Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 5
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) पास में बैठनेवाला भी इस वेदना को नहीं भोग सकता है। पास में बैठे हो न? हाथ फेरे, हाथ। रोग का थोड़ा भाग वह ले या नहीं? कौन ले? समझ में आया? संसार के कार्यों में भी इस जीव को अकेला ही वर्तना पड़ता है। संसार में भी अकेला ही वर्तता है न? सब ही संसारी जीव अपने-अपने स्वार्थ के साथी हैं। स्वार्थ न सधने पर स्त्री-पुत्र, मित्र, चाकर सब प्रीति त्याग देते हैं। स्वार्थ न हो तो छोड़ देते हैं। नहीं, उसमें कुछ है नहीं। कमाते थे, तब तक ठीक है, अब कमाते नहीं। ठीक है या नहीं? मांगीरामजी! मुमुक्षुः .. उत्तर : सब होवे तो सबको ऐसा ही है। तुमको एक को ‘महासुख' को छोड़े तो क्या हो गया? उसे भी अन्दर में तो ऐसा ही होता है। कहो, समझ में आया... आहा...हा...! दूसरों के असत्य मोह में पड़कर पापकार्य नहीं करना चाहिए...। नौका में पथिकों के समान सर्व संयोगों को छूटनेवाला अस्थिर मानना चाहिए। एक नौका में सब बैठे हों, सब पथिक अपने-अपने घर चले जाते हैं, अपने गाँव में चले जाते हैं। साथ बैठे हों वे सब एक गाँव में जाते हैं, ऐसा है ? एक नौका में बैठे हों तो एक व्यक्ति एक गाँव में जाता है, दूसरा दूसरे गाँव में जाता है, तीसरा तीसरे में; ऐसे ही एक घर में पच्चीस व्यक्ति आये एक जाता है नरक में, एक जाता है स्वर्ग में, एक जाता है मोक्ष में। जैसा अपना आत्मा का पुरुषार्थ करे वैसा उसका फल मिलता है। किसी का साथ -सहायक नहीं है। समझ में आया? इसलिए राग-द्वेष-मोह न करके समभाव में रहना चाहिए। ऐसा कहते हैं। भगवान आत्मा ज्ञाता-दृष्टा है, उसमें दया-दान आदि विकल्प भक्ति-यात्रा का (भाव) आवे वे सब पुण्यभाव हैं, वे धर्मभाव नहीं हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-भोग-वासना, वह पाप है। दया, दान, भक्ति, व्रत, तप, पूजा, यात्रा पुण्य है। दोनों राग से अपना आत्मा भिन्न है – ऐसा जानकर अपनी आत्मा की श्रद्धा, ध्यान करना, वही अपनी शुद्धि की वृद्धि का कारण है। वही मोक्ष का कारण है। कहो, समझ में आया? यदि रत्नत्रयधर्म का सम्यक् प्रकार से आराधना करे तो आप ही अकेला

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