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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय] (गत किरणसे आगे) (३) रत्नकरण्ड और आप्रमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व स्वामी समन्तभद्रके साथ सम्बन्धित करते हैं तो सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालालजीकी जो तीसरी दूसरे देवनन्दी पूज्यपादके साथ । यह पद्य यदि क्रममें दलील (युक्ति) है उसका सार यह है कि 'वादिराज- तीसरा हो और तीसरा दूसरेके स्थानपर हो, और सूरिके पार्श्वनाथचरितमें प्राप्तमीमांसाको तो 'देवा- ऐसा होना लेखकोंकी कृपासे कुछ भी असम्भव या गम' नामसे उल्लेख करते हुए 'स्वामि-कृत' कहा गया अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवादके लिये कोई है और रत्नकरण्डको स्वामिकृत न कहकर 'योगीन्द्र- स्थान नहीं रहता; तब देवागम (आप्तमीमांसा) और कृत' बतलाया है। 'स्वामी'का अभिप्राय स्वामी रत्नकरण्ड दोनों निर्विवादरूपसे प्रचलित मान्यताके समन्तभद्रसे और 'योगीन्द्र'का अभिप्राय उस नामके अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित हो जाते आचायेसे अथवा आप्तमीमांसाकारसे भिन्न हैं और शेष पद्यका सम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद और किसी दूसरे समन्तभद्रसे है। दोनों ग्रन्थोंके कर्ता एक उनके शब्दशास्त्रसे लगाया जा सकता है। चंकि उक्त ही समन्तभद नहीं हो सकते अथवा यों कहिये कि पार्श्वनाथचरित-सम्बन्धी प्राचीन प्रतियोंकी खोज वादिराज-सम्मत नहीं हो सकते; क्योंकि दोनों ग्रन्थों- अभी तक नहीं हो पाई है, जिससे पद्योंकी क्रमभिन्नताके उल्लेख-सम्बन्धी दोनों पद्योंके मध्यमें 'अचिन्त्य- का पता चलता और जिसकी बहुत बड़ी सम्भावना महिमादेवः' नामका एक पद्य पड़ा हुआ है जिसके जान पड़ती है, अत: उपलब्ध क्रमको लेकर ही इन 'देव' शब्दका अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपादसे है और पद्योंके प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थपर विचार जो उनके शब्दशास्त्र(जैनेन्द्र)की सूचनाको साथमें किया जाता है:लिये हुए हैं। जिन पद्योंपरसे इस युक्तिवाद अथवा पद्योंके उपलब्ध क्रमपरसे दो बातें फलित होती रनकरण्ड और प्राप्तमीमांसाके एकक त्वपर हैं-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्रकी आपत्तिका जन्म हा है वे इस प्रकार हैं:- स्तुतिको लिये हुए हैं और उनमें उनकी तीन कृतियों"स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । का उल्लेख है; और दूसरी यह कि तीनों पद्योंमें देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽद्यापि प्रदर्श्यते ॥१७॥ क्रमशः तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा । ____ उल्लेख है। इन दोनोंमेंसे कोई एक बात ही ग्रन्थकारके शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥१८॥ द्वारा अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है-दोनों त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्य सुखावहः । नहीं । वह एक बात कौनसी हो सकती है, यही यहाँअर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥१९॥ पर विचारणीय है। तीसरे पद्यमें उल्लिखित 'रत्न• इन पद्यों से जिन प्रथम और तृतीय पद्योंमें करण्डक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डप्रन्थोंका नामोल्लेख है उनका विषय स्पष्ट है और श्रावकाचार नहीं है जो स्वामी समन्तभद्रकी कृतिरूप जिसमें किसी प्रन्थका नामोल्लेख नहीं है उस द्वितीय से प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि 'योगीन्द्र' नामके पद्यका विषय अस्पष्ट है, इस बातको प्रोफेसर साहबने आचार्य-द्वारा रचा हा उसी नामका को स्वयं स्वीकार किया है । और इसीलिये द्वितीय पद्यके ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों माशय तथा पर्थक विषयमें विवाद है-एक उसे पाम तीन आचार्यों और उनकी तीन कृतियोंका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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