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________________ १६० अनेकान्त [वर्ष ९. प्रभु सुकुमाल, वे राजर्षि सुकुमाल श्रीभगवती निश्चल हूँ, निजरस्वरूप हूँ, नित्यानन्द हूँ, सत्यजिनदीक्षासे विभूषित होकर तुरन्त वनको विहार स्वरूप हूँ, समयसार हूँ। और यह देह गलनरूप, रोग करते हैं और उनके पीछे-पीछे उनके चरणोंसे जो रूप, नाना प्राधि-व्याधियोंका घर है। यह मेरी नहीं रुधिर बहता आरहा था उसको चाटते हुए उनके और न मैं इसका हूँ। कौन कह सकता है कि ऐसे पूर्वले भवकी लात खाई हुई भावजका जीव शृगाली ध्यानमग्न और उच्चतम आत्मीय भावनामें लीन और उसके दो बच्चे तीनों वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँपर महामुनि सुकुमाल शृगालीके द्वारा खाये जाते हुए प्रभु सुकुमाल ध्यान-अवस्थाम-अखंड ध्यानमें निश्चल दुखी थे। नहीं, नहीं, शृगालीके द्वारा खाये जाते हुए विराज रहे थे। वे महामुनि दुखी नहीं थे, किन्तु उनका आत्मा प्रभुको शृगाली अपने बच्चों सहित चरणोंकी परम सुखी था। वे तो आत्माकी चैतन्य परिणतिरूप तरफसे चाटना शुरू कर देती है, चाटते-चाटते वह अ अमृतका पान कर रहे थे। आत्माका सुखानुभव भक्षण करना प्रारम्भ कर देती है, उधर दोनों बच्चे करनेमें वे ऐसे लीन थे कि शरीरपर लक्ष्य ही नहीं . भी प्रभुको भक्षण करते हैं । इस तरह वे तीनों हिंस्र था। वे अनन्त सिद्धोंकी पंक्तिमें बैठकर आत्माके जन्त उन महान मनि श्रीसकमाल वापस आनन्दामतका उपयोग कर रहे थे। दिवस पर्य्यन्त भक्षण करते रहे । भक्षण करते-करते इस प्रकार ध्यानमें लीन हो प्रभु इस नश्वर देहस वे प्रभुकी जंघा तक पहुँच गये। उधर प्रभ ध्याना- विदा होकर सर्वार्थसिद्धि विमानमें विराजमान हो रूढ हैं। ध्यानमें विचारते हैं-मैं तो पूर्ण ब्रह्मस्वरूप जाते हैं, जहाँसे एक मनुष्य पय्याय प्राप्तकरके उसी हूं, आत्मा हूँ , ज्ञानस्वरूप हूँ , ज्ञायक हूँ, चिदानन्द भवसे मोक्षमें पधारेंगे । धन्य इन महात्मा सुकुमाल हूँ, नित्य हूँ , निरञ्जन हूँ, शिव हूँ, ज्ञानी हूँ, अखंड स्वामीको । मेरा इन प्रभुवरको बारम्बार नमोस्तु । हूँ, शुद्ध आत्मा हूँ, स्वयंभू हूँ, आनन्दमयी हूँ, ता० २२-४-४८ पं० रामप्रसादजी शास्त्रीका वियोग ! ' पं० रामप्रसादजी शास्त्री, प्रधान कार्यकर्ता ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन, बम्बई' का चैत्र वदी २ रविवार ता० ११ अप्रैलको शाम ५ बजे अचानक स्वर्गवास होगया। आप अर्सेसे अस्वस्थ चल रहे थे। आपके निधनसे समाजकी बड़ी क्षति हुई है। आप बड़े ही मिलनसार थे और वीरसेवामन्दिरको समय-समयपर भवनके अनेक प्रन्थोंकी प्राप्ती होती रहती थी। आपकी इस असामयिक मृत्युको सुनकर वीरसेवामन्दिर परिवारको बड़ा दुःख तथा अफसोस हुआ। हम दिवङ्गत आत्माके लिये परलोकमें सुख-शान्तिकी कामना करते हुए उनके कुटुम्बीजनोंके प्रति हार्दिक सम्वेदना व्यक्त करते हैं। . -परमानन्द शास्त्री Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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