Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan
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June-2003
53
(५) हंससाधु-विरचित - हितशिक्षा-बोल सज्झाय सुणि जीव पहिलङ उपशम आणि, मन-शुद्धि सांभलि गुरुवाणि । गुरु विण जीव रलंतु जोइ, गुरु विण धर्म न बूझइ कोइ ॥१॥ लाज आणे हइडइ नरनारि, लाज वडी भणीइ संसारि । लाज ज राखइ रूडी माम, नीलज विणसाडइ सवि काम ॥२॥ जे मूरखनी लज्जा गई, बि भव विणठा तेहना सही । लाज रहित नर हुइ कठोर, जांणो माणसरूपि ढोर ॥३॥ लाजई आवइ विनय विचार, लाजवंत लहि मुहत अपार । लाजइं पुण्य कराइ बहू, लाज लोपी तिणइ लोपिउं सहू ॥४॥ कलियुगमां पाखंडी घणा, तिहां मन रीझइ मूरखतणां । पाखंडीनइ आदर होइ, साचइ लोक न राचइ कोइ ॥५॥ जिम पारो पारामां भलइ, तिम डंभक डंभकनइ मिलइ । संत साधुनी निंदा करइ, पापी पापि पिंड ज भरइ ॥६॥ आप वखांणी भामइ पडइ, पच्छइ जाणे यम-करि चडइ । एह वात कहीइ स्युं घणी, परि नवि देखुं पुण्य ज तणी ॥७॥ खुंट खरडनो व्याप्यो व्याप, कोइ न बीहइ करतु पाप । सूधो धरम न दीसइ रती, थोडा थया कलिकालिं यती ॥८॥ माहरां ताहरां करि अपार, श्रावक चूका धरम विचार । पंपल पुहवि थयुं जे जिसिउं, बोल्यउं कोइ न पालि तिसिउं ॥९॥ खिमारहित क्रोधइ धडहडइ, राग द्वेष वाहिओ रडवडइ । वसमसि नवि कीजइ कहि तणी, वात संभारु पाछि घणी ॥१०॥ जूठउं जीव तुं किम्ह इम भाषि, धरम ज कीजइ आतम साखि । लज्जा दया खिमा मनि धरो, निरगुणनी संगति परिहरो ॥११॥
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