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________________ १४४ अनेकान्त [वर्ष ९ भी कह बैठे कि मेरे लोटेका पानी इसी वक्त ठण्डा पल्ला लेकर रोने नहीं लग जाती है। वह अनेकान्ती और गरम है तो अनेकान्तकी सीमामें ही रहेंगे। है, वह समझती है कि बहूका क्या मतलब है ! पानी अगर सौ दरजे गरम है तो घड़ेके अड़सठ महावीर स्वामी जब गर्भ में आये उसी दिनसे दरजेके पानीसे गरम और चूल्हेपर चढ़े बर्तनके उनके भक्त उन्हें भगवान नामसे पुकारते हैं। ठीक है। एकसौ बीस दरजेके पानीसे ठण्डा है। आह पतीलीमें अनेकान्त ऐसा करनेकी इजाजत देता है। निर्वाण हाथ डालकर लोटेमें डालिये तो आपको इनकी तक और उसके बादसे आजतक वे भगवान ही हैं। बातकी सचाईका पता लग जायगा । यह हुआ हँसता बचपनमें वे रोटी खाते थे, मुनि होकर आहार भी खेलता घरेलू अनेकान्त । लेते थे। अब कोई यह कहे कि भगवान महावीर रोटी अब लीजिये धमेका भारी भरकम अनेकान्त । खाते थे, आहार लेते थे तो इसमें भल कहाँ है ? एक हिन्दू पीली मिट्टीके एक ढेलेमें कलाया लपेट अनेकांतीको इसे माननेमें कोई कठिनाई नहीं हो कर उसमें गणेशको ला बैठाता है। एक जैन उससे सकती। वही भक्त कुन्दकुन्द स्वामीके पास रहकर भी बढ़कर धानसे निकले एक चावलमें भगवानको यह कहने लगे कि भगवानने कभी खाना खाया ही विराजमान कर देता है। पर वही हिन्दू, कोयले, नहीं तो इसमें भी भूल कहाँ ? अनेकान्ती जरा बुद्धिखड़िया या गेरूके टुकड़ेमें वैसा करनेसे हिचक ही पर जोर देकर इसे समझ लेगा। कुन्दकुन्द स्वामी नहीं डरता है और वही जैन एक खण्डित मूर्ति या देहको भगवान नहीं मानते । जीवको भगवान एक कपड़ा पहने सुन्दर मूर्ति में भगवानकी स्थापना मानते हैं। देहको भगवान मानना निश्चयनय या करने में इतना भयभीत होता है मानों कोई बड़ा पाप सत्यनयकी शानके खिलाफ है। जीव न खाता है, न कर रहा हो। और वही हिन्दू जबलपुरके धुंआधारमें पीता है न करता है, न मरता है, न जन्म लेता है। जाकर जिसतिस पत्थरको गणेशजी मान लेता है साँप पवनभक्षी कहलाता है। दो द्रवायें मिलकर वही जैन सोनागिरिपर चढ़कर अनगढ़ मूर्तियोंको पानी बन जाती हैं यह बात स्कूलके लड़के भी जानते भगवानकी स्थापना मानकर उनके सामने माथा टेक हैं। महावीर स्वामीका देह निर्वाणसे एक समय पहले देता है । अतदाकार स्थापनाकी बात दोनों ही तक यदि सांस लेता रहा, लेता रहो। महावीर स्वामीरिवाजकी भाङ्ग पीकर भूल जाते हैं । यह घरमें के निर्लेप जीवको इससे क्या। महावीर भगवान अनेकान्ती रहते हुए रिवाजमें कटर एकान्ती बन जाते खाना खाते थे और नहीं भी खाते थे। यह इतना ही हैं। वे करें क्या? असल में धर्ममें अनेकान्तीने अभी ठीक कथन है जितना सेठ हीरालालका यह कह तक जगह ही नहीं पाई। बैठना कि मेरा बीमार लड़का रामू पानी पीता भी है रेलमें बैठा एक मुसाफिर यदि यह चिल्ला उठे और नहीं पीता क्योंकि वह पीकर कय कर देता है, . 'जयपुर आगया' तो कोई दूसरा मुसाफिर उसके उसको हज्म नहीं होता। अनेकान्तमें वही तो गुण पीछे डण्डा लेकर खड़ा नहीं होता और न उससे है कि वह झगड़ेका फैसला चुटकी बजाते कर देता यही पूछता है कि जयपुर कैसे आगया, क्या जयपुर है। जभी तो मैंने उसका नाम झगड़ा फैसल रखा है। चला आता है जी तू आगया कहता है ? और न यह अनेकान्त घर-घरमें है, मन-मनमें है । मन्दिरकहकर उसे दुरुस्त करता है कि हम 'जयपुर आगये' मन्दिरमें नहीं है, धर्म-धर्ममें नहीं है, राज-राजमें ऐसा कह । कोई बहू यदि अपने बरसोंसे घरसे नहीं है। वहाँ फैलानेकी ज़रूरत है। पढ़ने-पढ़ानेकी भागे निखट्ट पतिके सम्बन्धमें अपनी सासके सामने चीज नहीं, लिखने-लिखानेसे कुछ होना आना नहीं। यह कह बैठे कि मैं तो सुहागिन होते विधवा हूँ, या अनेकान्तका पौदा अभ्यासका जल चाहता, सहिष्णुता मेरा पति जीता मरा हुआ है तो सास यह सुनकर के खादकी उसे जरूरत है, सर्वधर्म समभावके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527254
Book TitleAnekant 1948 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages46
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size11 MB
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