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________________ किरण ३ ] का सिद्ध होना कोई अनोखी बात नहीं कही जा सकती । उनका 'जिनशतक' उनके अपूर्व व्याकरणपाण्डित्य और शब्दोंके एकाधिपत्यको सूचित करता है । पूज्यपादने तो अपने जैनेन्द्रव्याकरण में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह सूत्र रखकर समन्तभद्र-द्वारा होने वाली शब्दसिद्धिको स्पष्ट सूचित भी किया है, जिस परसे उनके व्याकरण - शास्त्रकी भी सूचना मिलती है । और श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने अपने गद्यकथाकोशमें उन्हें तर्कशास्त्र की तरह व्याकरण - शास्त्रका भी व्याख्याता (निर्माता ) ' लिखा है । इतनेपर भी प्रो० साहबका अपने पिछले लेख में यह लिखना कि "उनका बनाया हुआ न तो कोई शब्दशास्त्र उपलब्ध है और न उसके काई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते हैं" व्यर्थ की खींचतान के सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता । यदि आज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं तो उसका यह आशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह कभी था ही नहीं । वादिराज के ही द्वारा पार्श्वनाथ - चरितमें उल्लिखित 'सन्मतिसूत्र' की वह विवृति और विशेषवादीकी वह कृति आज कहाँ मिल रही है ? यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजके उल्लेख विषय में अन्यथा कल्पना नहीं की जा सकती तो फिर समन्तभद्रके शब्दशास्त्र के उपलब्ध न होने मात्रसे ही वैसी कल्पना क्यों की जाती है ? उसमें कुछ भी औचित्य मालूम नहीं होता। अतः वादिराजके उक्त द्वितीय पद्य नं० १८का यथावस्थित क्रमकी दृष्टि से समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेनेमें किसी भी बाधाके लिये कोई स्थान नहीं हैं । रही तीसरे पद्यकी बात, उसमें 'योगीन्द्रः' पदको लेकर जो वाद-विवाद अथवा झमेला खड़ा किया गया है उसमें कुछ भी सार नहीं है। कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं हो सकता जो समन्तभद्रको योगी अथवा १ अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ पृ० ४१६ २ ‘जैनग्रन्थावली' में रॉयल एशयाटिक सोसाइटीकी रिपोर्टके श्राधारपर समन्तभद्रके एक प्राकृत व्याकरणका नामोल्लेख है और उसे १२०० श्लोकपरिमाण सूचित किया है । · Jain Education International Taaresh कर्तृत्व- विषयमें मेरा विचार और निर्णय योगीन्द्र माननेके लिये तय्यार न हो, खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे— सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पच आचारोंका स्वय आचरण करनेवाले और दूसरोंको आचरण कराने वाले दीक्षागुरुके रूपमें थे-, 'पदर्द्धिक' थे तपके बलपर चारणऋद्धिको प्राप्त थे और उन्होंने अपने मंत्रमय वचनबलसे शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला लिया था ( ' स्वमन्त्रवचन- व्याहूत चन्द्रप्रभः) | योगसाधना जैन मुनिका पहला कार्य होता है और इस लिये जैन मुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात हैं, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य हो जाता है । इसीसे जिस वीरशासनके स्वामी समन्तभद्र अन्य उपासक थे उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन (का०६) में उन्होंने दया, दम और त्यागके साथ समाधि (यांगसाधना ) को भी उसका प्रधान अङ्ग बतलाया हूँ | तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यउपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हो ? १३१ सबसे पहले सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीने इस योगीन्द्र-विषयक चर्चाको 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही हैं ?' इस शीर्षक के अपने लेखमं उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि " योगीन्द्र- जैसा विशेषण तो उन्हें ( समन्तभद्रको ) कहीं भी नहीं दिया गया ।" इसके उत्तर में जब मैंन 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे' इस शीर्षकका लेख लिखा और उसमें अनेक प्रमाणों के आधारपर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' विशेषणोंका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषयमें मौन हा रहे, परन्तु प्रो० साहबने इस चर्चाको यह लिखकर लम्बा किया कि १ अनेकान्त वर्ष ७ किरण ३-४, पृ० २६, ३० २ श्रनेकान्त वर्ष ७ किरण ५-६, पृ० ४२-४८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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