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________________ अनेकान्त [वर्ष ९ _ "मुख्तार साहब तथा न्यायाचार्यजीने जिस तपस्वीवाले वेषके साथ। ऐसा भी नहीं कि पाण्डु 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत राङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों स्वीकार कर लिया है वह भी बहुत कच्चा है । उन्होंने जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो । जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनसे जान पड़ता यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डके कर्ताको भी है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेंसे किसी एकने भी अभी 'योगीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता । नक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न वास्तवमें 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि, हा या किसीसे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत मुनि, यति, तपस्वी आदिकका वाचक है; जैसा कि कथाकोपमं समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द आया धनञ्जय-नाममालाके निम्न वाक्यसे प्रकट हैहै। केवल प्रेमीजीने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख ऋषिर्यतिमुनिभिक्षुस्तापसः संयतो व्रती । भेजा था कि "दोनों कथाओंमें कोई विशेष फर्क नहीं तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः ॥३॥ है, नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः जैनसाहित्यमें योगीकी अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी । पूर्ण अनुवाद है"। उसीके आधारपर आज उक्त जैसे शब्दोंका प्रयोग अधिक पाया जाता है, जो दोनों विद्वानोंको “यह कहने में कोई आपत्ति मालूम उसके पर्याय नाम हैं। रत्नकरण्डमें भी यांत, मुनि नहीं होती कि प्रभाचन्द्रने भी अपने गद्य-कथाकोषमें और तपस्वी शब्द योगीके लिये व्यवहृत हुए हैं। स्वामी समन्तभद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित तपस्वीको प्राप्त तथा आगमकी तरह सम्यग्दर्शनका किया है।" विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक - इसपर प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोषको मँगाकर पद्य ' में दिया है वह खासतौरसे ध्यान देने योग्य है। देखा गया और उसपरसे समन्तभद्रको 'योगी' तथा उसमें लिखा है कि-'जो इन्द्रिय-विषयों तथा 'योगीन्द्र' बतलाने वाले जब डेढ दर्जनके करीब इच्छाओंके वशीभूत नहीं हैं, आरम्भों तथा परिग्रहोंप्रमाण न्यायाचार्यजीने अपने अन्तिम लेख में से रहित हैं और ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरणोंमें लीन उद्धृत किये तब उसके उत्तरमें प्रो० साहब अब रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' इस लक्षणसे अपने पिछले लेखमें यह कहने बैठे हैं, जिसे वे भिन्न योगीके और कोई सीन नहीं होते । एक नेमिदत्त-कथाकोषके अनुकूल पहले भी कह सकते स्थानपर सामायिकमें स्थित गृहस्थको 'चेलोपसृष्टथे, कि "कथानकमें समन्तभद्रको केवल उनके कपट- मुनि'की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिखा है।' वेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेषमें चेलोपसृष्टमुनिका अभिप्राय उस नग्न दिगम्बर जैन कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता"। योगीसे हैं जो मौन-पूर्वक योग-साधना करता हुआ यह उत्तर भी वास्तवमें कोई उत्तर नहीं है। इसे ध्यानमग्न हो और उस समय किसीने उसको वस्त्र भी केवल उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है। ओढा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसग समझता क्योंकि समन्तभद्रके योग-चमत्कारको देखकर जब है । सामायिकमें स्थित वस्त्रसहित गृहस्थको उस शिवकोटिराजा, उनके भाई शिवायन और प्रजाके मुनिकी उपमा देते हुए उसे जा यतिभाव-योगीके बहुतसे जन जैनधर्ममें दीक्षित होगये तब योगरूपमें भावको प्राप्त हुआ लिखा है और अगले पद्यमें उसे ममन्तभद्रकी ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और "अचल्योग" भा बतलाया है उससे स्पष्ट जाना वे आम तौरपर योगिराज कहलाने लगे होंगे, इसे हर १ विषयाऽऽशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । कोई समझ सकता है; क्योंकि वह योगचमत्कार ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥१०॥ समन्तभद्र के साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराज- २ सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि ।. १ अनेकान्त वर्ष ८, किरण १०-११ पृ० ४२०-२१ चेलोपसष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभावम् ॥१०२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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