलोक शब्दावन्त दीपकत्वा दध्यासकल क्षेत्रगतत्रिकालगोचरार्हदादि देवता
हर्तव्यौ प्रणमनार्थम् ।'
१५ शङ्का - परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला आदि जैनन्यायके ग्रन्थोंमें प्रत्यभिज्ञान प्रमाणके, जो परोक्ष प्रमाणका एक भेद है, दोसे अधिक भेद बतलाये गये हैं; परन्तु अष्टसहस्री ( पृ० २७९) में विद्यानन्द स्वामीने उसके दो ही भेद गिनाये हैं। क्या यह श्राचार्यमतभेद है अथवा क्या है ?
१५ समाधान - हाँ,
यह आचार्यमतभेद है । विद्यानन्दने न केवल अष्टसहस्री में ही प्रत्यभिज्ञानके दो भेदों को गिनाया है अपितु लोक
आचार्य
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किरण ३]
शङ्का-समाधान
वार्तिक और प्रमाणपरीक्षामें भी उसके दो ही भेद करता । केवल प्रन्थकारोंके विवक्षाभेद या दृष्टिभेदको स्पष्टतः बतलाये हैं । यथा
प्रकट करता है। (क) 'तत् द्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चितम्' १७ शङ्का-अतिक्रम और व्यतिक्रम, अतिचार
_ -त० श्लो० पृ० १६०। और अनाचार इनमें परस्पर क्या अन्तर है ? (ख) 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदमित्येकत्व- १७ समाधान-मानसिक शुद्धिकी हानि होना निबन्धनं तादृशमेवेदमिति सादृश्यनिबन्धनं च ।' अतिक्रम है और मनमें विषयाभिलाषा होना व्यति
प्र०प० पृ०६६। क्रम है। तथा इन्द्रियोंमें आलस्य (असावधानी)का अतः यह एक आचार्यमान्यताभेद ही समझना
होना अतिचार है और लिये व्रतको तोड़ देना चाहिए। १६ शङ्का-जैसा प्रत्यभिज्ञानको लेकर आपने
अनाचार है। यथा
अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियंतिक्रमो यो विषयाभिलाषः । जैनन्यायमें आचार्यों का मान्यताभेद बतलाया है वैसा और भी किसी विषयको लेकर उक्त मान्यताभेद
तथातिचारः करणालसत्वं भंगो ह्यनाचार इह बतानाम् ।।
-षट प्रा० टी० पृ० २६८ (उद्धृत)। पाया जाता है? १६ समाधान-हाँ पाया जाता है
१८ शङ्का-नरकगतिमें सातवीं पृथिवीमें क्या (क) प्राचार्य माणिक्यनन्दि और उनके सम्यक्त्व उत्पन्न हो सकता है ? व्याख्याकार 'आचार्य प्रभाचन्द्र तथा अनन्तवीर्य १८ समाधान-हाँ, सातवीं पृथिवीमें भी सम्य
आदिने हेत्वाभासके चार भेद बतलाये हैं-असिद्ध, क्त्व उत्पन्न हो सकता है। सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थविरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिश्चित्कर। यथा- 'हेत्वा- वार्तिक श्रादि आर्षग्रन्थों में नरकगतिमें सम्यक्त्वकी भासा प्रसिद्धविरुद्धानकान्तिकाऽकिश्चित्कराः'-परी- उत्पत्तिके कारणोंको निम्न प्रकार बतलाया है:क्षा ६-२१ । पर वादिराजसूरिने उसके तीन ही 'नारकाणां प्राकचतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधन केषांचिद भेद गिनाये हैं। यथा
जातिस्मरणं । केषांचिद् धर्मश्रवणं । केषांचिद् वेदनाभि'तत्र त्रिविधो हेत्वाभासः असिद्धानकान्तिकविरुद्ध- भषः । चतुर्थीमारम्य पा सप्तम्यां नारकाणं जातिस्मरणं विकल्पात् ।' -प्रमाणनिर्णय पृ० ५०।
वेदनाभिभवश्च ।'
-सर्वार्थसि० पृ० १२ । . (ख) इसी तरह जहाँ अन्य अनेक श्राचार्यों तत्रोपरि तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभिः कारणैः ने परोक्षप्रमाणके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान सम्यक्त्वमुपजनयन्ति-केचिजाति स्मृत्वा, केचिद्धम श्रुत्वा, और आगम ये पाँच भेद प्रतिपादन किये हैं वहाँ केचिद्वदनाभिभूताः । अधस्ताच्चतसृषु पृथिवीषु द्वाभ्यां आचार्य वादिराजने परोक्षके दो ही भेद बतलाये हैं कारणाभ्यां-केचिजाति स्मृत्वा, अपरे वेदनाभिभूताः।' और उन दो भेदोंमें अन्य प्रसिद्ध पाँच भेदोंका
-तत्त्वार्थवा पृ०७२। स्वरुचि अनुसार अन्तर्भाव किया है । यथा- ___ इन उद्धरणोंमें बतलाया गया है कि नरकगतिमें
'तच्च (परोक्ष) द्विविधमनुमानमागमश्चेति । अनुमान- पहलेकी तीन पृथिवियोंमें तीन कारणोंसे सम्यग्दर्शन मपि द्विविधं गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमानं होता है-जाति स्मरण, धर्मश्रवण और वेदनाभिभव त्रिविधं स्मरणं प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति । तस्य चानुमानत्वं यथा से । नीचेकी चार पृथिवियोंमें धर्मश्रवणको छोड़कर पूर्वमुत्तरोत्तरहेतुतयाऽनुमाननिबन्धनत्वात् ।' प्र.नि.प्र.३३ शेष दो ।
इसी तरहके आचार्यों के मान्यताभेद और भी उत्पन्न होता है । अतएव सातवीं पृथिवीमें दो मिल सकते हैं । कहनेका मतलब यह कि जैनसिद्धान्त कारणोंका सद्भाव रहनेसे वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न हो की तरह जैनन्यायमें भी प्राचार्योंका मतभेद उपलब्ध जाता है । परन्तु निकलते समय वह छूट जाता है। होता है और यह मतभेद कोई विरोध उत्पन्न नहीं ३-४-४८]
-दरबारीलाल कोठिया
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Career areaftक रूप
( प्रवक्ता पूज्य श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी, न्यायाचार्य )
[समाजका शायद कोई ही ऐसा व्यक्ति हो जो पूज्य वर्गीजी और उनके महान् व्यक्तित्वसे परिचित न हो। श्राप उच्चकोटिके विद्वान् होनेके अतिरिक्त सन्त, वक्ता, नेता, चारित्रवान् और प्रकृतिभद्र सहृदय लोकोत्तर महापुरुष हैं। महापुरुषोंके जो लक्षण हैं वे सब आपमें विद्यमान हैं। और इसलिये जनता आपको बाबाजी एवं महात्माजी कहती है । आपकी अमृतवाणीमें वह स्वाभाविकता, सरलता और मधुरता रहती है कि जिसका पान करनेके लिये जनता बड़ी ही उत्कण्ठित रहती है और पान करके अपनेको कृतकृत्य मानती है । आज 'अनेकान्त' के पाठकोंके लिये उनके एक महत्व के अनुभवपूर्ण प्रवचनको, जिसे उन्होंने गत भादोंके पर्युषण पर्व में त्याग - धर्मके दिन दिया था, और जो अभी कहीं प्रकाशित भी नहीं हुआ, यहाँ दिया जाता है ।
इम पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य सागरके अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होंने वर्गीजीके पर्या पर्व में हुए प्रवचनोंके समस्त सङ्कलनको, जिसे उन्होंने स्वयं किया है, 'अनेकान्त' के लिये बड़ी उदारता से दिया । प्रस्तुत प्रवचन उन्हीं प्रवचनोंमेंसे एक है । शेष प्रवचन भी श्रागे दिये जायेंगे । - कोठिया ]
त्यागका दिन है। त्याग सबको करना चाहिये । अभी एक स्त्रीने अपने बड़े जोरसे चाँटा दिया। चाँटा देकर उसने अपनी कषायका त्याग कर लिया। आप लोग भी अपनीअपनी कषायका त्याग कर यदि शान्त होजायें तो अच्छा है ।
त्यागका अर्थ छोड़ना होता है पर छोड़ा क्या जाय ? जो चीज़ आपकी नहीं है उसे छोड़ दिया जाय । अपने आत्माके सिवाय अन्य सब पदार्थों में ममत्व-भावको छोड़ दो, यही त्याग धर्म है ।
आज संसारकी बड़ी विकट परिस्थिति है । जिन्होंने अपनी सम्पत्ति छोड़ी, स्त्री छोड़ी, बच्चे छोड़े और एक केवल चार रोटियोंके लिये शरणार्थी बने इधर-उधर भटक रहे हैं। उन लोगोंपर भी दुष्ट प्रहार कर रहे हैं। कैसा हृदय उनका है ? कैसा धर्म उनका है ? इस समय तो प्रत्येक मनुष्यको स्वयं भूखा और नङ्गा रहकर भी दूसरोंकी सेवा करनी
चाहिये | आपके नगर में यदि शरणार्थी आवें तो प्राणपनसे उनका उद्धार करो। मानवमात्र की सेवा करना प्रत्येक प्राणीका कर्त्तव्य है । आप लोग अच्छे अच्छे वस्त्र पहिनें, अच्छा-अच्छा भोजन करें पर तुम्हारा पड़ौसी नङ्गा और भूखा फिरे तो तुम्हारे धनको एकबार नहीं सौबार धिक्कार है । अब समय ऐसा है कि सुवर्णके जेवर और जरीके कपड़े पहनना बन्द कर देना चाहिये और सादी वेशभूषा तथा सादा खानपान रखकर दुःखी प्राणियोंका उपकार करना चाहिये ।
एकबार ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की माँ बनारस आई। ईश्वरचन्द्र विद्यासागरको कौन नहीं जानता ? कलकत्ता विश्वविद्यालयका प्रिंसिपल, हरएक ऊँचेसे ऊँचे ऑफ़िसरसे उनकी पहिचान - मेलजोल । एक बार किसी ऊँचे ऑफ़िसर से उनका मनमुटाव होगया। लोगोंने कहा कि वह उच्च अधिकारी उससे विरोध करना ठीक नहीं; पर ईश्वरचन्द्रने कड़ा जवाब दिया कि मैं अपने स्वाभिमानको नष्ट
अतः
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किरण ३]
त्यागका वास्तविक रूप
करके किसीको प्रसन्न नहीं रखना चाहता। दो दिनमें देवरानमें लम्बू सिंघई था । अपने प्रान्तका एक दिन तो खाना मिलेगा, दो जूनमें एक जून तो भला आदमी था। पानी नहीं बरसा जिससे लोग मिलेगा, अच्छे कपड़े न सही, सादा खहर तो दुखी होगये । गाँवके लोगोंने विचार किया कि इसके मिलेगा; पर मैं स्वाभिमानको नष्ट नहीं कर सकता। पास खूब अनाज रखा है । लूट लिया जाय । जब हाँ, तो उनकी माँ बनारस आई। अच्छे-अच्छे श्रादमी लम्पूको पता चला तब उसने अपना सब अनाज उनसे मिलने गये। उनके शरीरपर एक सफेद धोती बाहर निकलवाया और लोगोंको बुलाकर कहा कि थी। हाथमें एक कड़ा भी नहीं था, लोगोंने कहा- लूटनेकी क्या आवश्यकता है। तुम लोग ले जाओ माँ जी ! आप इतने बड़े पुरुषकी माँ होकर भी इस बाँट लो । उसने, किसने कितना लिया, यह लिखा प्रकार रहती हैं। उन्होंने जवाब दिया-क्या हाथोंकी भी नहीं। उन्हीं लोगोंमेंसे किसीने अपना कर्त्तव्य शोभा सोना और चाँदीके द्वारा ही होती है; नहीं, समझकर लिख लिया । अनाजके सिवाय उसने इन होथोंकी शोभा गरीबकी सेवासे होती है। हज़ार दो हजार नकद भी बाँट दिये । भाग्यवश भूखेको रोटी बनाकर खिलानेसे होती है । लोग पानी बरस गया। लोगोंका सङ्कट दूर होगया । सबने उनका उत्तर सुनकर चुप रह गये । वास्तविक बात सवाया लाकर बिना माँगे दे दिया। यदि आप दूसरे यही है। पर हम लोग अपना कर्त्तव्य भूल गये। के दुःखमें सहानुभूति दिखलाएँ तो वह सदाके लिये हम केवल अपने आपको सुखी देखना चाहते हैं। आपका कृतज्ञ होजाय-वह आपके विरुद्ध कभी दूसरा चाहे भाड़में जाय, पर ऐसा करनेका विधान बोल न सके । .. जैनधर्ममें नहीं है। जैनधर्म महान् उपकारी धर्म है। मड़ावरे की बात है। पातरे सिंघई वहाँ रहते वह एक-एक कीड़ी तककी रक्षा करनेका उपदेश देता थे। उस जमानेके वे लखपती थे। बड़े दयालु थे। है फिर मनुष्योंकी उपेक्षा कैसे कर देगा?
