Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 7
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) का परमधर्म शुद्ध है । प्रत्येक जीव परम शुद्ध है, न उसे आठ कर्मों का संयोग है, न शरीर का संयोग है, न विभावभावों का संयोग है। पुण्य पाप के दया-दान के भाव ये भी संयोगी चीज है; आत्मा की नहीं। वे सब विभाव परभाव हैं। ऐसे अपने अकेले स्वभाव करके विचारना और मैं सिद्ध के समान शद्ध-निरञ्जन और निर्विकार हूँ। इस प्रकार अपने को अकेला जानकर अपने स्वभाव में मग्न रहना चाहिए। श्रद्धा -ज्ञान करके स्थिर रहना, वही मोक्ष का मार्ग है; दूसरा कोई धर्ममार्ग नहीं है। अन्त में भी कहा है, देखो! 'वृहद् सामायिक' पाठ है न? बड़ी सामायिक का पाठ है। तू मूढ बनकर यह मिथ्या कल्पना किया करता है कि मैं गोरा हूँ, रूपवान हूँ, मजबूत शरीर हूँ, पतला हूँ, कठोर हूँ, देव हूँ, मनुष्य हूँ, पशु हूँ, नारकी हूँ, नपुंसक हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूँ। तू अपने आत्मा को नहीं जानता है कि यह एक अकेला ज्ञानस्वभावी,... (है) भगवान ज्ञानस्वरूप, ज्ञानस्वभाव, चैतन्यमूर्ति निर्मलानन्द सर्व दुःखरहित अविनाशी द्रव्य है। नाश न हो ऐसा पदार्थ है, ऐसे पदार्थ की अन्तरदृष्टि करके रत्नत्रय प्रगट करना, वह स्वयं का स्वतन्त्र कारण है। उसमें किसी की सहायता नहीं है। निर्मोही हो आत्मा का ध्यान कर एक्कुलउ जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि। अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥७०॥ यदि जीव तू है एकला, तो तज सब परभाव। ध्यावो आत्मा ज्ञानमय, शीघ्र मोक्ष सुख पाय॥ अन्वयार्थ - (जइ एक्कुलउ जाइसिहि) यदि तू अकेला ही जायेगा (तो परभाव चएहि ) तो राग, द्वेष, मोहादि परभावों को त्याग दे (णाणमउ अप्पा झायहि ) ज्ञानमय आत्मा का ध्यान कर (लहु सिव-सुक्ख लहेहि) तो शीघ्र ही मोक्ष का सुख पाएगा।

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