Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 3
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) हैन ? समझ में आया ? इस जीव को अकेले ही सबको छोड़कर दूसरी गति में जाना पड़ा। एक पाप-पुण्य कर्म ही साथ रहा। जैसा पुण्य और पाप किया, वे साथ आये, दूसरा तो कोई साथ आता नहीं । ३ कर्मों का बन्ध अकेला ही भोगता है। समझ में आया ? शास्त्र में - कथा में - एक दृष्टान्त है कि छोटे भाई के लिये बड़े भाई ने बहुत पाप किये थे । छोटा भाई रोगी था, बड़ा भाई उसे माँस, अण्डे लाकर खिलाता, उसे पता नहीं कि यह माँस है, फिर बड़ा भाई मरकर नरक में गया और छोटा भाई जम, परमाधामी हुआ। दोनों सगे भाई, जिसके लिये पाप किये थे वह मरकर परमाधामी हुआ, पाप करनेवाला नारकी हुआ। (परमाधामी उसे) मारता है। अरे...! भाई ! परन्तु मैंने तेरे लिये किया था न ! मेरे लिये (करने का) कौन कहता था ? तुम्हारे लिये मैंने पाप किये थे और तेरे लिये कुपथ्य / अण्डा लाकर दिये थे, माँस, लाकर दिया, मछली का माँस दिया, यह हलुआ है - ऐसा कहकर मैंने दिया था। (तो परमधामी कहता है) मुझे तो पता नहीं, तूने ऐसा क्यों किया ? मैं तो परमाधामी हुआ हूँ, इसलिए मैं तो मारूँगा। समझ में आया ? यह पुण्य और पाप जैसे शुभाशुभ (भाव) किया है (वे) अकेले को भोगना पड़ते हैं । परिवार के लिये करे तो कहते हैं नरक आयु का बन्ध पड़ता है तो यह जीव अकेले ही नरक में जाकर दुःख सहना पड़ता है। कोई कुटुम्बीजन उसके साथ नहीं आ सकता। आ सकता है कोई? और अपने साथ कोई मित्र-स्त्री, पुत्र को नहीं ले जा सकता। भाई! चलो, तुम मेरे अत्यन्त नजदीकी मित्र थे, साथ तो आओ, साथ तो आओ ! हम तो पचास-साठ-साठ वर्ष साथ रहे, स्त्री- पत्नी साठ-सत्तर वर्ष साथ रहे, लो ! चलो मैं जाता हूँ, तुम भी साथ आओ। हर एक जीव की सत्ता निराली है । किसी की सत्ता किसी के साथ (मिली हुई) नहीं है। जिसने जैसे भाव किये वैसा वह (भोगता) है। कर्मों का बन्ध निराला है भावों का पलटना निराला है... समस्त जीवों का कर्मबन्धन निराला और भावों का ( पलटना ) भी निराला और साता और असाता भोगना निराला है । ठीक है, रतनचन्दजी ! सबका निराला ? पत्नी पचास-साठ-सत्तर वर्ष साथ रहे तो भी (निराला) ? मुमुक्षु : सब साथ होकर भोगेंगे ?

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