वह जमाना अच्छा था। खूब सस्ता था। एक हैदराबादकी बात है। वहाँ एकबार अकाल पड़ा। का इतना अधिक गल्ला आता था कि आदमी उठा लोग दुःखी होने लगे । मन्त्री चण्डूप्रसादको जब इस नहीं सकता था। उसी समयकी यह कहावत है कि बातका पता लगा कि हमारी प्रजा दुःखी होरही है। एक बैल दो भइया पीछे लगी लुगैया तोई न पूरो उसने खजाना खलवा दिया और सब लोगोंको होय रुपैया' । यदि कोई गरीब आदमी उनके पास यथावश्यक बाँट दिया । ईर्ष्यालु लोगोंने राजासे पूंजीके लिये आता तो उसे वे बडे प्रेमसे ५०) पचास शिकायत की कि इसने सब खजाना लुटवा दिया, रुपयेकी पूंजी दे देते थे। उस समय पचास रुपयेकी बिना खजानेके राज्यका कार्य कैसे चलेगा? राजाने पूंजीसे घोड़ा भर कपड़ा आजाता था। आज तो चार भी उसे अपराधी मान लिया। तोपके सामने उसे जोड़ा भी नहीं आवेंगे । और ५०) रुपये उसके खड़ा किया गया तीन बार तोप दागी गई पर एक परिवारके खानेके लिये अलगसे दे देते थे । उस बार भी नहीं चली। सब उसके पुण्य प्रभावको देख- समय ५०)में एक परिवार साल भर अच्छी तरह खा कर दङ्ग रह गये। कुछ समय बाद पानी बरस गया। लेता था । पर आज एक आदमीका एक माहका परा लोगोंका कष्ट दूर होगया । खजानेसे जो जितना लेगया खचे भी ५०)में नहीं होता। वह आदमी साल भर था सबने उससे दूना-दूना लाकर खजाना भर दिया। बाद जब रुपये वापिस करने जाता और ब्याजके जब खजाना.भर चुका तब मन्त्री अपना पद छोड़कर १२) बारह रुपये बतलाता तो वे ब्याज लेनेसे इन्कार साधु होगया। यह तो रही तवारीखकी बात । मैं कर देते और जब कोई अधिक आग्रह करता तो आपको आपके प्रान्तकी अभी चार साल पहलेकी १ यह ओरछा रियासतका एक गांव है।-संपादक । बात सुनाता हूँ।
२ झांसी जिलेका एक कस्वा ।
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१५२
१) ले लेते और उसके बदले वायना (मिठाई) आदिके रूपमें उसे दसों रुपये का सामान दे देते थे । सहधर्मियोंसे वात्सल्य रखने वाले ऐसे पुरुष पहले होते थे। पर आज मनुष्य तो चाहते हैं हमारा घर ही धनसे भर जावे और दूसरे दाने-दानेके लिये फिरें । इन विचारों के रहते हुए भी क्या आप अपनेको जैनी कहते हो ?
अनेकान्त
धन इच्छा करनेसे नहीं मिलता। यदि भाग्य होता है तो न जाने कहाँसे सम्पत्ति आ टपकती है मैं मडावरेका हूँ । मेरा एक साथी था - परसादी | परसादी ब्राह्मरणका लड़का था । हम दोनों एक साथ चौथी क्लास में पढ़ते थे । परसादीके बापको ८) पेंशन मिलती थी और १०००) एक हजार उसके पास नकद थे । वह इतना अधिक कंजूस था कि कभी परसादी एक आध पैसेका अमरूद खाले तो वह उसे बुरी तरह पीटता था । बापके बर्ताव से लड़का बड़ा दुखी रहता था । अचानक उसका बाप मर गया। बापके मरनेके बाद लड़केने खूब खाना पीना शुरू कर दिया। बापकी जायदादको मिटाने लगा। मैंने उसे समझाया - परसादी ! अनाप-शनाप खर्च क्यों करता है? पीछे दुःखी होगा । वह बोला, बड़े भाग्यसे बाप मरा तो भी न खावें पीवें। भैया ! उसने एक साल में ही एक हजार मिटा दिये। मैंने कहा, परसादी अब क्या करोगे ? वह बोला, भाग्यमें होगा तो और भी मिलेगा । मेरे भाग्य से कोई महन्त मरेगा उसकी जायदाद मैं भोगूंगा। ऐसा ही हुआ । वह वहाँसे मालवा चला गया। देखनेमें सुन्दर था ही, किसी महन्तकी सेवा खुशामद करने लगा । महन्त प्रसन्न होगया और जब मरने लगा तब लिख गया कि मेरा उत्तराधिकारी परसादी होवे । क्या था? अब वह लखपति बन गया। हाथी, घोड़े आदि महन्तोंका क्या वैभव होता हैं सो आप लोग जानते ही हैं। मैं इलाहाबादमें पण्डित ठाकुरदासजी के पास पढ़ता था । वह भी एक वक्त गङ्गास्नानके लिये इलाहाबाद गया । मैं पुस्तक लेकर पण्डितजीके पास पढ़ने जारहा था, वह भी एक हाथीपर बैठा बड़े
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ठाटबाट के साथ जारहा था । मेरा ध्यान तो उस ओर नहीं गया, पर उसने मुझे देख लिया और हाथी खड़ाकर मुझसे बोला ? मुझे पहचानते हो मैंने कहा अरे परसादी ! उसने अपना किस्सा सुनाते हुए कहा, कि तुम तो कहते थे कि अब क्या करोगे ? मैं अब मालवाका महन्त हूँ । दस-पाँच लाखकी जायदाद है ।
सो भैया ! जिसको सम्पत्ति मिलनी होती है सो अनायास मिल जाती है । व्यर्थकी चिन्तामें रात दिन पड़े रहना अच्छा नहीं ।
जब बाईजीको मरनेके १० दिन रह गये तब लम्पूने उनसे कहा, बाईजी ! कुछ चिन्ता तो नहीं है । उन्होंने कहा, नहीं है । लम्पूने कहा, छिपाती क्यों हो ? वर्गीजीकी चिन्ता नहीं है । उन्होंने कहा, पहले थी; अब नहीं है। पहले तो विकल्प था कि हमने इसे पुत्रसे भी कहीं अधिक पाला, इसलिये मोह था कि यदि यह दो-चार हजार रुपये किसी तरह बचा लेता तो इसके काम आते। पर मैंने इसके कार्योंसे देखा कि यह एक भी पैसा नहीं बचा सकता । मैंने यह सोचकर संतोषकर लिया है कि लड़का भाग्यवान है । जिस प्रकार मैं इसे -मिल गई ऐसा ही कोई उल्लू और मिल जायेगा ।
मैं एक बार अहमदाबाद कांग्रेसको गया । पं० मुन्नालालजी, राजधरलाल वरया तथा एक दो सज्जन और भी साथ थे । अहमदाबाद में एक मारवाड़ीने नेवता किया । पूरी, खीर आदि सब सामान उसने बनवाया। मुझे ज्वर आता था, इसलिये पहले तो मैंने खीर नहीं ली । पर जब दूसरोंको खाते देखा और उसकी सुगन्धि फैली तो मैंने भी ले ली और खूब खाली । एक घण्टे बाद मुझे ज्वर आगया । इच्छा थी कि इतनी दूर तक आया तो गिरनार जीके दर्शन और कर आऊँ । शामको गाड़ी में सवार हुआ । मेरे पैरोंमें खूब दर्द हो रहा था । पर संकोच था, इसलिये किसीसे यह कहते न बना कि कुछ दबा दो । रातको एक पूनाका वकील हमारे पास आया । कुछ देर तो चर्चा करता रहा पर बादमें मेरे सो जानेपर वह वहीं बैठा रहा। न जाने उसके मनमें क्या आया ।
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किरण ४]
त्यागका वास्तविक रूप
१५३
वह मेरे पैर दाबने लगा और रातके ३ बजे तक कुम्हार मिट्टीका घड़ा बनाता है क्या उसके हाथ-पैर दाबता रहा। तीन बजे बोला-पण्डितजी, उठिये आदि घड़ारूप होजाते है ? नहीं, एक द्रव्यका दूसरे आपको यहाँ गाड़ी बदलनी है।
द्रव्यमें प्रवेश त्रिकालमें भी नहीं हो सकता। जब ____ हम लोग धनकी चिन्तामें रात दिन व्यग्र होरहे दूसरा द्रव्य हमारा है ही नहीं तब उसका त्याग । हैं पर व्यग्र होनेमें क्या धरा ? धन रखते हो तो करना कैसा ? यहाँ त्यागसे अर्थ है पर पदार्थोंमें उसकी रक्षाके लिये तैयार रहो । लोग कहते हैं कि आत्मबुद्धिका छोड़ना । धनका जोड़ना बुरा नहीं।
ग भीतर ही भीतर पहलेसे तैयारी करते रहे। आपके पास जितना धन है उससे चोगुना अपनी अरे ! तुम्हारे दादाको किसने रोक दिया था ? जैन तिजोरियोंमें भरलो पर उसमें जो आत्मबुद्धि है उसे धर्म यह कब बतलाता है कि तुम नपुंसक बनकर छोड़ दो। जब तक हम किसीको अपना समझते रहो । लोग कहते हैं कि जैनधमेने भारतको गारत रहेंगे तब तक उसके सुख-दुःखके कारणोंसे हम सुखीकर दिया ।.अरे ! जैनधर्मने भारतको गारत नहीं कर दुःखी होते रहेंगे । यह नरेन्द्र बैठा है इसे यदि हम दिया । जबसे लोगोंने जैनधर्म छोड़ा तबसे गारत हो अपना मानेंगे तो इसपर आपत्ति आनेपर हम स्वयं गये । जैनधर्म तो प्राणीमात्रका उपकार चाहता है वह दुःखी हो उठेगे। इसीलिये तो आचार्य कहते हैं कि किसीका भी बुरा नहीं सोचता। वहाँ तो यही उपदेश आत्मातिरिक्ति किसी भी पदार्थको अपना नहीं
है 'सर्वे सन्तु निरामयाः' सब निरामय नीरोग रहें। समझो । जिस समय आत्मामें ही आत्मबुद्धि रह • 'क्षेम सर्वप्रजानां' सारी प्रजाका कल्याण हो। जैन- जायगी उसी समय आप सुखी हो सकेंगे, यह तीर्थंकरोंने छह खण्डकी पृथिवीका राज्य किया, सो निश्चय है । क्या कायर बनकर किया ? नपुंसक बनकर किया ? जैनधर्मका उपदेश मोह घटानेके लिये ही है। नहीं, जैनके समान तो कोई वीर हो नहीं सकता। आपके त्यागसे किसी पदार्थका त्याग नहीं हो सकता उसे कोई घानीमें पेल दे तो भी अपने आत्मासे च्युत त्याग करके आप उस पदार्थकी सत्ता दुनियासे मिटा नहीं होता। जिन तो एक आत्मा विशेष का नाम है। देने में समर्थ नहीं हैं। आप क्या कोई भी समर्थ नहीं जिसने रागादि शत्रुओंको जीत लिया वह जिन है। है। उससे केवल मोह ही छोड़ा जा सकता है। जब उसने जिस धर्मका उपदेश दिया वह जैनधर्म है । इसे तक अपने हृदयमें मोह रहता है तब तक ही इस कायरोंका धर्म कौन कह सकता है ?
