Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan Author(s): Sudarshanlal Jain Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak SamitiPage 12
________________ ( २ ) मरण का भी अनुभव किया । फलतः उस प्राणदाता तत्त्व को ढूंढ निकालने का विचार मनुष्य के मन में उत्पन्न हुआ । जैन तत्त्ववेत्ताओं ने आत्मा ( जीव ) को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्थिर किया । यह तत्त्व हर प्राणी में मूलतः एक ही प्रकार का - समान गुणों वाला प्रतीत हुआ। हर प्राणी के जीव के साथ दूसरे द्रव्य का जो सम्बन्ध रहा हुआ था उसके कारण बाहरी फर्क सामने आता रहा । वह दूसरा द्रव्य रूपी अचेतन पुद्गल है । उसके लक्षण हैं शब्द, अन्धकार, प्रकाश, कान्ति, छाया, आतप, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और आकार । वायु, जल, आग और पृथ्वी भी पुद्गल हैं । वर्तमान विज्ञान के Matter और Energy भी पुद्गल हैं । रागद्वेष के कारण मनुष्य और अन्य प्राणियों द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्म भी पुद्गल हैं । मिश्रित धातुओं को असल या शुद्ध रूप में लाने के लिए अनेक विधियों और साधनों से विशुद्ध करते हैं । उसी प्रकार मनुष्य के जीव तत्त्व को मिश्रित अजीव तत्त्व से अलग या स्वतन्त्र रूप में लाने के लिए अर्थात् मुक्त करने के लिए विधिपूर्वक प्रयत्न जरूरी है । उत्तराध्ययन सूत्र का यह विषय है । इस ग्रन्थ के निर्माता ने उस विषय का सरल, स्वाभाविक भाषा में सुन्दर वर्णन किया है। डा० रघुवीर के शब्दों में जैन तत्त्ववेत्ताओं ने Godless Spiritua lity (निरीश्वर अध्यात्मवाद) का विकास किया है । प्राणी मात्र से मैत्री का व्यवहार करना उसका निश्चित मत है । परस्पर मैत्री कर सकने का आधार उन्होंने स्वयं पर संयम रखना बताया है । उसी आचार के विकास का सर्वप्रथम नियम अहिंसा से आरम्भ किया गया है । जीव किस प्रकार अजीव से पृथक् किया जा सकता है, उन साधारण और विशेष उपायों का साध्वाचार के दो प्रकरणों और रत्नत्रय में विस्तृत निर्देश है । इनके अलावा मुक्ति और उसकी अलौकिकता की चर्चा भी ग्रन्थ में है । इस प्रकाशन का खर्च श्री मुनिलाल और भाई लोकनाथ ने अपने पिता श्री लाला लद्दामल की पुण्यस्मृति में किया है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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