Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ 58 अनुसंधान-२४ इम ए साते निह्नव लह्या देशविसंवादी जिन कह्या । सहसमल्लनइ को नहीं समो सर्वविसंवादी आठमो ॥२१॥ जाणी निह्नवतणो प्रकार पुण्यवंत कीजइ परिहार । जिनआणा सूधी अणुसरो सुकवि कहि शिववनिता वरो ॥२२॥ ॥ इति निह्नवविचार-सज्झाय ॥ (९) वाचक नयसुंदर विरचित-३-मित्र उपनय सज्झाय श्रीजिनशासन पामीइ, गुरुचरणे शिर नामीइ, धामीइ सेना अंतरिपुतणी ए ॥१॥ सांभलयो सहू धामीइ, मुगतितणा जे कामीइ खामीइ जीव सवे स्युं हित भणी ए ॥२॥ ढाल हित भणी कहुं सीख रसाली सांभलि रे तुं प्राणी । हियडा भितरि आणु अनुदिन श्रीजिनवरनी वाणी ॥३|| लाख चोरासी जीवा योनि माहिं भम्यो अनंतीवार । जिन दरिसण साचु पाम्या विण नवि छूटो संसार ॥४॥ एणि जगि सहूइ सवारथ मलीओ ताहरि कुंण हितकारी । श्रीजिनधर्म विना नही कोइ साचुं जोए विचारी ॥५॥ एणि अवसरि अधिकार अपूरव जीव जोए तुं जागी । जे दोहलि तुझ अरथि आवि तेहनो होजे रागी ॥६॥ जिम कोइक मही मंडल नयरि प्रजापाल भूपाल । तेह नइ सुबुद्ध नामि छइ महितो बहु बुद्धिवंत दयाल ॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38