परिग्रहकी चिन्ता रहती है । मोह निकल जानेपर __आज त्याग-धर्म है। मैं धनके त्यागका उपदेश कोई भी इसे लेजाओ, इसका कुछ भी होता रहे, नहीं देता। और मेरी समझमें जो धनके त्यागका इसका विकल्प रञ्चमात्र भी नहीं होता। कल आपने उपदेश देता है वह वक्ता बेवकूफ है । धन तुम्हारा है वज्रदन्त चक्रवर्तीका कथानक सुना था । जब उसका ही कहाँ ? वह तो स्पष्ट जुदा पदार्थ है । यह चादर मोह दूर हुआ तब उसके मनमें यह विकल्प नहीं जो मेरे शरीरपर है न मेरी है न मेरे बापकी है और आया कि हमारे इस विशाल राज्यको कौन सँभालेगा? न मेरी सात पेरीकी है । वह द्रव्य दूसरा है और मैं लड़कोंको राज्य देना चाहा, पर जब उन्होंने लेनेसे द्रव्य दूसरा । एक द्रव्यका चतुष्टय जुदा, दूसरे द्रव्यका इंकार कर दिया तब अनुन्धरीके छह माहके पुंडरीकचतुष्टय जुदा । आप पदार्थको जानते हैं । क्या पदार्थ को राज्य देकर जङ्गलमें चला गया। निर्मोह दशाका
आपमें जाता है ? आप पेड़ा खाते हैं, मीठा लगता कितना अच्छा उदाहरण है। चक्रवर्ती के दीक्षा लेनेके है क्या मीठा रस आपके आत्मामें घुस जाता है ? बाद उनकी स्त्री लक्ष्मीमती अपने जमाई वनजंघको
औरत बड़ी सफाई के साथ रोटी बनाती है क्या उसके जो कि भगवान आदिनाथके जीव थे, पत्र लिखती हाथ या उसकी अङ्गुलियाँ रोटीरूप होजाती हैं ? है कि पति और पुत्र सभी साधु होगये हैं। जिसपर
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.२५४६ वर्ष बाद
जय स्याहाद [ले०-प्रो० गोरावाला खुशाल जैन एम० ए०, साहित्याचार्य]
"दृष्टष्टाविरोधतालाबादः ।" (स्वामी समन्तभद्र) उन्नति नहीं अवनति ___ कर देती है। अपनेको पूर्वजोंसे सभ्यतर मानने वाला भगवान महावीरकी २५४७वीं जन्म-जयन्ती यह मनुष्य कह ही उठता है कि ये ढाई हजार वर्ष मनानेका विचार करते ही उन परिस्थितियोंका व्यर्थ नहीं गये हैं। हमने आशातीत उन्नति की है। अनायास स्मरण हो आता है जिनका प्रतीकार करके जहाँ अमेरिकाने उत्पादनकी समस्याको सुलझा दिया लिच्छविकुमार सन्मतिने अनादि मार्गका प्रकाश है, वहीं रूसने वितरणरीतिको सम कर दिया है। किया था और अपनी तीर्थकर संज्ञाको सार्थक एक ओर यदि हिटलर और मुसोलिनीने हिंसाका बनाया था। चिर अतीतका ध्यान निकटतम वर्तमान ही डङ्का पीटा था तो दूसरी ओर युगपुरुष, मूतिमानपर दृष्टि डालनेके लिये लुभाता है। आधुनिक आवि- भारत, प्रियदर्शी गाँधीजीने अहिंसाकी शीतल मन्द कार तथा ऐहिक सुख साधनकी अनियन्त्रित सामग्री सुगन्ध मलयानिलका प्रवाह किया था। यदि अमेक्षण भरके लिये शिरको ऊँचा और सीनेको तना रिका, रूस तथा अँग्रेजोंकी विजयको पशुबलकी राज्यका भार आया है वह छोटासा बालक है। सर्वोपरि जीत कहा जाय, तो सत्य और अहिंसाके प्रभावशाली शासकके न होनेसे राज्यमें अराजकता बलपर प्राप्त सक्रिय तथा निष्क्रिय भारतकी दो भागों मच रही है। आप आइये ।' वह प्रकरण बाँचकर में विभक्त स्वतन्त्रता भी नैतिक बलकी अभूतपूर्व विजय आँखोंमें आँसू आजाते हैं। कहाँ छह खण्डके अधि- है। आज समयकी तराजूके एक पलड़ेपर अमेरिकापति चक्रवर्तीकी रानी और कहाँ रक्षाके लिये दूसरे का अणुबम है और दूसरेपर गाँधीजीकी अहिंसामय को पत्र लिखती है ? कल जो रक्षक थी वह आज नीति । अनायास ही ऐसा प्रतीत होता है कि हम उस रक्षाके लिये दूसरोंका मुँह ताकती है। भैया ! यही तो युगसे जारहे हैं जिसमें प्रत्येक वस्तु संभवतः विकाससंसार है, संसारका स्वरूप ऐसा ही है। की चरमसीमा तक पहुंच चुकी है। किन्तु वास्त
त्याग करनेसे कोई कहे कि हमारी सम्पत्ति नष्ट विकता इसके ठीक विपरीत है । क्या आज दृष्टिभेदके हो जाती है सो आज तक ऐसे उदाहरण देखनेमें नहीं कारण व्यक्ति भेद और राष्ट्र-वैमनस्य नहीं है ? क्या आये कि कोई दान देकर दरिद्र हुआ हो।
अहिंसा पूज्य गाँधीजीको गोली मार मनुष्यकी जब वसन्त याचक भये दीने तरु मिल पात । हिंस्रवृत्ति-नारकीयतासे भी नीचे नहीं चली गई है ? इससे नव पल्लव भये दिया व्यर्थ नहिं जात ॥ निःशस्त्रीकरणका राग अलापते-अलापते क्या मनुष्य
एक कविकी यह कितनी सुन्दर उक्ति है । जब ने महामारू-अस्त्र अणुबम नहीं बना डाला है ? क्या वसन्त याचक होता है तब वृक्ष पतझड़ बन जाते हैं- धर्मके नामपर हिंसा, चोरी, झूठ, अकल्पित व्यभिअपने-अपने पत्ते दे डालते हैं। यही कारण है कि चार तथा संचयका ताण्डव नहीं होरहा है ? सच उनमें नये-नये पत्ते पैदा होजाते हैं।
तो यह है कि मनुष्यने ये ढाई हजार वर्ष संकल्प पूर्वक अपनी अवनति और उन सब आदर्शोका
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किरण ४]
जय स्याद्वाद
मटियामेंट करनेमें लगाये हैं जिनकी शिक्षा भगवान भेदकी दुहाई दी जाती है। और एक दूसरेको अपना महावीरने दी थी। इसीलिये बर्नार्डशा जैसे व्यक्ति घातक शत्रु मान बैठा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि की आँखें वर्तमान सभ्यताके गाढ अन्धकारको कल्पित दृष्टिभेद ही विश्वके वर्तमानको प्रत्य चीरती हुई वीर प्रभुके उपदेशपर ठिठककर रह गई बिगाड़े हुये है और पाप तथा दुखःमय भविष्यकी हैं । क्योंकि रूस-अमेरिकाकी प्रतियोगिता, तानाशाही कल्पना करा रहा है । जब कि साम्यवाद तथा के जन्मकी आशङ्का, और मुसलिम-अमुसलिम जनतन्त्रवादके मूढ़ग्राहको छोड़कर अमेरिका-रूस अकारण वैमनस्यका विकार आदिका अन्त शोषित विश्वको शान्ति, सुख और सदाचारकी ओर सरलता और शोषक द्वन्द्वका विनाश तथा नैतिकताका से ले जा सकते हैं । यह तभी सम्भव है, जब हम पुनरुद्धार उसी प्रणालीसे संभव है जिसमें "दृष्ट और स्याद्वाद या बौद्धिक अहिंसा, या सब दृष्टियोंसे इष्टका विरोध नहीं है। जैसा कि वीरप्रभुने कहा था। विचारना अथवा उदारदृष्टिसे काम लें जो प्रत्यक्ष ही . राजनैतिक अस्याद्वाद
संघर्ष और अशान्तिसे बचाता है तथा मैत्री और विगत विश्व युद्ध के घावोंपर अभी पट्टी भी नहीं प्रमोदपूर्ण भविष्यकी कल्पना कराता है। बँध पाई है। कुंपथगामी वीर जर्मन राष्ट्र समता,
धार्मिक अस्याद्वाद स्वतन्त्रता और स्वजनताके हामी राष्ट्रके पैरोंके तले जहाँ राजनैतिक विचार सहिष्णुतासे वर्तमान कराह रहा है । वर्षों बीत गये पर कोई अन्तिम संधि विश्वमें मध्य-पश्चिमी योरुप, अमेरिका, चीन, बर्मा नहीं हो सकी है । यह सब होते हुये भी तीसरे विश्व आदिकी समस्याएँ सरलतासे सुलझ सकती हैं, वहीं युद्ध की तैयारी होने लगी है । खुले आम अमेरिका धार्मिक विचार सहिष्णुता द्वारा मुसलिम तथा
और रूसने अपने दल बनाने प्रारम्भ कर दिये हैं। अमुसलिम गष्ट्रोंके बीच चलने वाला संघर्ष भी शान्न दोनों दलोंकी इस वृत्तिने वर्तमान (दृष्ट) की प्रगतिको हो सकता है । सन् १९२४ के बादसे धार्मिकता या ही नहीं रोक दिया है अपितु भविष्यकी संभावना साम्प्रदायिकताके नामपर भारतमें जो हुआ है, उससे (इष्ट)को भी अन्धकाराच्छन्न कर दिया है । मोटे साधारणतया साम्प्रदायिकता और विशेष रूपसे रूपसे देखनेपर कोई ऐसा कारण सामने नहीं आता इम्लामकी ओरसे की गई इतिहास-सिद्ध आक्रमकता जो रूस और अमेरिकाके मनोमालिन्यके औचित्यको और वर्वरताकी पुष्टि तो होती ही है, साथ ही साथ सिद्ध कर सके । तथोक्त जाग्रत राजनीतिज्ञ कहते हैं यह भी स्पष्ट हो गया है कि इस धार्मिक उन्मादसे कि साम्यवादी रूस पूंजीवादी अमेरिकाके प्रसारकी किसी भी धर्म या सम्प्रदायका वास्तविक प्रचार और कैसे उपेक्षा करे ? किन्तु दोनों देशोंके जन तथा प्रसार हो ही नहीं सकता। यदि इसके द्वारा कुछ शासनका पर्यवेक्षण करनेपर कोई ऐसी भलाई या हुआ है तो वह है सामाजिक मर्यादाओंका लोप बुराई नहीं मिलती जो एकमें ही हो, दूसरेमें बिल्कुल और अनैतिकताका अनियन्त्रित प्रचार। न हो । दोनों देश उत्पादन, संचय तथा वितरणको अतीतको भूलकर यदि १५ अगस्त सम् ४६ के खूब बढ़ा रहे हैं। यदि एक व्यक्तिगत रूपसे तो बादके भारतपर ही दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि । दूसरा समष्टिगत रूपसे । दोनों देशोंका आदर्श 'साक्षात् क्रिया' माने मारकाट, चोरी, डकैती, अपभौतिक (जड़) भोगोपभोग सामग्रीका चरम विकास हरण तथा नारकीय व्यभिचार; मुसलिम लीग, हिन्द है। अपने दलके लोगों, राष्ट्रीकी धन-जनसे सहायता महासभा तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवकसक माने देशद्रोह में कोई नहीं चूक रहा है । साधन, साध्य और फल- और मानवताकी फाँसी । इस प्रकार धर्म और
की एकतामें दृष्टि या 'वाद' भेदकी हल्कीसी छाया भी सम्प्रदायके नामपर इधर डेढ़ वर्ष जो हा है, उस • नहीं दीखती है। तथापि पग-पगपर 'दृष्टि' या 'वाद' ने भारतकी सनातन विरासत नैतिकताकी नींवको
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अनेकान्त
[वर्ष ९
