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________________ अनेकान्त [वर्ष ९ निर्मूल ठहरती है-उसका कहींसे भी कोई समर्थन ८७३)के पश्चात् और वादिराजके समय अर्थात नहीं होता । रत्नकरण्डके समयको जाने-अनजाने शक सं० ९४७ (वि० सं० १०८२)से पूर्व सिद्ध होता रत्नमालाके रचनाकाल (विक्रमकी ११वीं शताब्दीके है। इस समयावधिके प्रकाशमें रत्नकरण्डश्रावउत्तराध या उसके भी बाद)के समीप लानेका आग्रह काचार और रत्नमालाका रचनाकाल समीप आजाते करनेपर यशस्तिलकके अन्तर्गत सोमदेवसूरिका ४६ हैं और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं कल्पोंमें वर्णित उपासकाध्ययन (वि० सं० १०१६) रहता'।" और श्रीचामुण्डरायका चारित्रसार (वि० सं० १०३५के . इस तरह गम्भीर गवेषण और उदार पर्यालगभग) दोनों रत्नकरण्डके पूर्ववर्ती ठहरेंगे, जिन्हें लोचनोंके साथ विचार करनेपर प्रो. साहबकी चारों किसी तरह भी रत्नकरण्डके पूर्ववर्ती सिद्ध नहीं किया दलीलें अथवा आपत्तियोंमेंसे एक भी इस योग्य नहीं जा सकता; क्योंकि दोनों रत्नकरण्डके कितने ही ठहरती जो रत्नकरण्डश्रावकाचार और प्राप्तमीमांसा.. शब्दादिके अनुसरणको लिये हुए हैं-चारित्रसारमें का भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करने अथवा दोनोंके एक तो रत्नकरण्डका 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' नामका एक कर्तृत्वमें कोई बाधा उत्पन्न करनेमें समर्थ हो सके पूरा पद्य भी 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत है। और तब और इसलिये बाधक प्रमाणोंके अभाव एवं साधक प्रो० साहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषय- प्रमाणोंके सद्भावमें यह कहना न्याय-प्राप्त है कि का सबसे प्रधान और प्राचीन ग्रन्थ स्वामी समन्त रत्नकरण्डश्रावकाचार उन्हीं समन्तभद्र आचार्यकी भद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है। उनके विरुद्ध जायगा, कृति है जो प्राप्तमीमांसा (देवागम)के रचयिता हैं। जिसे उन्होंने धवलाकी चतुर्थ पुस्तक (क्षेत्रस्पर्शन और यही मेरा निर्णय है। अनु०) प्रस्तावनामें व्यक्त किया है और जिसका उन्हें उत्तरके चक्कर में पड़कर कुछ ध्यान रहा मालूम नहीं वीरसेवामन्दिर, सरसावा ) होता और वे यहाँ तक लिख गये हैं कि "रत्नकरण्ड ता० २१-४-१९४८ जुगलकिशोर मुख्तार की रचनाका समय इस (विद्यानन्दसमय वि० सं० १ अनेकान्त वर्ष ७, किरण ५-६, पृ० ५४ अमूल्य तत्त्वविचार बहुत पुण्यके पुञ्जसे इस शुभ मानव-देहकी प्राप्ति हुई; तो भी अरे रे ! भवचक्रका एक भी चक्कर दूर । सुखको प्राप्त करनेसे सुख दूर होजाता है, इसे जरा अपने ध्यानमें लो। अहो ! इस क्षण-क्षणमें होने वाले भयङ्कर भाव-मरणमें तुम क्यों लवलीन हो रहे हो ? ॥१॥.. यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो सही कि तुम्हारा बढ़ ही क्या गया ? क्या कुटुम्ब परिवारके बढ़नेसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो ? हर्गिज ऐसा मत मानो; क संसारका बढ़ना मानो मनुष्य-देहको हार जाना है । अहो ! इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता ? ||२|| निर्दोष सुख और निर्दोष आनन्दको, जहाँ कहींसे भी वह मिल सके वहींसे प्राप्त करो जिससे कि यह दिव्य शक्तिमान आत्मा जञ्जीरोंसे निकल सके। इस बातकी सदा मुझे दया है कि परवस्तुमें मोह नहीं . करना । जिसके अन्तमें दुःख है उसे सुख कहना, यह त्यागने योग्य सिद्धान्त है ।।३।। मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप क्या है, यह सम्बन्ध किस कारणसे हुआ है, उसे रक्खू या छोड़ दूँ ? यदि इन बातोंका विवेकपूर्वक शान्तभावसे विचार किया तो आत्मज्ञानके सब सिद्धान्त-तत्त्व अनुभवमें आगए ॥४॥ _ . -श्रीमद्राजचन्द्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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