Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ अनुसंधान-२४ एकई ऊणा पंचसइ खमयाथी खंदग सीसो रे । पालक पीलतां थया अंतगडा विण रीसो रे ॥१५॥ उप० ॥ अगनिकुमार क्रोधइ थया खंधगसूरि सुजाणो रे । दंडग देश प्रजालिओ दूरि थयु निरवाणो रे ॥१६॥ उप० ॥ अच्चंकारी नारीइ प्रिउस्युं प्रेम विगाड्यो रे । क्रोधतणइ परवसि थइ आतम दुखमाहिं पाड्यो रे ॥१७॥ उप० ॥ पंच वार पंचक लघु क्रोधई नाविक नंदइ रे । छट्ठि सवि मुनि खामणां देता सुख आनंदइ रे ॥१८॥ उप० ॥ वभासनई सागरतणो क्रोधइ सीस प्रजाल्यु(ल्यो) रे । खमयाथी सुरवर थयो द्वेषथी मन वाल्यो रे ॥१९॥ उप० ॥ पगतलि आवी देडकी आलोओ का सीसई रे । थविरई थंभि आफली मरण लाउं अतिरीसइ रे ॥२०॥ उप० ॥ भव त्रीजइं विषधर थयुं वीरइ दरिसण दीधुं रे । खमयाथी चंडकोसिइ वेगि सुरपद लीधुं रे ॥२१॥ उप० ॥ कुण अनारज बिहुं जणां-माहि कहो मुझ देवो रे । वढतो साध सुरइ काओ अनारज सयमेवो रे ॥२२॥ उप० ॥ खमावंत दमदंतनइ कौर[व] कर्यओ उपसरगो रे । कांईअ न चाल्युं अरियणइ मुनि करि खमयानुं खडगो रे ॥२३॥ उप०।। अमरभूति(मरुभूति) खमया थकी तित्थंकर पद साध्यु रे । कमठासुरनइं कोधथी दुरगतिनुं फल बांध्यु रे ॥२५॥ उप० ॥ शय्याचालक सवणडे क्रोधइ तरुङ नाम्युं रे ।। कांने खोला ठोकिया वीरइ ते फल पाम्युं रे ॥२६।। उप० ॥ पुनरपि खमयाथी सही वेयण अति अहियासी रे । अनुक्रमि केवल पामिउं करम गयां सवि नासी रे ॥२७।। उप० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38