ऐसा खोद डाला है कि हमारा सामाजिक वर्तमान भारतीय किसीको छुरा भोंक देता है, आग लगा देता (दृष्ट) ही विरूप और नष्ट नहीं हुआ है अपितु सुभ- है, दूसरेकी बहू-बेटीको ले भागता है और कभी तधा विष्यको कल्पना (इष्ट) भी अत्यन्त अस्पष्ट और कहीं भी बलात्कार करता है। हमारे सामाजिक निराशाजनक होगई है। यह सब हुआ धमके नशेके वर्तमान (दृष्ट)की निस्सारता और पतन तो स्पष्ट है कारण, धर्मके कारण नहीं । इतिहास इस बातका किन्तु यदि इन वृत्तियोंका निरोध न हुआ तो भविष्य साक्षी है कि अमुसलिम धर्मोंने भारतमें इस्लाम या का अनुमान (दृष्ट) करते ही रोमांच हो आता है, प्राण. उसकी संस्थापर कभी आक्रमण नहीं किया है। सिहर उठते हैं । हिंसककी हिंसा, चोरकी चोरी, झूठे इतना ही नहीं, मुसलिम आक्रमणके बादसे ही सब को धोखा, व्यभिचारीकी बहिन बेटीके साथ व्यप्रकारसे मुसलमानों द्वारा सताये जानेपर भी अमु- भिचार और पूंजीपतिके बिरोधके लिये पूंजीपति सलिम भारतने उन दुर्घटनाओंको भुला ही दिया है। बनना ही हमारी नीति और आदर्श होगये हैं-जैसा यही अवस्था प्राचीन भारतीय सम्प्रदायों और धर्मों कि आजके विश्वमें स्पष्ट दिखाई देता है तो साम्यके पारस्परिक कलह और दमनकी हुई है। तथापि वाद और समाजवाद, सामन्तशाही और नादिरशाही मनुष्यमें इतना विवेक नहीं जागा कि धमे "जीव सभी बदतर सिद्ध होंगे। विध्वंस और पतनकी गति उद्धार" की कला है। जिसे जहाँ विशुद्धि मिले, उसे इतनी तेज होगी कि गत ४३ वर्षोंकी अभूतपूर्व वहीं स्वतन्त्रता पूर्वक रहने दिया जाय। क्योंकि जो वैज्ञानिक विध्वंस-प्रणाली भी उसके सामने वैसी सत्य रूपसे किसी भी धर्मको मानते हैं, वे कभी लगेगी, जैसी बुन्देलेकी तलवार आज अणुबमके आपसमें नहीं लड़ते। फलत: न इस्लाम खतरेमें है सामने लगती है। आजका सर्वतोमुख पतन इतना और न हिन्दू या यहूदी धर्म ही विश्वको स्वर्ग बना व्यापक है कि कुछ समय और बीतते ही वह स्वभाव सकता है। अतः मनुष्यको अपने आप अपनी दृष्टि मान लिया जायगा। क्योंकि आज बहुजनका जीवन बनाने, ज्ञान प्राप्त करने और आचरण करनेकी तो शिथिलाचारकी ओर बढ़ ही चुका है। "महाजन स्वतन्त्रता होनी ही चाहिये । भगवान महावीरके इस को भी असंयत होने में अधिक समय न लगेगा और समन्मभद्र धमेके द्वारा ही हम भारत तथा फिलिस्तीन फिर असंयत ही 'पन्थ' या सहज जीवन हो जायगा। आदि देशोंकी तथोक्त धार्मिक गुत्थियाँ सरलतासे आजके विश्वमें किसीको यदि खतरा है तो वह है सुलझा सकते हैं।
संस्कृति या मानवताको । चाहे पूंजीवादी अमेरिका सामाजिक अस्याद्वाद
हो या समाजवादी रूस, सब ही इस खतरेकी चर्चा धार्मिक असहिष्णुताकी राक्षसी सन्तानका ही करते है। किन्तु किसी भी वादके अनुयायिओंका नाम सामाजिक अनाचार या अस्याद्वाद है। आधुनिक जीवन ऐसा नहीं है जिससे मानवताकी सुरक्षाकी युगके "वाद" या धर्मके पक्षपातने अनगिनती आंशिक भी श्राशा बंधे। हानियाँ और अत्याचार किये है। किन्तु उन सबका सम्राट तो वह वृत्ति है जिसके कारण मनुष्य तब क्या यह मान लिया जाय कि मनुष्यका कुकृत्योंको आज निःसंकोच भावसे कर रहा है सुधार नहीं ही हो सकता है। तथोक्त वैज्ञानिक जिनके करनेकी शायद उसने कल्पना भी न की प्रतीकार असफल है तब और क्या किया जाय ? होगी । मुसलिमलीगने भारतकी अनेक हानियाँ की उत्तर कठिन नहीं है । यदि दो अणुबमोंने जापानका हैं, उनमें घातक तो वह अनाचार है जिससे उत्तेजित लङ्का-दहन कर दिया तो प्रियदर्शी गाँधीजीने भी तो होकर अमुसलिम भारतीयोंने भी उसकी पुनरावृत्ति हिन्दुत्वके कलङ्क-गोली मारने वालेको हाथ जोड़ की है । आज मुसलिमके समान ही अमुसलिम दिये थे। यह दृष्टि, ज्ञान और आचरण कहाँसे
धर्मनीति
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किरण ४
४]
अपने ही लोगों द्वारा बलि किये गये
मिला ? सत्य और अहिंसा से ही तो ? यों तो भारतीय संस्कृति ही अहिंसा प्रधान है; किन्तु यह भी स्पष्ट है कि इसका मूल स्रोत जैन मार्ग ही रहा है। तथा हमारे युग में भगवान महावीर । भगवान वीरने ही तो स्पष्ट कहा था कि 'यदि हिंसककी हिंसा न्याय्य मानोगे तो कोई भी इस संसार में अवध्य नहीं रहेगा मैत्री, प्रमोद, शान्ति और विकास असम्भव हो जायेंगे । यदि झूठको ही नीतिमत्ता मानोगे तो ऐसी नीतिमत्ता से किसीकी भी विपत्ति न टलेगी और संसार में विश्वास नामकी वस्तु दुर्लभ हो जायगी । यदि धर्म भेद या व्यक्ति भेदके कारण दूसरेकी बहिन बेटी से कुचेष्टा या बलात्कार करनेमें पुरुषार्थ मानोगे तो वह पुरुषार्थ तुम्हारी बहिन-बेटीकी मर्यादा और लज्जा नष्ट कर देगा । आवश्यकता से अधिक पैसा संचय करनेमें यदि पाप न समझोगे तो कोई ऐस पाप नहीं, जिसे करनेमें तुम हिचकोगे ।'
सम्भव है, सौ-पचास वर्ष पहिले यह सब धर्मोपदेश सा लगता किन्तु आज तो यह अनिवार्य आवश्यकता है । श्रन्यथा आक्रांत जर्मनी तथा अन्य योरुपीय राष्ट्र, चीन, फिलिस्तीन, काश्मीर, हैदराबाद
१ सुकरात - यूनानी दार्शनिक तत्त्ववेत्ता, ईसासे २६६ वर्ष पूर्व जहर द्वारा ।
२. ईसामसीह - जसे १६४८ वर्ष पूर्व, यहूदियों द्वारा दी गई शूलीसे ।
३ अब्राहम लिंकन अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति, १४ अप्रैल १८६५ में गोली द्वारा ।
४ माइकेल कोलिंस - श्राजाद आयलैंडके प्रथम राष्ट्रपति, . १६२२ में गोली द्वारा ।
५ स्वामी दयानन्द - श्रार्यसमाजके संस्थापक, ३० अक्टूबर १८२३ में जहर द्वारा ।
६ स्वामी श्रद्धानन्द - श्रार्यसमाज और काँग्रेस के नेता, गोली द्वारा ।
अपने ही लोगों द्वारा बलि किये गये महापुरुष
महापुरुष
और पाकिस्तान में सहज जीवनकी कल्पना भी संभव न रहेगी । किन्तु दूसरेके प्राण, वचन, धन, शील और आवश्यकताकी रक्षा हम तब ही कर सकते हैं जब हमारी दृष्टि व्यापक हो। जिसे मूढ़ग्राह होगी उससे यह आशा तब तक नहीं की जासकती जब तक उसे अपनी हठसे मुक्ति न मिले तथा उसकी दृष्टि परसहिष्णु न हो जाय । यह तब ही सम्भव है जब मनुष्य प्रत्यक्ष ही विकृत और पतित वर्तमानसे बचे तथा ऐसा कोई काम न करे जो प्रत्यक्ष ही बुरा है। अथवा भीषण भविष्य का अनुमापक है। यह स्याद्वाद द्वारा ही सम्भव है क्योंकि इस प्रणाली में प्रत्येक कल्पनाका विवध और व्यापक दृष्टिसे विचार करना आवश्यक है । तथा हर पहलूसे विचार करते ही बैर और विरोध स्वय काफूर होजाते हैं । अतः आजके राष्ट्र तथा सम्प्रदायगत विरोधोंको दूर करने की सामर्थ्य भगवान वीरके स्याद्वाद में ही है इस बौद्धिक अहिंसा के आते वाचनिक और कायिक हिंसा स्वयं सिद्ध हो जायगी । अतः प्रत्यक्ष तथा अनुमानसे अवाधित स्याद्वाद ही ज्ञेय तथा आचरणीय है । जैन सन्देशसे ।
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श्रगसान – स्वतन्त्र वर्माके प्रथम प्रधानमन्त्री, १६ जुलाई १९४७ में, पार्लियामेण्ट भवनमें, गोली द्वारा । अमर साहित्यकार टोडरमल - जैनसमाजके महाविद्वान् और साहित्यकार, विक्रम संवत् १८२४ ( ई० १७६७ ) में धर्मान्धतापूर्ण साम्प्रदायिकता से श्रभिभूत एक नरेशकी अविचारित प्रज्ञासे हाथी द्वारां । ट्राटस्की - रूसका लेखक और महान् नेता, मेक्सिकोमें घरपर हथौड़े द्वारा ।
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१० महात्मा गाँधी - हिंसा और मानवताकेपु जारी, भारत तथा विश्व के महानतम मानव, सन्त और नेता, ३० जनवरी १६४८ में, दिल्लीके विडलाभवनमें, नाथूराम गोडसेकी पिस्तौल की तीन गोलिोंसे ।
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महामुनि सुकुमाल (श्री ला० जिनेश्वरप्रसाद जैन)
[इस लेखके लेखक ला० जिनेश्वरप्रसादजी सहारनपुरके उन धार्मिक पुरुषों से एक हैं जिनसे सहारनपुरका मस्तक ऊँचा है। श्राप ज्ञानवानों और चारित्रवानोंका बड़ा आदर किया करते हैं । लाला उदयराम जिनेश्वरप्रसादके नामसे प्रसिद्ध कपड़ेकी फर्मके श्राप मालिक हैं। अपने व्यापारसे उदासीनजैसी वृत्ति रखते हुए श्राप सदा ही धर्मकी ओर यथेष्ट ध्यान रखते हैं । जैनगुरुकुल सहारनपुरके श्राप जन्मदाता और अधिष्ठाता है तथा उसे हजारों रुपये प्रदान कर चुके हैं । हालमें श्राप सकुटुम्ब पूज्य क्ष लक वर्णीजीके दर्शन, वन्दन और उपदेशश्रवणके लिये वरुअासागर गये थे। वहाँपर वर्णीजीको आहार दान देनेका भी आपको सकुटुम्ब सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उधरसे वापिस आकर आपने विचारपूर्वक दर्शनप्रतिमा ग्रहण की है । हालमें मेरी आपसे भेंट हुई । आपके विचारों, उन्नत धार्मिक भावों और शान्त परिणतिको जानकर बड़ा प्रमोदभाव हुश्रा । महामुनि सुकुमालके जीवनचरितपरसे अापने जो विचार बनाये उन्हें लेखबद्धरूपमें मुझे सुनाया। सुनकर मेरी तबियत बड़ी प्रसन्न हुई। मेरी प्रेरणापर उसे उन्होंने 'अनेकान्त' में प्रकट करनेके लिये भेजा है । श्राप यद्यपि लेखक नहीं हैं—सफल व्यापारी धनपति है-फिर भी अपने प्रथम प्रयत्नमें वे इतना सुन्दर लिख सके, यह जानकर पाठक भी प्रसन्न होंगे। आशा है अब आप अपने लिखनेका पयत्न बराबर जारी रखेंगे।
-कोठिया].
