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________________ किरण ३] रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय १३५ किया है। सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई और अर्थतः अकलङ्ककृत राजवार्तिक एवं विद्यानन्दिकृत पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों श्लोकवार्तिकमें प्रायः पूरी ही प्रथित है । अत: जिसने स्थलोंपर किया गया है वे तीन स्थल कौनसे हैं अकलङ्ककृत और विद्यानन्दिकी रचनाओंको हृयङ्गम जहाँपर सर्व अर्थकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं कर लिया उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं आजाती है। रत्न- प्राप्त होजाती है ? तब प्रोफेसर साहव उत्तर देते हुए करण्डके इस उल्लेखपरसे निर्विवादतः सिद्ध होजाता लिखते हैंहै कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन "मेरा खयाल था कि वहाँ तो किसी नई है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्हीं है।" ऐसी हालतमें "रत्नकरण्डकारका श्राप्तमीमांसा तीन स्थलोंकी सङ्गति सुस्पष्ट है जो टीकाकारने बतला के कर्तासे एकत्व सिद्ध नहीं होता।" दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चारित्र; क्योंकि वे यहाँ प्रो० साहब-द्वारा कल्पित इस लेखा तत्त्वार्थसूत्रके विषय होनेसे सर्वार्थसिद्धिमें तथा प्रकसुघटित होने में दो प्रबल बाधाएँ हैं-एक तो यह कि लङ्कदेव और विद्यानन्दिकी टीकाओं में विवेचित हैं और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है।" जब 'वीतकलंक' से अकलंकका और विद्यासे विद्यानन्दका अर्थ लेलिया गया तब 'दृष्टि' और 'क्रिया' दो यह उत्तर कुछ भी सङ्गत मालूम नहीं होता; क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'त्रिषु विष्टयेषु' का स्पष्ट ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मलनिर्दोष अथवा सम्यक् जैसे मौलिक विशेषणसे शुन्य। अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमें' दिया है। ऐसी हालतमें श्लेषार्थके साथ जो “निर्मल ज्ञान" अर्थ उसके स्वीकारकी घोषणा करते हुए और यह आश्वाभी जोड़ा गया है वह नहीं बन सकेगा और उसके 14 सन देते हुए भी कि उस विषयमें टीकाकारसे भिन्न न जोड़नेपर वह श्लेषार्थ ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ "किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं" टीकाकार का अर्थ न देकर 'अर्थात' शब्दके साथ उसके अर्थअसङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमें तृतीय पद्यसे प्रारम्भ करके इस पद्यके पूर्व तक सम्यक्दर्शन-ज्ञान की निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना चारित्ररूप तीन रत्नोंका ही धर्मरूपसे वर्णन है, जिस और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान . का उपसहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्यमें उनको और चारित्र" बतलाना अर्थका अनर्थ करना अथवा अपनानेवालेके लिये सर्व अर्थकी सिद्धिरूप फलकी खींचतानकी पराकाष्ठा है । इससे उत्तरकी सङ्गति व्यवस्था की गई है। इसकी तरफ किसीका भी ध्यान और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं नहीं गया। दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिषु विष्टयेषु' बनता कि सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंमें दर्शन, ज्ञान पदोंका अर्थ जो “तीनों स्थलोंपर" किया गया है वह और चारित्र विवेचित हैं-प्रतिपादित हैं, बल्कि यह सङ्गत नहीं बैठता; क्योंकि अकलंकदेवका राज कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चात्रिमें सर्वार्थवार्तिक और विद्यानन्दका श्लोकवार्तिक ग्रन्थ ये दो सिद्धि आदि टीकाएँ विवेचित हैं-प्रतिपादित हैं, ही स्थल ऐसे हैं जहाँपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी। और इस (तत्त्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा अर्थत: पाई जाती है, तरह आधार-आधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति तीसरे स्थलकी बात मूलके किसी भी शब्दपरसं उस बिगड़ जायगी; और तब श्लेरूषपमें यह भी फलित का आशय व्यक्त न करनेके कारण नहीं बनती। यह नहीं किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी टीकाएँ ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष हैं जहाँपर . १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६ पृ० ५३ पूज्यपादकी टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त होजाती है। २ अनेकान्त वर्ष ८ किरण ३ पृ. १३२ १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३ पृ० १३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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