Book Title: Varang Chariu
Author(s): Sumat Kumar Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 6
________________ प्राक्कथन वरंगचरिउ के मूलनायक वरांग कुमार का जन्म जैन तीर्थंकर नेमिनाथ के समय भारत भूमि पर हुआ था। सर्वप्रथम सातवीं शताब्दी में जटासिंहनंदि ने उनके व्यक्तित्व पर आधारित महाकाव्य का प्रणयन संस्कृत भाषा में किया, जो संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि में जैनों के योगदान का एक स्तम्भ माना जा सकता है। अपभ्रंश के कवि पंडित तेजपाल ने शायद इसी के आधार से अपने इस काव्य में वरांग कुमार का चरित्र सारोक्ति न्याय से संक्षेप रुचि जनों के लिए लोकभाषा में किया है। उनके अनुसार वरांग कुमार अदम्य साहस और शौर्य के कीर्तिपुंज थे। उनका जीवन त्याग की मनोवृत्ति से संचालित रहा है। सबके अभ्युदय हेतु अपने हक का परित्याग करना उन्हें इष्ट रहा है। विषय भोगाभिलाषाओं की कुत्सित छाया से वे अप्रभावित रहकर सदैव त्याग धर्म की गरिमा से गौरवान्ति हुए हैं। उनका समूचा जीवन पुण्योदय एवं पापोदय की बाढ़ में बहता हुआ भी धर्मोन्मुख ही रहा है। वे राजपुरुष ही नहीं, राजसूनु थे तथा अपनी प्रतिभा एवं शौर्य के कारण युवराज बने। युवराज बनना भले ही पुण्य योग से संभव हुआ हो, परंतु इससे ही उनके जीवन में संघर्षों से जूझने का सूत्रपात हुआ। परंपरा के अनुसार उनका अग्रज भ्राता सुषेण युवराज होने का अधिकारी था। वह एवं उसकी माता भी यही चाह रहे थे। मंत्री से मिलकर उन्होंने षड्यंत्र किया और उसमें वे सफल हुए। युवराज वरांग कुमार भयानक वनखंड में प्राणों की रक्षा करते हुए भटके। संघर्षों की विभीषिका ने उन्हें धर्म–मार्ग से विचलित नहीं किया, परंतु वे दर-ब-दर अर्थात् राज्यच्युत तो हो ही गये, पिता राजा धर्मसेन द्वारा उनकी खोज कराई गई और उन्हें न पाने पर मृत मान लिया गया। वन में वनदेवी (यक्षिणी) उनके सौंदर्य पर मुग्ध होने के कारण या वरांग कुमार के सच्चरित्र होने की परीक्षा लेने के कारण अपना विवाह वरांग कुमार से करने का प्रस्ताव रख देती है, जिसे वरांग कुमार अस्वीकार कर अपने स्वदार-संतोष व्रत को या परस्त्रीविरमण भावना को ही पुष्ट करते हैं, जिससे यक्षिणी प्रभावित होती है और उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर चली जाती है। वन में भ्रमण करते हुए वरांग कुमार को सबर जाति के भीलों ने बंदी बना लिया। नियत दिन उनकी बलि चढ़ाने के आयोजन स्थल पर भील सरदार के पुत्र को सर्प ने काट लिया, जिसका उपचार संभव न होने पर वरांग कुमार ने अपने मंत्र प्रयोग से उसे स्वस्थ कर दिया। प्रसन्न हो जाने से सरदार ने उनकी बलि रोक दी तथा यथेच्छ उपहार देने चाहे। वरांग कुमार ने कुछ भी नहीं लिया, आभार माना और आगे बढ़ गये और वणिक सागरदत्त के साथ में चलने

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