जगन्ध
वाज बैठे-बैठे विचार उत्पन्न हुआ कि वे प्रभु घुमाई और बोले-हे बालिके ! तू कौन है ? विचार
सुकुमाल स्वामी कौन थे ? उनकी पूर्वली तो सही ? पूर्वली दशा तेरी कौन थी ? किस पापोअवस्था कैसी थी, जिन्होंने इतनी वीरताके साथ कर्म- दयसे तू इस अवस्थामें अवतरित हुई ? विचार और शृङ्खलाकी कडियोंको काटा था ?
सोच ! तेरा कल्याण निकट है, तेरी अवस्था इस पूर्व अवस्थामें वे कर्मके प्रेरे पापोदयवश एक महान नारकीय दुःखसे छूटने वाली है, तनिक स्थिरमहादुर्गन्धा अस्पृश्य कन्याके शरीरमें बन्द इस
या पय कन्या के शरीर में बन्द इस तासे विचार और उपयोग लगा !! संसार अटवीमें ही थे, जिसके शरीरसे इतनी दुर्ग इतना वचन उन महान कल्याणकारी धीर-वीर,
आरही थी कि उसको देखकर बहु-मनुष्योंका ज्ञानी, ऋषीश्वरका सुनकर वह विचारती है-ये कौन समुदाय नाकपर वस्त्र रखकर ही उस मार्गसे है ? इनकी वाणी परम-सुहावनी मालूम पड़ती है। निकलता था।
मुझ दीन-हीनपर क्यों करुणा करते हैं? मेरे तो उसी समय महान त्यागमति, ज्ञानस्वरूप, अनेक समीप भी कोई नहीं आता। धन्य, इन वात्सल्यधारी प्रतिमाधारी, महान तपस्वी एक ऋषि महाराज उसके महान् प्रभुको । इतना विचारते-विचारते उसे उसी समीपसे विहार करते हुए निकले, अचानक उनकी क्षण पूर्वभवका जाति-स्मरण ज्ञान होता है और दृष्टि उस कन्यापर गई । उन्होंने विचार किया- वर्तमान दशापर खेद होते-होते युगल नेत्रोंमे अश्रुअरे! यह तो कर्दममें लिपटा हुआ रत्न यहाँ पड़ा है धार बह जाती है और वह लालायित दृष्टिसे निर्निमेष
और यह तो निकटभव्य आत्मा है । कमों के चक्करमें उनकी ओर देखती रहती है। फंसी हुई है। उन्होंने शीघ्र ही स्वदृष्टि उस ओर वे महामुनि उसे सम्बोधते हुए शीघ्र कहते हैं
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किरण ४]
महामुनि सुकुमाल
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'हे पुत्री ! तू शीघ्र विकाके व्रतोंको धारण कर। विशेष कोमलताके कारण उनके चरणोंमेंसे रुधिरकी तुझे संसार में परिभ्रमण करते-करते अनन्तकाल बीत धार बह निकलती है। पर सुकुमाल इसकी कुछ भी गया, तेरी आयु भी अल्प है, जो शीघ्र पूरी होरही परवाह न करते हुए और वैराग्यभावोंसे ओत-प्रोत है । मुनिराजके करुणा-भरे इन वचनोंको सुनकर होते हुए निग्रन्थ मुनियोंके चरणों में जाकर भक्तिवह शीघ्र विकाके व्रतोंको भावसहित धारण करके पूर्वक वन्दना करके नतमस्तक होकर उनसे विशेष दृढ़ताके साथ पालन करती हुई मरणको प्राप्त होती प्रार्थना करते हैं । हे प्रभो ! हे कल्याणमूर्ति ! हे है और स्वर्गमें देवपर्यायको धारण करती है- अनन्तगुणोंके स्वामी ! हे पतितोद्धारक ! मुझे शीघ्र स्त्रीलिङ्गका विच्छेद कर देती है। वहाँसे चयकर यही उबारो । मैं इस संसाररूपी काराग्रहसे निकलकर देवपय्योयका जीव एक राज सेठानीका पुत्र सुकु- निज कुटुम्बमें वास करना चाहता हूँ। मैं अब इस माल कुमार होता है।
संसारसे तप्तायमान हूँ । प्रभो ! मैं अब आपके चरणों देखो, कर्मकी विचित्रगति ! कहाँ तो दुर्गन्धयुक्त में रहकर इन कर्म-फाँसोंका तार-तार करूँगा । इनको अस्पृश्य और अछूत कन्या और कहाँ महान ऋद्धि- निःसत्त्व करके आपके सदृश बनंगा। मैं संसार-वनी धारी स्वर्गका देव ! फिर कहाँ ये राजभोग, वैभवके में आज तक भ्रमा । हे प्रभो! हे स्वामिन ! सिंह ठाठ! जिनके अनेक स्त्रियाँ तथा कोमल शरीर । जिस होते हुए भी मैं अपनेको भूलकर गधोंकी टोलीमें शरीरमें राई और सरसों भी चुभती हो, जिनके नेत्रों- फँस गया और कुम्हारके डडे, अपनी ही भूलसे मेंसे आरतीके दीपकसे भी जल झरने लगे, जिनका अपनी ही मूर्खतासे, आज तक खाता रहा! महान् कोमल शरीर एक विशेष प्रकारके तंदुल ही हे प्रभो! उबारो! मुझ पतितको उबारो! अब मैं चन-चुनकर भक्षण कर सके । कितनी कोमलता! आपके चरणों में आया हैं। मुझे निरखो और अपना कितना राजसी-ठाठ ! वही सुकमाल कुमार एक दिन सेवक समझ मेरे कल्याण-मार्गकी जननी देव-दुर्लभा इस शरीर, कुटुम्ब और भोगोंको अनथेकारी समझ श्रीभगवती जिनदीक्षा मुझे प्रदान करो । यही मुझ संसार और देहसे भयभीत होकर और स्वको ।
दासानुदासकी आपसे प्रार्थना है। वे महाम् योगी निरखकर एक सिंहकी तरह-गर्जना करते हैं और
परम वीतरागी, परम वात्मल्य-गुणधारी, धीर-वीर, अपनेको सम्बोधते हैं-हे मूर्ख ! तूने आज तक इन
ऋषिवर अपने युगल नेत्रोंको सकुमालकी तरफ माता, स्त्री, धन-दौलत आदि भोगोंके चक्करमें
घुमाते हैं और मधुर-कोमल शब्दों द्वारा कहते हैंपड़कर समस्त जीवन, समस्त काल और समस्त भावनायें व्यर्थ गॅवाई। अब तो चेत ! और अपनेको 'हे वत्स ! तूने प्रशंसनीय विचार किया। तूने पहचान ! तू तो पूर्ण प्रभु है। इस कंटक-पूर्ण मार्गका स्वको समझ लिया और यह भी जान लिया कि त्याग कर । इन कम-फाँसोंसे निकल । अन्यथा प्रात:- पूवेले भवमें तेरी यह आत्मा पूर्ण दुर्गन्धसे युक्त काल होनेपर तू यहाँसे नहीं निकल सकेगा, इसलिये अस्पृश्य (अछूत) कन्याके शरीरमें बन्द थी। अब शीघ्रता कर ।
तूने होश किया। अब ही सही। अब भी तेरी आय - यह विचार दृढ करते हीशीघ्रतासे ऊपरली खिड़की ३ दिवसकी है, इसलिये तीन दिवसमें ही तेरा के रास्ते धोती-दुपट्रोंकी कमन्द बनाकर वे धीरे-धीरे कल्याण होगा। तू स्थिर हो स्वमें समा जा । यह श्रीनीचे आते हैं। उनका वह महान् कोमल शरीर आज भगवती जिनेन्द्र दीक्षा तेरा कल्याण करेगी। कमन्दकी रगड़ोंको खाता हुआ नीचे आता है और ऐसा कहकर वीतरागताके धनी उन परउपकारनीचे आनेपर वह पथरीली कंटक-सहित भूमिपर निरत निर्ग्रन्थ मुनिराजने सुकुमालको श्रीजिन-दीक्षासे अपने युगल चरणोंको रख देता है । भूमिको छूते ही भूषित किया ।
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अनेकान्त
[वर्ष ९.
