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उत्तराध्ययन सूत्रम ॥ ५९२ ॥
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बा, एवं नियमो नास्ति, किंतु ध्यानमेव तत्साधनं, यस्य शुमध्यानं स संयमाराधकः, यस्य तु ध्यानशुभं स संयमविराधकः. एवं गौतमस्वामित्र्याख्यानं श्रुत्वा वैश्रमणो वंदित्वा स्वस्थानं गतः.
अहीं कंडरीके तो राजगृहनी अंदर जइ तेज दिवसे सरस आहार खुब तृप्ति पूर्वक खाधो. आ आहार कृश शरीर कंडरीकना उदरमां जरी न शक्यो तेथी तेना पेटमां महा व्यथा=पीड =थवा लागी. तेनी पांसे मंत्री सामंत वगेरेमाना कोइ पण आवे नहिं, केमके ज्यानो तेणे परित्याग कर्यो तेथी अयोग्य गणी बधाय तेनी उपेक्षा करता हता, आथी ए कंडरीक आर्त तथा रौद्र ध्यान वाळो वनतां मरण पामी सातमी नरक भूमिमां नारकी उत्पन्न थयो. पुंडरीके तो स्थविरोनी समीपे आवी दीक्षा ग्रहण करीने अष्टम तपने अंते पारणामां टाढा तथा सूक्ष अन्ननो आहार कर्यो तेथी तेना शरीमां महा वेदना उत्पन्न थतां तेणे अनशन व्रत लइ चार शरण गृह्यां. आवी रीते पुंडरीक प्रतिक्रांतनी आलोचना करतो मरण पामी सर्वार्थ सिद्धि नामना विमानमां देव भावे उत्पन्न थयो; त्यांथी च्युत थशे त्यारे महाविदेह क्षेत्रे जन्म लड़ सिद्धिपद पामशे. आ आख्यान वैश्रमण आगळ कहीने गौतममुनि फरीने बोल्या के - 'हे देवानु मिय। दुर्बळ शरीर वाळो पण कंडरीक सप्तमी नरक भूमिए गयो अने सबळ शरीरवाळो पुंडरीक सर्वार्थ सिद्धि विमाने गयो; ते उपरथी - दुर्बळ शरीर संयम साधन छे अथवा पुष्ट शरीर समयनुं व्याघातक ले आवो कई नियम नथी किंतु शुभ ध्यानज संयम साधन छे, जेने शुभ ध्यान छे ते संयमनो आराधक अने जेनुं ध्यान अशुभ ते संयमनो विराधक समजवो. आवुं गौतमस्वामीनुं व्याख्यान श्रवण करी वैश्रमण वंदन करी पोताने स्थाने गया.
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भाषांतर अध्य०१०
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