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________________ १४२ अनेकान्त [वर्ष ९ पाँच रुपये कम ! मेरी जेबमें भी घर खर्चके लिये हैं तो हमारे यहाँ ही ठहरते हैं। एक रोज उनका पत्र ५) रुपये चाँदीके पड़े थे ! मैं बड़ा चकराया, अब आया कि "जिस चारपाईपर मैं सोया था, अगर क्या होगा? न मिले तो जैसे बात बनेगी ? लाला वहाँ लाल रङ्गका मेरा अङ्गोछा मिले तो सम्हाल कर चुपचाप गद्दीपर बैठे थे, मैंने ही रुपये बखेरे थे और रख लेना।" अंगोछा तलाश किया गया, मगर नहीं मैं ही उन्हें गिन रहा था । जी बड़ा धुकड़-पुकड़ करने मिला। वे जाड़ोंके विस्तरोंमें सोचते थे और वह लगा। छोटी आयु और नया-नया इनके यहाँ बाया जाड़े खत्म होनेसे ऊपर टाँडपर रख दिये गये थे। हूँ । यद्यपि पूरा विश्वास करते हैं, परन्तु प्रामाणिकता- सिर्फ एक अङ्गोछेके लिये घरभरके इतने विस्तरे उठा की जाँचसे तो अभी नहीं निकला हूँ। कहीं इन्हें शक कर देखनेकी जरूरत नहीं समझी गई । और होगया तो, जेबमें पाँच रुपये हैं ही चोर बनते क्या अङ्गोछा नहीं मिलनेकी उन्हें सूचना भिजवादी गई ! देर लगेगी ? इसी ऊहापोहमें गिन्नी वाली घटना बात आई-गई हुई, वे हमेशाकी तरह हमारे यहाँ याद आई तो मन एकदम स्वस्थ्य होगया। रुपये अपने आते-जाते रहे। पाससे मिलानेका सङ्कल्प करके भी खोजने में लगा दीवालीपर मकानकी सफाई हुई और जाड़ोंके रहा और मेरे सौभाग्यसे पाँचों रुपये मिल भी गये! बिस्तरे धूपमें डाले गये तो उनमेंसे लाल अङ्गोछा ___ रुपये मिलनेपर मुझे प्रसन्नता होनेके बजाय धमसे नीचे गिरा। खोलकर देखा तो दस हजारके क्रोध हो या ! मैंने लालासे कहा-"देखिये पाँच नोट निकले। हम सब हैरान कि यह इतने नोट रुपये कम हो रहे थे और मेरी जेबमें भी पाँच ही कहाँसे आये, किसने यहाँ छिपाकर रखे। सोचतेथे! न मिलते तो मैं चोर बन गया था। आइन्दा सोचते खयाल आया कि हो न हो यह रुपये उनके हुण्डियोंके रुपये गिनकर लेने और देने चाहियें।" ही होंगे। इस अङ्गोछेमें रुपये थे इसीलिये तो उन्होंने लाला मेरे इस बचपने पर हँसे और बोले-"तुम व्यर्थ अङ्गोछा तलाश करके रखनेको लिखा था, सिर्फ अपने जीको हलका क्यों कर रहे हो तुमपर यकीन अङ्गोछेके लिये वे क्यों लिखते ? मैं उनके पास रुपये न होता तो हम यह हजारों रुपये तुम्हें कैसे बिन गिने लेकर गया और उलाहना देते हुए बोला-"चाचा दे दिया करते ? और इतने रुपये बार-बार गिनना जी! आप भी खूब हैं, इतनी बड़ी रकमका तो ज़िक्र कैसे मुमकिन हो सकता है ? आजतक बीच एक पैसे- भी नहीं किया, सिर्फ अङ्गोछा सम्हालकर रखलेनेको का फर्क न पड़ा तो आगे क्यों पड़ेगा, और पड़ेगा लिख दिया और हमारे मना लिख देनेपर भी आपने भी तो तुम्हें उसकी चिन्ता क्यों ?" कभी इशारा तक नहीं किया। बताइये कोई नौकर ... किन्तु मैं इस घटनासे ऐसा शङ्कित होगया कि ले गया होता तो टाँडपर चूहे ही काट गये होते तो, रुपये गिनकर लेने-देनेकी बातपर अड़ा रहा। और हमारा तो हमेशाको काला मुंह बना रहता। इस नियमकी स्वीकृति न मिलनेसे मैं बारबार पुच चचा हँसकर बोले-"भाई जितनी बात लिखने कारनेपर भा दूसर दिनस दूकानपर नहा गया की थी. वह तो लिख ही दी थी। मेरा खयाल था कि तुम समझ जाओगे कि कोई न कोई बात जरूर उक्त घटनाओंका सन् ३४में गुड़गाँवके लाला है। वर्ना दो आनेके पुराने अङ्गोछेके लिये दो पैसेका बनारसीदास जैनके सामने ज़िक्र आया तो बोले- कार्ड कौन खराब करता! और रुपयोंका ज़िक्र जानअजी साहब, एक इसी तरहकी घटना हम आपबीती बूझकर इसलिये नहीं किया कि अगर कोई उठा आपको सुनाते हैं। ले गया होगा तो भी तुम अपने पाससे दे जाओगे। ___ हमारे पिताजीके एक मित्र हमारे जिलेमें रहते हैं। अपनी इस असावधानीके लिये तुम्हें परेशानीमें वे जब मुकदमे या सामान खरीदनेको गुड़गाँव आते डालना मुझे इष्ट न था।" १३ फरवरी १९४८ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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