प्रभु सुकुमाल, वे राजर्षि सुकुमाल श्रीभगवती निश्चल हूँ, निजरस्वरूप हूँ, नित्यानन्द हूँ, सत्यजिनदीक्षासे विभूषित होकर तुरन्त वनको विहार स्वरूप हूँ, समयसार हूँ। और यह देह गलनरूप, रोग करते हैं और उनके पीछे-पीछे उनके चरणोंसे जो रूप, नाना प्राधि-व्याधियोंका घर है। यह मेरी नहीं रुधिर बहता आरहा था उसको चाटते हुए उनके और न मैं इसका हूँ। कौन कह सकता है कि ऐसे पूर्वले भवकी लात खाई हुई भावजका जीव शृगाली ध्यानमग्न और उच्चतम आत्मीय भावनामें लीन
और उसके दो बच्चे तीनों वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँपर महामुनि सुकुमाल शृगालीके द्वारा खाये जाते हुए प्रभु सुकुमाल ध्यान-अवस्थाम-अखंड ध्यानमें निश्चल दुखी थे। नहीं, नहीं, शृगालीके द्वारा खाये जाते हुए विराज रहे थे।
वे महामुनि दुखी नहीं थे, किन्तु उनका आत्मा प्रभुको शृगाली अपने बच्चों सहित चरणोंकी परम सुखी था। वे तो आत्माकी चैतन्य परिणतिरूप तरफसे चाटना शुरू कर देती है, चाटते-चाटते वह अ
अमृतका पान कर रहे थे। आत्माका सुखानुभव भक्षण करना प्रारम्भ कर देती है, उधर दोनों बच्चे करनेमें वे ऐसे लीन थे कि शरीरपर लक्ष्य ही नहीं . भी प्रभुको भक्षण करते हैं । इस तरह वे तीनों हिंस्र
था। वे अनन्त सिद्धोंकी पंक्तिमें बैठकर आत्माके जन्त उन महान मनि श्रीसकमाल वापस आनन्दामतका उपयोग कर रहे थे। दिवस पर्य्यन्त भक्षण करते रहे । भक्षण करते-करते
इस प्रकार ध्यानमें लीन हो प्रभु इस नश्वर देहस वे प्रभुकी जंघा तक पहुँच गये। उधर प्रभ ध्याना- विदा होकर सर्वार्थसिद्धि विमानमें विराजमान हो रूढ हैं। ध्यानमें विचारते हैं-मैं तो पूर्ण ब्रह्मस्वरूप जाते हैं, जहाँसे एक मनुष्य पय्याय प्राप्तकरके उसी हूं, आत्मा हूँ , ज्ञानस्वरूप हूँ , ज्ञायक हूँ, चिदानन्द भवसे मोक्षमें पधारेंगे । धन्य इन महात्मा सुकुमाल हूँ, नित्य हूँ , निरञ्जन हूँ, शिव हूँ, ज्ञानी हूँ, अखंड स्वामीको । मेरा इन प्रभुवरको बारम्बार नमोस्तु । हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ, स्वयंभू हूँ, आनन्दमयी हूँ,
ता० २२-४-४८
पं० रामप्रसादजी शास्त्रीका वियोग ! '
पं० रामप्रसादजी शास्त्री, प्रधान कार्यकर्ता ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन, बम्बई' का चैत्र वदी २ रविवार ता० ११ अप्रैलको शाम ५ बजे अचानक स्वर्गवास होगया। आप अर्सेसे अस्वस्थ चल रहे थे। आपके निधनसे समाजकी बड़ी क्षति हुई है। आप बड़े ही मिलनसार थे और वीरसेवामन्दिरको समय-समयपर भवनके अनेक प्रन्थोंकी प्राप्ती होती रहती थी। आपकी इस असामयिक मृत्युको सुनकर वीरसेवामन्दिर परिवारको बड़ा दुःख तथा अफसोस हुआ। हम दिवङ्गत आत्माके लिये परलोकमें सुख-शान्तिकी कामना करते हुए उनके कुटुम्बीजनोंके प्रति हार्दिक सम्वेदना व्यक्त करते हैं।
. -परमानन्द शास्त्री
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सेठीजीका अन्तिम पत्र
(प्रेषक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय)
[पुराने काग़ज़ात उलटते हुए मुझे स्वर्गीय श्रद्धय पं० अर्जुनलालजी सेठीका निम्न पत्र फुलिस्कैप श्राकारके छह पृष्ठोंमें पेंसिलसे लिखा हुआ मिला । यह पत्र जिनको सम्बोधन करके लिखा गया है, उनका नाम और उन सम्बन्धी व्यक्तिगत बातें और कुछ राजनैतिक चर्चाएँ जो अब अप्रासांगिक होगई हैंछोड़कर पत्र ज्योंका त्यों दिया जा रहा है। पत्रके नीचे उनके दस्तख़त नहीं हैं। हालाँकि समूचा पत्र उन्हींका लिखा हुआ है। मालूम होता है या तो वे स्वयं इस कटे-छटे पत्रको साफ करके भेजना चाहते थे या दूसरेसे प्रतिलिपि कराके भेजना चाहते थे। परन्तु जल्दीमें साफ़ न होनेके कारण वही भेज दिया । सम्भवतया जैनसमाजको लक्ष करके लिखा गया उनका यह अन्तिम पत्र है, ध्यान रहे यह पत्र मुझे नहीं लिखा गया था । पत्र मेरी मार्फत आया था इसलिये उन्हें दिखाकर मैंने अपने पास सुरक्षित रख छोड़ा था। लिखा नासका तो सेठीजीके संस्मरण भी "अनेकान्त"के किसी अङ्कमें देनेका प्रयत्न करूँगा।-गोयलीय
अजमेर वाताकाश किस हद तक लौकिक और पारलौकिक
१६ जुलाई १९३८ दोनों ही प्रकारका हित-साधक होगा, यह एक गहन धर्म बन्धु,
विचारणीय विषय है । इसी समस्या और आशयको संसारके मूलतत्वको अर्हत-केवली कथित अने- लेकर मैं आपके सम्मुख एक खुली प्रार्थना लेकर कान्त स्वरूपसे विचारा जाय और तदनुसार अभ्यास उपस्थित होता हूँ और आपका विशेष ध्यान बालसे उसका अनुभव भी प्राप्त हो तो, स्पष्ट होजाता है सुखसे हटाकर अन्तस्तलकी तरफ ले जानेका प्रयास कि प्रत्येक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अपनी विशेषता करता हूँ। मुझे आशा है कि मेरे रक्त-माँस रहित शुष्क रखता है, और वैयक्तिक एवं सामूहिक दोनों ही तन पिंजड़ेके कैदी आत्माकी अन्तर्ध्वनि आपके द्वारा प्रकारके जीवनमें परिवर्तन स्ववश हो चाहे परवश, जैनसमाजियोंके बहिरात्मा और अन्तरात्मामें पहुँच अवश्यम्भावी होता है । यह परिवर्तन एकान्तसे जाय जो यथार्थ तत्वदर्शनकी प्रगति और मोक्षसिद्धि निर्दोष श्रेयस्कर ही होगा ऐसा नहीं कहा जासकता। में साधक प्रमाणित हो। कई अवस्थाओं में वैयक्तिकरूपसे और कतिपयमें .. आप ही को मैं क्यों लिख रहा हूं, आपसे ही सामूहिक रूपसे परिवर्तन अर्थात इन्कलाब हित और उक्त आशा क्यों होती है, इसका भी कारण है । मेरा कल्याणके विरुद्ध अवाञ्छनीय नहीं नहीं-विष जीवनभर जैनसमाज और भारतवर्षके उत्थानमें फलदायक भी साबित होता है। मानव जातिका साधारणतया वाकशूर वा कलमशूरकी तरह नहीं समष्टिगत इतिहास इसका साक्षी है। अत: भारतमें गुजरा, मैंने असाधारण आकारके धन-पिण्डमें परिवर्तन-इन्कलाबका जो शोर चहुँ ओर मच रहा अपना और अपने हृदय मन्दिरकी दिव्य तपस्वीहै और जिसकी गूंज कोने-कोनेमें सुनाई दे रही है, मूर्तियोंका उबलता हुआ रक्त दिया है, जैनों और उससे जैनसमाज भी बच नहीं सकता । परन्तु भारतीयोंके उग्र तपोधन देवोंका प्रत्येक जीवन मार्ग अनेकान्तदृष्टिसे तथा अनेकान्तरूप व्यवहारमें जैन में स्वपर-भेद जनित वासनाया समाजके लिये उक्त परिवर्तन ध्वनिसे उत्पन्न हा सार्वहितके लक्षसे प्रगतिका क्रियात्मक संचालन किया
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अनेकान्त
[वर्ष ९
और कराया है । भारतवर्षीय जैन-शिक्षा-प्रचारक प्रताप', मदन', प्रकाश की जैसी राजनैतिक समितिका सङ्गठन स्वर्गीय दयाचन्द्र गोयलीय और आत्मोत्सर्गी चौकड़ियाँ मेरे सामने इस असमर्थ उनके वर्गके अन्य सत्यहृदयी कार्यकर्ता-मोती', दशामें भी चिर आराध्य-पदपर आसीन हैं; प्रातः१ स्वर्गीय वीर-शहीद मोतीचन्द सेठीजीके शिष्य थे। स्मरणीय आदर्श पण्डित-राज गोपालदासजी वरैया,
उन्हें श्राराके महन्तको वध करनेके अभियोगमें दानवीर सेठ माणिकचन्द्र और महिला-ज्योति मगन (सन् १९१३)में प्राण दण्ड मिला था। गिरफ्तारीसे बहनके आदिके नेतृत्व-मण्डलका मैं अंगीभूत पुजारी पूर्व पकडे जानेकी कोई सम्भावना नहीं थी। यदि अद्यावधि हूँ और पर्देकी ओटमें उन सबकी सत्ताशिवनारायण द्विवेदी पुलिसकी तलाशी लेनेपर वाटिकाका निरन्तर भोगी भी हूँ और योगी भी। स्वयं ही न बहकता तो पुलिसको लाख सर पटकने कौन किधर कहाँसे यहाँ क्या और वहाँ क्या इत्यादि पर भी सुराग़ महीं मिलता। पकड़े जानेसे पूर्व प्रत्येक प्रश्नके उत्तरमें मेरे लिये तो उक्त दिव्य महासेठीजी अपने प्रिय शिष्योंके साथ रोजानाकी मोतीचन्द और दूसरेका नाम था माणिकचंन्द्र या तरह घूमने निकले थे कि मोतीचन्दने प्रश्न किया जयचन्द्र। इन सभी विसवियोंके मनके तार ऐसे 'यदि जैनोंको प्राणदण्ड मिले तो वे मृत्युका ऊँचे सुरमें बंधे थे जो प्रायः साधु और फकीरोंके आलिङ्गन किस प्रकार करें ?' बालकके मुँहसे ऐसा बीच ही पाया जाता है। वीरोचित किन्तु असामयिक प्रश्न सुनकर पहले तो १ प्रतापसिंह वीर-केसरी ठाकुर केसरसिंहके सुपुत्र सेठीजी चौके, फिर एक साधारण प्रश्न समझकर और सेठीजीके प्रिय शिष्य थे। सेठीजीके उपदेश उत्तर दे दिया। प्रश्नोत्तरके १ घण्टे बाद ही पुलिस परसे ये उस समयके सर्वोच्च क्रान्तिकारी नेता ने घेरा डालकर गिरफ्तारकर लिया, तब सेठीजी स्वर्गीय रासविहारी बोसके सम्पर्कमें रहते थे। उनकी मृत्युसे वीरोचित जूझनेकी तैयारीका अभि- इनके जाँबाज कारनामे और आत्मोत्सर्गकी वीरप्राय समझे । ये मोतीचन्द महाराष्ट्र प्रान्तके थे। गाथा 'चाँद' वगैरहमें प्रकाशित हो चुकी है। इनकी मृत्युसे सेठीजीको बहुत आघात पहुंचा था। २ मदनमोहन मथुरासे पढ़ने गये थे। इनके पिता इनकी स्मृतिस्वरूप सेठीजीने अपनी एक कन्या सर्राफा करते थे। सम्पन्न घरानेके थे। सम्भवतः महाराष्ट्र प्रान्त जैसे सुदूर देशमें ब्याही थी। सेठी इनकी मृत्यु अचानक ही होगई थी । इनके छोटे भाई जीके इन अमर शहीद शिष्योंके सम्बन्धमें प्रसिद्ध भगवानदीन चौरासीमें ११-१४-१५में मेरे साथ विलववादी श्री० शचीन्द्रनाथ सान्यालने "बन्दी- पढ़ते रहे है, परन्तु मदनमोहनके सम्बन्धम काई जीवन" द्वितीय भाग पृ० १३७में लिखा है- बात नहीं हुई । बाल्यावस्थाके कारण इस तरहकी "जैनधर्मावलम्बी होते हए भी उन्होंने कर्तव्यकी बातें करनेका उन दिनों शऊर ही कब था? खातिर देशके मङ्गलके लिये सशस्त्र विप्लवका मार्ग ३ प्रकाशचन्द सेठीजीके इकलौते पुत्र थे। सेठीजी पकड़ा था। महन्तके खूनके अपराधमें वे भी जब की नजरबन्दीके समय यह बालक थे । उनकी फाँसीकी कोठरीमें कैद थे, तब उन्होंने भी जीवन- अनुपस्थितिमें अपने-परायोंके व्यवहार तथा आपमरणके वैसे ही सन्धिस्थलसे अपने विप्लवके दाओंके अनुभव प्राप्त करके युवा हुए । सेठीजी साथियों के पास जो पत्र भेजा था, उसका सार ५-६ वर्षकी नजरबन्दीसे छूटकर आये ही थे कि कुछ ऐसा था-"भाई मरनेसे डरे नहीं, और उनकी प्रवास-अवस्थामें ही अकस्मात मृत्यु होगई। जीवनकी भी कोई साध नही है। भगवान् जब सेठीजीको इससे बहुत आघात पहुँचा । इन्हीं जहाँ जैसी अवस्थामें रक्खेंगे, वैसी ही अवस्थामें। प्रकाशकी स्मृति-स्वरूप इनके बाद जन्म लेने वाले सन्तुष्ट रहेंगे।" इन दो युवकोंमेंसे एकका नाम था पुत्रका नाम भी उन्होंने प्रकाश ही रक्खा।
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किरण ४]
सेठीजीका अन्तिम पत्र
