Book Title: Tribhangi Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Taran Taran Sangh Bhopal

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Page 6
________________ तारण स्वामी ने कुल ७१ गाथाएं लिखीं हैं, जो दो अध्यायों में विभाजित हैं। अपने सत्स्वरूप की साधना,आराधना करने के लिए अपने परिणामों की सम्हाल करना, लेश्या के अनुसार आयुबंध का विधान, आस्रव और संबर के भेद-प्रभेदों का कथन, यही ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय है । सम्यकद्रष्टि ज्ञानी साधक संसार के दु:खों से मुक्त होना चाहता है और यह निर्णय है कि जीव का वैभाविक परिणमन आसव और बंध में कारण है । आस्रव बंध, संसार के हेतुभूत तत्व हैं और संवर निर्जरा, मोक्ष के हेतुभूत तत्व हैं। ज्ञानमय आत्मस्वरूप का सम्यक् स्वाधीन अनाकुल सहज शुद्ध परिपूर्ण विकास प्राप्त करने के लिए, अविकार पूर्ण सहजानंद मय अंतस्तत्व में आत्मत्व की भावना को दृढ़ बनाने के पुरुषार्थ पूर्वक संवर निर्जरा सहित मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने में ही इस मनुष्य जन्म की सही अर्थों में सार्थकता है । चार गति चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए अनादिकाल बीत गया, मनुष्य जन्म में इस संसार चक्र से मुक्त होने का सुअवसर प्राप्त हुआ है, इसलिए बंध निवृत्ति के लिए भेदज्ञान पूर्वक रागादि विकारों को पर भाव जानकर उनसे उपेक्षा करके अविकार ज्ञान स्वरूप में आत्मत्व का अनुभव करने का अंत: पौरुष करना चाहिए, आस्रव बंध से बचने का यही उपाय है। श्री गुरुदेव तारण स्वामी ने त्रिभंगीसार जी ग्रंथ के प्रथम अध्याय में जीव के विभाव परिणामों से होने वाले आस्रव के ३६ त्रिभंगों द्वारा १०८ भेदों का उल्लेख किया है । श्री तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ के “कायवांङ्ग मन: कर्म योग:, स आसव:"(६/१-२) इस सूत्रानुसार मन-वचन-काय योग हैं और वही आसव है। वस्तुत: कर्म वर्गणाओं के आसव का मूल कारण योग है । आत्मा की एक स्वाभाविक शक्ति परिस्पंदन रूप योग जो कर्म एवं नोकर्म वर्गणाओं को आकर्षित करने में कारण है, यही आसव का मूल है । जिस समय मन,वचन,काय के द्वारा कोई कार्य होता है उस समय आत्मा के प्रदेश सकम्प होते हैं तथा उसी समय पुद्गल कार्माण वर्गणायें आस्रवित होती हैं, और बन्ध हो जाता है वस्तुत: आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होना ही योग है इसी से आस्रव होता है । मन-वचन-काय उसमें निमित्त मात्र हैं। योग के मुख्य रूप से दो भेद हैं-भाव योग और द्रव्य योग । आत्मा की परिस्पंदन रूप शक्ति भाव योग है, यह भाव योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम एवं शरीर नाम कर्म के उदय के निमित्त से कार्य करता है । करणानुयोग के ग्रंथों के अनुसार आत्मा के प्रदेशों का परिस्पंदन होना, हलन-चलन यह द्रव्य योग है । मनवचन-काय का हलन-चलन आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन में निमित्त कारण है। इस प्रकार आस्रव और आसव भूत परिणामों का वर्णन श्री गुरु महाराज ने प्रथम अध्याय में तथा आस्रव निरोधक संवर रूप परिणामों का विवेचन दुसरे अध्याय में किया है। यह हमारा महान सौभाग्य है कि श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ की गाथाओं के हार्द को पूज्य श्री ज्ञानानन्द जी महाराज ने अपनी सरल, सहज, सुबोध भाषा में अध्यात्म प्रबोध टीका करके अति दुरुह कार्य जो गुरु ग्रंथों को समझने का था, उसे बिल्कुल सहज, सरल कर दिया है । पूज्य श्री ने टीका में आसव और संवर संबंधी अनेकों रहस्य स्पष्ट किए हैं। परिणामों की सम्हाल अपनी अंतरंग साधना है इसे बाहर से कहना या बताया जाना संभव नहीं है, यह अंतर की बात अंतर में ही होती है । इसी साधना और सम्हाल का ग्रंथ है यह त्रिभंगीसार और पूज्यश्री द्वारा की गई यथा नाम तथा गुण को चारितार्थ करने वाली अध्यात्म प्रबोध टीका । वस्तुत: रागादि आस्रवभूत भावों से भिन्न अपने स्वभाव की यथार्थ पहिचान जागृति बोध होना ही अध्यात्म प्रबोध है । रागादि विकारी भाव और अपने चैतन्य स्वभाव में लक्षण भेद से भिन्नता है। इसे जानना और तदनुरूप रहना ही त्रिभंगीसार का सार है । इस टीका की विशेषता यह है कि इसमें द्रव्यानुयोग अर्थात् अपने ध्रुव स्वभाव के आश्रय से करणानुयोग की साधना, अपने परिणामों की सम्हाल का मार्ग स्पष्ट हुआ है। पूज्य श्री महाराज जी ने इस टीका ग्रंथ में अनेकों सूत्र जिनवाणी के सार स्वरूप स्पष्ट किये हैं, आत्मचिंतन हेतु कतिपय अनुभव रत्न प्रस्तुत हैं - जितने अंश में शुद्धता प्रगट होती है उतने अंश में धर्म है यही मुक्ति मार्ग है । शुभ-अशुभ भाव से कर्मास्रव, कर्मबन्ध होता है, ऐसा विचार भव्यजीव को करना चाहिए और कर्मासव के कारणों से बचकर अपने शुद्धात्मा के परम शुद्ध स्वभाव में रहना चाहिए, इसी से कर्मास्रव और आयुबन्ध से बचा जा सकता है। (गाथांश-५) मिथ्यादर्शन सहित सभी भाव संसार के कारण कर्म बंध के कारकहैं; इसलिए मिथ्यात्व सहित सर्व भावों का निरोध करके सम्यक्दर्शन की भावना करना चाहिए । जहाँ निज शुद्धात्मा का अनुभव होगा, वहीं निश्चय या उत्तम

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