Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 34
________________ 74 (१५) ॥ सिद्ध स्वरूप - स्वाध्यायः ॥ राग-धन्यासी ऊठि घुटि घणउं चेतना नारि तुं ज्ञान दीवो करी जो विचारी । एक अनुपम सरूप चिंति तुं सिद्धनुं जु तुझ जीव छइ सुमति धारी ॥९॥ ऊ०॥ जो न जगदीसरो जो न परमेसरो जो न अमरेसरो परमपुरुषो । अनुसंधान - २४ जो न रूपं धरइ कर्म कछु नवि करइ कछु न मुखि उच्चरइ कुंण न सरिखो || २||ऊ० ॥ कुंण थकी नवि डरि कछु भी जो नवि चरि पदकी नवि गिरइ गौ न चारइ । उदरि नवि अवतरि शस्त्र करि नवि धरइ हृदय दुखि नवि झरइ नवि करावइ ||३||ऊ० ॥ रोस भी नवि करी प्यार भी नवि धरी ध्यानथी भगतनां दुख हरावइ । त्रिजगमां नवि फिरइ नींदि तनु नवि भरि नवि मरि सो किस्यई नो मरावइ ||४||ऊ०|| जोहि लोकालोक जेवडउं तनु विना एक लोचन धरि एक जीवो । दुख हरि सिद्ध बुद्धो सदा शिवि वसई Jain Education International सकल योगीसरो हृदय दीवो ||५|| ऊना ॥ इति सिद्धस्वरूप - स्वाध्यायः ॥ || गणिधनवर्द्धनवाचनाय श्रीपत्तननगरे ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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