पुरुषोंकी आत्माएँ ही अचूक परीक्षा-कसौटीका काम वा अव्यवहार्य, लाभप्रद वा हानिकर इत्यादि अनेक देती हैं, चाहे उस समयमें और अब जीवोंके परिणाम रूप-रूपान्तरमें मौजूद हैं। उनमेंसे प्रत्येकका तथा और लेश्याओंमें जमीन आस्मानका ही अन्तर क्यों उनसे सम्बन्ध रखने वाली घटनाओंका गृहस्थ तथा न हो गया हो।
त्यागी, श्रावक-श्राविकाओंके दैनिक जीवनपर एवं ___ सतनामें परिषदका अधिवेशन पहला मौका था मन्दिर-तीर्थों अथवा अन्य प्रकारकी नूतन और तब उल्लेखनीय जैनवीर-प्रमुख श्री....................... पुरातन संस्थाओंपर पड़ा है, वह भी आपके सम्मुख के द्वारा आपसे मेरी भेंट हुई थी। मैं कई वर्षों के है । मैं तो प्रायः सबमें होकर गुजर चुका हूँ, और उपयुक्त मौनाग्रहबतके बाद उक्त अधिवेशनमें शरीक उनके कतिपय कड़वे फल भी खूब चाख चुका हूँ और हुआ था । इधर-उधर गत-युक्तके सिंहावलोकनके चाख रहा हूँ। अतः आपका और आपके सहकारी पश्चात् मैं वहाँ इस नतीजेपर पहुँच चुका था कि आप कार्य-कर्ताओंका विशेष निर्णायक लक्ष इस बार में सत्य-हृदयता है और अपने सहधर्मी जैनबन्धुओं अनिवार्य-अटल होना चाहिये। नहीं तो जैन सङ्गठन के प्रति आपका वात्सल्य ऊपरकी झिल्ली नहीं है किन्तु और जैनत्वकी रक्षाके समीचीन ध्येयमें केवल वाधाएँ रगोरेशेमें खौलता हुआ खून है परन्तु तारीफ़ यह है ही नहीं आएँगी, धक्का ही नहीं लगेंगे, प्रत्युत नामोकि ठोस काम करता है और बाहर नहीं छलकता। निशान मिटा देने वाली प्रलय भी होजाय तो मानव
जातिके भयावह उथल-पुथलके इतिहासको देखते इस तरह मुझे तो दृढ प्रतीत होता है कि आपके हुए कोई असम्भव बात नहीं है । अल्पसंख्यक सामने यदि मैं जैनसमाजके आधुनिक जीवन-सत्वके जातियोंको पैर फूंक-फूंककर चलना होता है और सम्बन्धमें मेरी जिन्दगी भरकी सुलझाई हुई गुत्थियों बहुसंख्यक जातियों के बहुतसे आन्दोलन जो उन्हींको को रख दूं तो आप उनको अमली लिबासमें जरूर उपयोगी होते हैं. अल्पसंख्यकोंमें घुस जाते हैं और रख सकेंगे। अपेक्षा-विचारसे यही निश्चयमें आया। उनके लिये कारक होनेकी अपेक्षा मारकका काम देते बन्धुवर,
हैं। उनकी बाहरी चमक लुभावनी होती है, कई ___आपने राष्ट्रीय राजनैतिक क्षेत्रके गुटोंमें घुल-घुल हालतोंमें तो आँखोंमें चकाचौंध पैदाकर देती है, कर काम किया है, उसकी रग-रगसे आप वाकिफ मगर वास्तवमें Old is not gold glitters हरेक हो चुके हैं और तजरुबेसे आपको यह स्पष्ट हो चुका चमकदार पदार्थ सोना ही नहीं होता। बहसंख्यक है कि हवाका रुख किधरको है। इसीसे परिणाम लोगोंकी तरफसे मखमली खूबसूरत पलङ्गोंसे ढके स्वरूप आपने निर्णय कर लिया कि जैनेतरोंकी ज्ञात हुए खड्डे विचारपूर्वक वा अन्तःस्थित पीढ़ियोंक वा अज्ञात भक्ष्य-भक्ष्यक प्रतिद्वन्द्विताके मुकाबिलेमें स्वभावज चक्रसे तैयार होते रहते हैं जिनके प्रलोभन सदियोंके मारे हुए जैनियोंके रग-पट्ठोंमें जीवन-संग्राम और ललचाहटमें फंसकर अल्पसंख्यक लोग शत्रुको
और मूल संस्कृतिकी रक्षाकी शक्ति पैदा हो सकती है ही मित्र समझने लगते हैं, यही नहीं; किन्तु अपने तो केवल उन्हीं साधनों और उपायोंसे जो दूसरे सत्व-स्वत्वकी रक्षाका खयाल तक छोड़ बैठते हैं। लोग कर रहे हैं अथवा जिनमें बहुत कुछ सफलता किमाधिकम् इस स्व-रक्षणकी भावना वासना भी जैनोंके सहयोगसे मिलती है। ......................... उनको अहितकर अँचने लगती है। इसके अलावा
आपके सामने आधुनिक काल-प्रवाहके भिन्न- भावी उदयावलीके बल अथवा यों कहूँ कि कालदोष भिन्न आन्दोलन समूह धार्मिक वा सामाजिक, से अभागे अल्पसंख्यकोंमेंसे कोई कंस जैसे भी पैदा वाञ्छनीय वा अवाञ्छनीय, हेय वा उपादेय, उपेक्षणीय होजाते हैं जो अपने घरके नाश करनेपर उतारू वा अनुपेक्षणीय, आदरणीय वा तिरस्कार्य, व्यवहार्य होजाते हैं, गैरोंके चिराग़ जलाते हैं और पूर्वजोंके
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सम्पादकीय
वीर जयन्ती
गत वर्षोंकी तरह इस वर्ष भी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को वीर-प्रभुकी जयन्ती समूचे भारतमें अत्यन्त उत्साहपूर्वक मनाई गई। इस वीर जयन्तीकी प्रणाली से जैनधर्मका काफी प्रसार हुआ है । पहले जैनसमाजके उत्सव आदि अत्यन्त संकुचित रूपमें होते थे । प्रायः जैनमन्दिर, जैनधर्मशाला और जैन उपाश्रय ही उत्सव और व्याख्यानादिके क्षेत्र नियत थे । सार्वजनिक सभाओंके करनेका न तो आमतौरपर साहस होता था और न इस तरह के व्याख्यानदाता ही प्राप्त थे ।
वीर जयन्तीकी यह परिपाटी पड़ जानेसे बड़ामहत्वपूर्ण कार्य हुआ है । इस अवसरपर अब प्रायः सर्वत्र सार्वजनिक स्थानोंपर सभाएँकी जाती हैं, कबि सम्मेलनों- मुशायरों का भी आकर्षक कार्यक्रम रखा जाता है; सर्वधर्म सम्मेलन किये जाते हैं; नगरजुलूस निकाले जाते हैं और व्याख्यान देनेके लिये नेताओं -लोकसेवी विद्वानोंको भी बुलानेका प्रयत्न किया जाता है। कितने ही स्थानोंपर जैनधर्मके समीपके सम्प्रदायोंके अनुयायी भेदभाव भूलकर यह उत्सव मनाते हैं और अपने भिन्नधर्मी देशवासियों को भी प्रेमपूर्वक उसमें सम्मिलित करते हैं ।
घरको अँधेरा नरक बना देते हैं ।
............इस तरह जैनकुलोंमें, जैनपञ्चायतोंमें, जैनगृहों में चलती चलाती ठण्डी पड़ी हुई अम्नाश्रमें कलह, भीषण क्षोभ, और तत्कालस्वरूप तीव्र कषायोदय और अशुभ बन्धके अनेक निमित्त कारणोंसे बचाकर जैनोंका रक्षण, संगठन और उत्थान होगा, तभी इस समयकी लपलपाती हुई अनेकान्त-नाशक जाज्वल्यमान दावाग्निसे जैनधर्म और जैनसंस्कृति स्थिर रहेगी।
इस प्रयत्न से भ्रातृत्व की भावना बढ़ती है, जैनधर्मके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न होती है, फैली हुई अनेक भ्रामक धारणाएँ दूर होती हैं और जैनधर्मके मानवोचित सिद्धान्तों का व्यापक प्रसार होता है ।
वीर जयन्ती के समान और भी सार्वजनिक तथा व्यापक दृष्टिकोण वाले उत्सवोंकी परिपाटी डालनी चाहिये । वीरसेवामन्दिर द्वारा वीर शासन- जयन्तीका आयोजन भी इसी तरहका पुण्य प्रयास है। अब इसका व्यापक प्रचार होनेकी नितान्त आवश्यकता है । कलकत्ता, बम्बई में पर्यूषण पर्वपर व्याख्यानमाला की सूम भी अभिनन्दनीय है । आशा है अब जैनसमाज के 'वाले शहरों - इन्दौर, अजमेर, व्यावर, बहुजनता जयपुर, सहारनपुर, देहली, जबलपुर, अहमदाबाद आदिके उत्साही कार्यकर्ता इस प्रथा का अनुसरण करेंगे । १५-२० शहरोंके कार्यकर्ताओं की एक समिति बन जानी चाहिये, जो सार्वजनिक २० - २५ व्याख्यानदाताओंका निर्वाचन करके इस तरहका कार्यक्रम निर्धारित करें जिससे ये विद्वान् १० शहरों में निरा कुलता पूर्वक जाकर पर्युषण पर्वमें व्याख्यान दे सकें । स्थानीय कार्यकर्ता विद्वानोंके बुलाने आदिकी झंझटसे इस संगठित प्रणालीसे व्यय भी कम होगा और भी बच सकेंगे । दस रोज एकसे एक नये विद्वान्का व्याख्यान सुनने के लिये जनता भी उत्साहित रहेगी और जैनधर्मको धीरे-धीरे सार्वजनिकरूप भी प्राप्त होगा ।
भारत के लोकोपयोगी और सार्वजनिक कार्यों में जैनों का सदैव भरपूर सहयोग रहा है। हर उन्नत कार्यों में सर्वत्र जैनोंने हाथ बटाया है, फिर भी वे सार्वजनिक दृष्टिकोण में कितने उपेक्षित हैं, यह आभास पग-पग पर होता है।
इसका कारण यही है कि हमने इस विज्ञापन के युगमें जैनधर्मके सिद्धान्तोंको जनताके सामने लानेका
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किरण ४ ]
ठीक-ठीक प्रयत्न नहीं किया । न हमने जैनधर्म सम्बन्धी कोई ऐसा ग्रन्थ निर्माण किया जिससे जनता जैनधर्मके व्यापकरूपको समझ सके; न हमने जैनधर्मानुयायी आचार्यों, कवियों, राजाओं, सेना'नायकों, शूरवीरों और कर्मवीरोंका प्रामाणिक इतिहास ही प्रकाशित किया है; न हमने जैन-चित्रकलाका परिचय दिया है और न हमने अपने लोकसेवी कार्य कर्ताओं का ही उल्लेख किया है। फिर किस आधार पर और किस विशेषतापर लोग जैनधर्मकी ओर आकर्षित हों और क्योंकर सार्वजनिकरूपमें जनताके सामने उल्लेख हो ।
साहित्य-परिचय और समालोचन
इस विज्ञापन के युग में विज्ञापनके बलपर जापानी इमीटेशन घर-घर पहुँच सकते हैं और विज्ञापनका साधन न मिलनेसे हीरे-मोती बक्सोंमें रखे धूल फाँकते रहते हैं ।
अतः आवश्यकता इस बातकी है कि जैन समाज अपने संकुचित सम्प्रदाय के गड्ढेसे निकलकर जैनधर्म सत्य-अहिंसा अपरिग्रहवादका सार्वजनिकरूप से विश्लेषण करे | हमारे साधु, मुनिराजोंको अ उपाश्रय और मन्दिरकी संकुचित चारदीवारीसे निकलकर आम जनताके सामने अपने दिव्य उपदेश देने चाहिएँ । हमें अपने मन्दिरोंके पुराने ढङ्ग बदलने
१ श्रादिपुराण [ छन्दोबद्ध ]
लेखक, कवि श्रीतुलसीरामजी देहली। प्रकाशक, मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया, चन्दावाड़ी, सूरत । पृष्ठ संख्या ३८४ मूल्य ४) रुपया ।
इस ग्रन्थका विषय इसके नामसे प्रसिद्ध है। इसमें जैनियोंके प्रथम तीर्थकर भगवान श्रादिनाथका, जिन्हें भागवतके पश्चम स्कन्धमें ऋषावतार के नामसे उल्लेखित किया गया है, जीवन-परिचय दिया हुआ है। साथ ही उनके पूर्वभवोंका चित्रण करते हुए
डालमियानगर (विहार) २६ अप्रैल ४८
साहित्य- परिचय और समालोचन
होंगे। उनके सोने-चाँदी के चँवर - छतर- उपकरण तथा वर्तमान पूजा-पद्धति ही जैनधर्मके व्यापक प्रचारको रोकती है। जैनधर्मके मन्दिर ऐसे होने चाहिएँ कि जहाँ न चौकीदारकी आवश्यकता रहे, न पुजारीकी और न ताले - कुञ्जी की । एक ऐसी आमफहम ( सबकी समझमें आने योग्य) दर्शन-पूजा-पद्धति हमें चालू करनी होगी जो मानवमात्र के लिये उपयोगी हो सके। हर मनुष्य भगवान्की शरण में जा सके, हमें इस ओर अविलम्ब प्रयत्न करना होगा ।
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सदियों पूर्व श्रवणबेल्गोलमें भगवान् बाहुबलिकी मूर्तिका निर्माण करके हमारे पराक्रमी पूर्वजोंने हमारे सामने एक आदर्श रख दिया था और बता दिया था कि जिस वीतराग मूर्तिके ऊपर न चँवर है न छतर है, जो न तालेमें बन्द है न पुजारीके आश्रित है, उस मूर्तिके आगे वे भी नतमस्तक होंगे जो हीरे-जवाहरातकी मूर्तियों से भी प्रभावित नहीं होते हैं। हम इस व्यापक और महान आदर्शको न समझ पाए और हमने वीतराग भगवान और जिनवाणी माताको तालोंमें बन्द करके रख दिया !
