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________________ किरण ४] महामुनि सुकुमाल १५९ 'हे पुत्री ! तू शीघ्र विकाके व्रतोंको धारण कर। विशेष कोमलताके कारण उनके चरणोंमेंसे रुधिरकी तुझे संसार में परिभ्रमण करते-करते अनन्तकाल बीत धार बह निकलती है। पर सुकुमाल इसकी कुछ भी गया, तेरी आयु भी अल्प है, जो शीघ्र पूरी होरही परवाह न करते हुए और वैराग्यभावोंसे ओत-प्रोत है । मुनिराजके करुणा-भरे इन वचनोंको सुनकर होते हुए निग्रन्थ मुनियोंके चरणों में जाकर भक्तिवह शीघ्र विकाके व्रतोंको भावसहित धारण करके पूर्वक वन्दना करके नतमस्तक होकर उनसे विशेष दृढ़ताके साथ पालन करती हुई मरणको प्राप्त होती प्रार्थना करते हैं । हे प्रभो ! हे कल्याणमूर्ति ! हे है और स्वर्गमें देवपर्यायको धारण करती है- अनन्तगुणोंके स्वामी ! हे पतितोद्धारक ! मुझे शीघ्र स्त्रीलिङ्गका विच्छेद कर देती है। वहाँसे चयकर यही उबारो । मैं इस संसाररूपी काराग्रहसे निकलकर देवपय्योयका जीव एक राज सेठानीका पुत्र सुकु- निज कुटुम्बमें वास करना चाहता हूँ। मैं अब इस माल कुमार होता है। संसारसे तप्तायमान हूँ । प्रभो ! मैं अब आपके चरणों देखो, कर्मकी विचित्रगति ! कहाँ तो दुर्गन्धयुक्त में रहकर इन कर्म-फाँसोंका तार-तार करूँगा । इनको अस्पृश्य और अछूत कन्या और कहाँ महान ऋद्धि- निःसत्त्व करके आपके सदृश बनंगा। मैं संसार-वनी धारी स्वर्गका देव ! फिर कहाँ ये राजभोग, वैभवके में आज तक भ्रमा । हे प्रभो! हे स्वामिन ! सिंह ठाठ! जिनके अनेक स्त्रियाँ तथा कोमल शरीर । जिस होते हुए भी मैं अपनेको भूलकर गधोंकी टोलीमें शरीरमें राई और सरसों भी चुभती हो, जिनके नेत्रों- फँस गया और कुम्हारके डडे, अपनी ही भूलसे मेंसे आरतीके दीपकसे भी जल झरने लगे, जिनका अपनी ही मूर्खतासे, आज तक खाता रहा! महान् कोमल शरीर एक विशेष प्रकारके तंदुल ही हे प्रभो! उबारो! मुझ पतितको उबारो! अब मैं चन-चुनकर भक्षण कर सके । कितनी कोमलता! आपके चरणों में आया हैं। मुझे निरखो और अपना कितना राजसी-ठाठ ! वही सुकमाल कुमार एक दिन सेवक समझ मेरे कल्याण-मार्गकी जननी देव-दुर्लभा इस शरीर, कुटुम्ब और भोगोंको अनथेकारी समझ श्रीभगवती जिनदीक्षा मुझे प्रदान करो । यही मुझ संसार और देहसे भयभीत होकर और स्वको । दासानुदासकी आपसे प्रार्थना है। वे महाम् योगी निरखकर एक सिंहकी तरह-गर्जना करते हैं और परम वीतरागी, परम वात्मल्य-गुणधारी, धीर-वीर, अपनेको सम्बोधते हैं-हे मूर्ख ! तूने आज तक इन ऋषिवर अपने युगल नेत्रोंको सकुमालकी तरफ माता, स्त्री, धन-दौलत आदि भोगोंके चक्करमें घुमाते हैं और मधुर-कोमल शब्दों द्वारा कहते हैंपड़कर समस्त जीवन, समस्त काल और समस्त भावनायें व्यर्थ गॅवाई। अब तो चेत ! और अपनेको 'हे वत्स ! तूने प्रशंसनीय विचार किया। तूने पहचान ! तू तो पूर्ण प्रभु है। इस कंटक-पूर्ण मार्गका स्वको समझ लिया और यह भी जान लिया कि त्याग कर । इन कम-फाँसोंसे निकल । अन्यथा प्रात:- पूवेले भवमें तेरी यह आत्मा पूर्ण दुर्गन्धसे युक्त काल होनेपर तू यहाँसे नहीं निकल सकेगा, इसलिये अस्पृश्य (अछूत) कन्याके शरीरमें बन्द थी। अब शीघ्रता कर । तूने होश किया। अब ही सही। अब भी तेरी आय - यह विचार दृढ करते हीशीघ्रतासे ऊपरली खिड़की ३ दिवसकी है, इसलिये तीन दिवसमें ही तेरा के रास्ते धोती-दुपट्रोंकी कमन्द बनाकर वे धीरे-धीरे कल्याण होगा। तू स्थिर हो स्वमें समा जा । यह श्रीनीचे आते हैं। उनका वह महान् कोमल शरीर आज भगवती जिनेन्द्र दीक्षा तेरा कल्याण करेगी। कमन्दकी रगड़ोंको खाता हुआ नीचे आता है और ऐसा कहकर वीतरागताके धनी उन परउपकारनीचे आनेपर वह पथरीली कंटक-सहित भूमिपर निरत निर्ग्रन्थ मुनिराजने सुकुमालको श्रीजिन-दीक्षासे अपने युगल चरणोंको रख देता है । भूमिको छूते ही भूषित किया । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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