Book Title: Vividh Kavi Virachit Sazzaya Shlokadi Sangraha
Author(s): Kalyankirtivijay
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 25
________________ June-2003 65 (१०) श्रीगुणविजय-विरचित॥ श्रीदशार्णभद्रराजर्षि-श्लोकः ॥ आदरि समरी आदिभवानी हुँ गाउं दसारणभद्र मानी । नगरि दसारणि वीर सिधाव्या वनपालकई जइ राय वधाव्या ॥१॥ लाख सोनईआ देइ वधाई वंदन केरी करइ सजाई । जिम कुंणि कहीइं वांद्या न वीर तिम हुं ज वांदुं साहसधीर ॥२॥ गज भद्रजाती सहस अढार चोवीस लाख तरल तुखार । एकवीस सहस सखर सुहाली वहिलि विशेषइ वली छत्रीआली ॥३॥ मुडद्ध महीपति सोल हजार ध्वज सोल सहस अतिहिं उदार । सहस सुखासण सबल वखाणउं पायक पोढा कोडि एकाणउं ॥४॥ पालखी पेखीजइ रंगरोल रथ राजवाहण नइ चकडोल । बंदी ते बोलइ बहु बिरुदाली वाजां ते वाजइ वीण रसाली ॥१(५)॥ सहज सुरंगी सातसई राणी रूपि हरावी रंभ इंद्राणी । चामर चिहुं पखि स्वेत पवित्र मस्तकि मेघाडंबर छत्र ॥४(६)। लोकना थोक थाइ हराण गाजइ ते गिरुआं गुहिर नीसाण । इंम आडंबर करीय अमंद पटहस्ति खंध बइठो नरिंद ।।६(७)।। मन माहि आव्यउं सबल गुमान महीयलि को नहीं मुज्झ समान । माहरी आगलि सहु तृण तोलइ इंम अभिमानि आकरूं बोलइ ॥७(८)॥ छाह्यो ते खेहई करी खरकिरण दोलति देखि अढारे वरण | महावीर वांदी बइठो नरेश मूरतिवंतो जाणे सुरेश ॥८(९)। तव इंद्रइ प्रजुज्यउं त्रीजउं ज्ञान एहनो गालउं हुं अभिमान । तेड्यो एरावणदेवप्रधान आदेश दीधो थइ सावधान १९(१०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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