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-गोयलीय
प्रसङ्गवश अन्य कथाओं को भी दिया गया है । प्रन्थ में २० सर्ग हैं जिनकी श्लोक संख्या चार हजार छह सौ अट्ठाईस बतलाई गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दी के विद्वान् भट्टारक सकलकीर्तिके संस्कृत आदिपुराणका हिन्दी पद्यानुवाद है । प्रन्थमें चौपई, पद्धड़ी, घत्ता, दोहा, भुजङ्गप्रयात, मन्दाक्रान्ता, अडिल्ल, मोतियादाम आदि विविध छन्दोंका उपयोग किया गया है । कविता साधारण होते हुए भी वह भावपूर्ण है । इस पद्यानुवादके कर्ता पं० तुलसीरामजी हैं जो दिल्लीके निवासी थे, जो धर्मात्मा,
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अनेकान्त
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सज्जन तथा उदार प्रकृतिके थे, और समाजके कार्योंमें हुई महाजनोंकी गृहीजीवनकी त्याग और समुदार सदा भाग लिया करते थे। इनका ४० वर्षकी अल्प भावनाको प्रकट करती है। लेखकने इसमें पर्याप्त वयमें ही संवत् १९५६में स्वर्गवास हुआ है इस परिश्रम किया है और वह अपने कार्यमें सफल भी ग्रन्थकी प्रस्तावनाके लेखक पं० सुमेरचन्दजी न्याय- हुआ है। इस पुस्तककी प्रस्तावनाके लेखक भार्मक तीर्थ उन्ननीषु हैं। प्रस्तावनामें ऐतिहासिक दृष्टिसे विट्ठल वरेरकर हैं, जो मामा वरेरकरके नामसे प्रसिद्ध भगवान ऋषभदेवके जीवनपर विचार किया होता हैं और मराठी वाङ्मयके सफल लेखक हैं। छपाई बथा ग्रन्थकी कविता और भाषा आदिके सम्बन्धमें सफाई अच्छी है, परन्तु मूल्य कुछ अधिक जान
आलोचनात्मक दृष्टिसे विचार किया जाता तो ग्रन्थकी पड़ता है। उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती। अस्तु
३ टोडरमलाङ्क [विशेषाङ्क] इस प्रन्थके प्रकाशक मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया हैं जिन्होंने ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीके
सम्पादक, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ और पं० स्मारक फण्डसे प्रकाशित किया है। और इस तरह
भँवरलाल न्यायतीर्थ, मनिहारोंका रास्ता, जयपुर । ब्रह्मचारीजीकी कीर्तिको अक्षुण्ण बनानेका प्रयत्न
वार्षिक मूल्य ३) रु० । इस अङ्कका मूल्य २) रुपया। किया है, परन्तु इस ग्रन्थके प्रकाशमें लानेका सबसे प्रस्तुत अङ्क वीरवाणीका विशेषाङ्क है जो प्राचार्य-प्रथम श्रेय बाबू पन्नालालजी अग्रवाल देहलीको है कल्प पं० टोडरमलजीकी स्मृतिमें निकाला गया है। जिन्होंने इसकी प्रेस कापी स्वयं करके भेजी है। आप इसमें पं० जीके जीवन-परिचयके साथ उनके कार्योंका बहत ही प्रेमी सज्जन हैं. श्रापको अप्रकाशित साहित्य संक्षिप्त परिचय भी कराया गया है। यद्यपि पण्डित के प्रकाशमें लानेका बड़ा उत्साह है। अतएव दोनों जीके व्यक्तित्व एवं पाण्डित्यके सम्बन्धमें खासा ही महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं । पुस्तकमें प्रेस मोटा ग्रन्थ लिखा जा सकता है, इससे पाठक सहज सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं फिर भी ग्रन्थ ही में जान सकते हैं कि वे कितने महान् थे ! समाजपठनीय है।
में उनके ग्रन्थोंके पठन-पाठनका अच्छा प्रचार है।
अतएव उनके नामसे जनता परिचित तो थी; किन्तु २ महाजन [ऐतिहासिक उपन्यास]
उनके जीवन-चरितसे प्रायः अपरिचित थी। अतएव लेखक, कृष्णलाल वर्मा । प्रकाशक, बलवन्तसिंह इस दिशामें पं० चैनसुखदासजीके प्रयत्नस्वरूप वीरमहता, साहित्य कुटीर सोनाशेरी, उदयपुर । पृष्ठ वाणीका यह विशेषाङ्क अपना खासा महत्व रखता संख्या १४८ । मूल्य सजिल्द प्रति २।।) रुपया। है। परन्तु अङ्ककी साधारण छपाई-सफाई तथा प्रूफ
प्रस्तुत पुस्तक एक ऐतिहासिक उपन्यास है सम्बन्धी कुछ अशुद्धियोंको देखकर दुःख भी होता जिसमें गुजरातके बादशाह मुहम्मद बेगड़ाके समय है, कि क्या जैनसमाज अपने पूर्वजोंके उपकारको वि० सं० १५०२से १५६८के मध्य घटने वाली घटना- भूल गई है. ? जो सुवर्णाक्षरोंमें अङ्कित करने योग्य का चित्रण है, जो गुजरातके समय खेमा सेठ द्वारा है। सचमुच वीरवाणीने अपने थोड़े ही समयमें एक वर्ष तक दिये हुए अन्नदान और उसके उपलक्षमें अच्छी प्रगति की है। आशा है भविष्यमें अपनेको मुहम्मद बेगड़ाद्वारा प्रदान की हुई 'शाह' पदवी वह और भी समुन्नत बनानेका प्रयत्न करेगी।
आदिको उपन्यासका रूप दिया गया है । पुस्तक अकालकी समस्याको सुलझानेका मागं प्रदर्शन करती
परमानन्द जैन सांधेलीय
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| भारतीय ज्ञानपीठ काशीके प्रकाशन |
. महाबन्ध-(महधवल सिद्धान्तशास्त्र) प्रथम भाग । हिन्दी टोका सहित मूल्य १२) ।
२. करलक्खण-(सामुद्रिक-शास्त्र) हिन्दी अनुवाद सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती। मूल्य १)।
३. मदनपराजय- कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रम्तावना सहित । जिनदेवके कामके पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-पं० राजकुमारजी सा० । मू०८)
४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने वाली सुन्दर रचना । हिन्द विश्वविद्यालयके जैन रिलीजनके एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । मुखपृष्ठपर महावीरस्वामीका तिरङ्गा चित्र । मूल्य ४)
५. हिन्दी जैन-साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी जैन-साहित्यका इतिहास तथा परिचय । मूल्य २)।
६. आधुनिक जैन-कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३॥)।
७. मुक्ति-दुत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौराणिक रौमाँस) मू०४1)
८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण योग्य । मूल्य ३)।
९. पथचिह्न-(हिन्दी-साहित्यकी अनुपम पुस्तक ) स्मृति रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २)।
१०. पाश्चात्यतकशास्त्र--(पहला भाग) एफ० ए० के लॉजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी काश्यप, एफ० ए०, पालि–अध्यापक, हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी । पृष्ठ ३८४ । मूल्य ४||)।
११. कुन्दकुन्दाचार्यके तीन रत्नमूल्य २)।
१२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडबिद्रीके जैनमठ, जैनभवन, सिद्धान्तवमदि तथा अन्य ग्रन्थ भण्डार कारकल और अलिपूरके अलभ्य ताडपत्रीय ग्रन्थोंके सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्र-भण्डारमें विराजमान करने योग्य । मूल्य १०)।
MediaNETRIESWAREGARohtashish
BREEDO
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वीरसेवामन्दिरके सब प्रकाशन भी यहाँपर मिलते हैं
. प्रचारार्थ पुस्तक मँगाने वालोंको विशेष सुविधाएँ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस ।।
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________________ - - - - - - Regd. No. A-731 -- - वीरसेवामन्दिरके नये प्रकाशन 1 अनित्यभावना-मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजी न्याय-दीपिका (महत्वका नया सस्करण) के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित / इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजी कोठिया द्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट संस्करण बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है। अपनी खास विशेषता रखता है। अबतक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियाँ चली प्रारही थीं उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसता आजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोपरसे संशोधनको लिये हुए यह सस्करण मूलगन्य योग्य है। मूल्य।) और उसके हिन्दी अनुवादके साथ पाक्कथन, सम्पादकीय, 2 श्राचार्य प्रभाचन्द्रका तस्वार्थसूत्र नया 101 पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई प्रास संक्षिप्त सूत्रगन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी परिशिष्टोसे संकलित है, साथ में सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित सानुवाद व्याख्या सहित / मूल्य / ) 'प्रकाशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण भी लगा हुआ है, जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंको खुलासा करता 3 सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ-मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना, हुअा विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित / इसमें श्रीवीर है / लगभग 400 पृष्ठों के इस सजिल्द वृहत्संस्करणका बद्धमान और उनके बादके, जिनसेनाचार्य पर्यन्त,२१ लागत मूल्य 5) 20 है। कागजकी कमीके कारण थोड़ी ही पतियाँ छपी हैं और थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं। महान् आचायाँके अनेकों प्राचार्यों तथा विद्वानों द्वारा किये गये महत्वके 136 पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और अतः इच्छुकांको शीघ्र ही मँगा. लेना चाहिये / शुरूम 1 लोकमंगल-कामना, 2 नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना _ विवाह-समुद्देश्य-लेखक पं० जुगल किशोर 3 साधुवेषनिदर्शन-जिनस्तुति, 4 परमसाधुमुखमुद्रा और मुख्तार, हालमें पकाशित चतुर्थं संस्करण / 5. सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं। पुस्तक पढ़ते यह पुस्तक हिन्दी-साहित्यमें अपने ढंगकी एक ही समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाह-जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही आचार्योंका कितना ही इतिहास सामने आजाता मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है। अनेक है / नित्य पाठ करने योग्य है। मू / ) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-पवृत्तियों से उत्पन्न हुई 4 अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्याओंको बड़ी यक्तिके तथा लाटी संहिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविधर राजमन. साथ दृष्टिके स्पष्टीकरण-द्वारा सुलझाया गया है और इस की अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कजेमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है। विवाह किया गया है। साथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी क्यों किया जाता है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रमकोठिया और पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीका सुन्दर स उसका क्या सम्ब से उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? अनुवाद, विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोर उसकालय वण श्रार जातिका क्या नियम होसकता है। जीकी लगभग 80 पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? गड़ा ही उपयोगी अन्य है। मू० 1||) इत्यादि बातोंका इस पुस्तकमें बड़ा ही युक्ति पुरस्सर एवं हृदयग्राही वर्णन है। बढ़िया पार्ट पेपरपर छपी है। 5 उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू-D श्रीजुगल किशोरजीकी अन्धपरीक्षाओंका प्रथम अंश, अन्थ-परीक्षाओंके इतिहासको लिये हुये 14 पेजकी नई प्रकाशन विभागपस्वावना-सहित। मू) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) -. -. - -. -. -oan प्रकाशक-६० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय शानपीठ काशीके लिये आशाराम खत्री द्वारा रॉयल प्रेस सहारनपुरमें मुद्रित anyoga