Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ June-2003 73 'सदाचार नरनो जस संग "मात-पिता पूजानो रंग । "त्यजइ उपद्रवनो जे ठाम न करि जननिंदित तिम काम ||४|| लाभ सरिस धननो व्यय करइ वेष१५ वित्त अणुसारि धरइ । १५मतिगुण आठ न मुंकइ कदा १६सूधो धरम सुणइ सर्वदा ॥५॥ १"अजरइ जस जिमवू नवि गमइ १८भोजन उचितसमय जे जिमइ । १९धरमादिक पुरुषारथ जेह अवसरि अवसरि सेवइ तेह ॥६॥ २°अतिथि साधु भिक्षाचर तणी युगति यथोचित मंडइ घणी । २ अभिनिवेश नवि मनमां धरइ २२पासउं जे गुण- आदरइ ॥७॥ २३ अनुचित ठामि २४अकालिं वली नवि विचरइ निज मननी रुलि । २५जाणि ठाम बलाबल तणउं २६गुणगिरुआनो भगतु घणउं ॥८॥ २ जे हुइ सदा पोषवा योग तेहना सवे पूरवइ भोग । २“दीरघ दृष्टि लहइ सुविसेस कीधुं नवि लोपइ लवलेस ॥९॥ ३"सदा लोकनइ वाहलो सही ३ लाज चित्तथी मूंकइ नही । ३२अविहड करुणा रस भुंगार ३२सोमसभाव करइ उपगार ॥१०॥ ३४अंतरंग छह रिपु परिहरइ ३५पांचइ इंद्रिय नियवसि करइ । श्रावकना ए गुण पांत्रीस हितकारणि बोल्या जगदीसि ॥११॥ श्रावकधर्म मुगतिनो पंथ इंम भासइ पूरव निग्रंथ । ज्ञातपुत्र सेवाथी लह्यो श्रीगौतमि गुणविवरो कह्यो ॥१२॥ ॥ इति सझायः॥ *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38