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________________ १६६ अनेकान्त - सज्जन तथा उदार प्रकृतिके थे, और समाजके कार्योंमें हुई महाजनोंकी गृहीजीवनकी त्याग और समुदार सदा भाग लिया करते थे। इनका ४० वर्षकी अल्प भावनाको प्रकट करती है। लेखकने इसमें पर्याप्त वयमें ही संवत् १९५६में स्वर्गवास हुआ है इस परिश्रम किया है और वह अपने कार्यमें सफल भी ग्रन्थकी प्रस्तावनाके लेखक पं० सुमेरचन्दजी न्याय- हुआ है। इस पुस्तककी प्रस्तावनाके लेखक भार्मक तीर्थ उन्ननीषु हैं। प्रस्तावनामें ऐतिहासिक दृष्टिसे विट्ठल वरेरकर हैं, जो मामा वरेरकरके नामसे प्रसिद्ध भगवान ऋषभदेवके जीवनपर विचार किया होता हैं और मराठी वाङ्मयके सफल लेखक हैं। छपाई बथा ग्रन्थकी कविता और भाषा आदिके सम्बन्धमें सफाई अच्छी है, परन्तु मूल्य कुछ अधिक जान आलोचनात्मक दृष्टिसे विचार किया जाता तो ग्रन्थकी पड़ता है। उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जाती। अस्तु ३ टोडरमलाङ्क [विशेषाङ्क] इस प्रन्थके प्रकाशक मूलचन्द किसनदासजी कापड़िया हैं जिन्होंने ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीके सम्पादक, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ और पं० स्मारक फण्डसे प्रकाशित किया है। और इस तरह भँवरलाल न्यायतीर्थ, मनिहारोंका रास्ता, जयपुर । ब्रह्मचारीजीकी कीर्तिको अक्षुण्ण बनानेका प्रयत्न वार्षिक मूल्य ३) रु० । इस अङ्कका मूल्य २) रुपया। किया है, परन्तु इस ग्रन्थके प्रकाशमें लानेका सबसे प्रस्तुत अङ्क वीरवाणीका विशेषाङ्क है जो प्राचार्य-प्रथम श्रेय बाबू पन्नालालजी अग्रवाल देहलीको है कल्प पं० टोडरमलजीकी स्मृतिमें निकाला गया है। जिन्होंने इसकी प्रेस कापी स्वयं करके भेजी है। आप इसमें पं० जीके जीवन-परिचयके साथ उनके कार्योंका बहत ही प्रेमी सज्जन हैं. श्रापको अप्रकाशित साहित्य संक्षिप्त परिचय भी कराया गया है। यद्यपि पण्डित के प्रकाशमें लानेका बड़ा उत्साह है। अतएव दोनों जीके व्यक्तित्व एवं पाण्डित्यके सम्बन्धमें खासा ही महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं । पुस्तकमें प्रेस मोटा ग्रन्थ लिखा जा सकता है, इससे पाठक सहज सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं फिर भी ग्रन्थ ही में जान सकते हैं कि वे कितने महान् थे ! समाजपठनीय है। में उनके ग्रन्थोंके पठन-पाठनका अच्छा प्रचार है। अतएव उनके नामसे जनता परिचित तो थी; किन्तु २ महाजन [ऐतिहासिक उपन्यास] उनके जीवन-चरितसे प्रायः अपरिचित थी। अतएव लेखक, कृष्णलाल वर्मा । प्रकाशक, बलवन्तसिंह इस दिशामें पं० चैनसुखदासजीके प्रयत्नस्वरूप वीरमहता, साहित्य कुटीर सोनाशेरी, उदयपुर । पृष्ठ वाणीका यह विशेषाङ्क अपना खासा महत्व रखता संख्या १४८ । मूल्य सजिल्द प्रति २।।) रुपया। है। परन्तु अङ्ककी साधारण छपाई-सफाई तथा प्रूफ प्रस्तुत पुस्तक एक ऐतिहासिक उपन्यास है सम्बन्धी कुछ अशुद्धियोंको देखकर दुःख भी होता जिसमें गुजरातके बादशाह मुहम्मद बेगड़ाके समय है, कि क्या जैनसमाज अपने पूर्वजोंके उपकारको वि० सं० १५०२से १५६८के मध्य घटने वाली घटना- भूल गई है. ? जो सुवर्णाक्षरोंमें अङ्कित करने योग्य का चित्रण है, जो गुजरातके समय खेमा सेठ द्वारा है। सचमुच वीरवाणीने अपने थोड़े ही समयमें एक वर्ष तक दिये हुए अन्नदान और उसके उपलक्षमें अच्छी प्रगति की है। आशा है भविष्यमें अपनेको मुहम्मद बेगड़ाद्वारा प्रदान की हुई 'शाह' पदवी वह और भी समुन्नत बनानेका प्रयत्न करेगी। आदिको उपन्यासका रूप दिया गया है । पुस्तक अकालकी समस्याको सुलझानेका मागं प्रदर्शन करती परमानन्द जैन सांधेलीय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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