Book Title: Uttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Sohanlal Jaindharm Pracharak Samiti

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Page 11
________________ परिचय जैन आगम - साहित्य में उत्तराध्ययन का विशेष स्थान है । दिगम्बर- साहित्य में भी इसका सादर उल्लेख है । इस सूत्र का परिशीलन डा० सुदर्शनलाल जैन ने लिखा है । डा० जैन को सेठ नाथालाल एम० पारख के नाम पर उनके परिवार द्वारा प्रदत्त रिसर्च स्कोलरशिप प्रदान की गई थी । ग्रन्थ के प्रास्ताविक में उत्तराध्ययन के कालादि का विचार किया गया है । अंत में उपसंहार भी लिखा है। हर एक प्रकरण के अन्त में सुगम सरल अनुशीलन भी है । विश्व अनादि है । उसी प्रकार अनन्त भी है । वह सदैव से है और रहेगा । किसी ईश्वर या कर्ता ने उसे बनाया नहीं है । वह स्वयंभू है । उसमें ऐसे तत्त्व मौजूद हैं जिनके कारण वह स्वचालित यन्त्र की तरह निरन्तर चलता रहता है । जितना हमें प्रतीत होता है विश्व उतना ही सच्चा और ठोस है । निःसन्देह उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन हो रहा है परन्तु उसका सर्वथा नाश नहीं होता है । सूत्र में संसार की असारता, नश्वरता, भ्रम-रूपता आदि सब आध्यात्मिक दृष्टि से कहे गये हैं । 1 सोना, तांबा, लोहा, गन्धक आदि धातुएं विश्व में दूसरे पदार्थों से मिश्रित रूप में मिलती हैं, उसी प्रकार प्राणी भी दो पदार्थों-जीव ( चेतन) और अजीव ( अचेतन ) के मिश्रित रूप में उपलब्ध होते हैं । सबसे अधिक विकसित प्राणी मनुष्य ने यही पाया कि एक अदृष्ट तत्त्व जब शरीर से निकल जाता है तो शेष शरीर निरर्थक और व्यर्थ हो जाता है । वह फेंक देने के सिवाय और किसी काम का नहीं रहता । उसी अदृष्ट द्रव्य की विद्यमानता में शरीर मनुष्य या प्राणी था । उस चेतन तत्त्व के निकल जाने से उसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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