Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1 Author(s): Nemichandra Shastri Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala View full book textPage 6
________________ प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन्ने अपने 'भारतीय दर्शन में कहा है'जेन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन करती है, जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं । इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको पूजा होती थी । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वधमान और पाश्वनाथसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमें ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंके नामोंका निर्देश हैं। भागवत पुराग हो इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे।' ___ यथार्थ में वैदिकोंकी परम्पराको तरह श्रमणोंको भी परम्परा अति प्राचीन कालसे इस देश में प्रतित है। इन्हीं दोनों परम्पराओंके मेलसे प्राचीन भारतीय संस्कृतिका निर्माण हुआ है । उन्हीं श्रमणोको परम्परामें भगवान महावीर हुए थे | बुद्धकी तरह वे भी एक क्षत्रिय राजकुमार थे। उन्होंने भी घरका परित्याग करके कठोर साधनाका मार्ग अपनाया था । यह एक विचित्र बात है कि श्रमण परम्पराके इन दो प्रवर्तकोंकी तरह वैदिक परम्पराके अनुयायी हिन्दूधर्ममें मान्य राम और कृष्ण भी क्षत्रिय थे । किन्तु उन्होंने गृहस्थाश्रम और राज्यासन का परित्याग नहीं किया । यही प्रमुख अन्तर इन दोनों परम्पराओंमें है। कृष्ण भी योगी कहे जाते हैं किन्तु वे कर्मयोगी थे। महाबोर ज्ञानयोगी थे। कर्मयोग और ज्ञानयोगमें अन्तर है । कर्मयोगीको प्रवृत्ति बाह्याभिमुखी होती है और ज्ञानयोगीको आन्तराभिमुखो। कर्मयोगीको कर्ममें रस रहता है और ज्ञानयोगीको ज्ञानमें । शानमें रस रहते हुए कर्म करनेपर भी कर्मका कर्ता नहीं कहा जाता। और कर्म में रस रहते हुए कर्म नहीं करनेपर भी कर्मका कर्ता कहलाता है । कर्म प्रवृत्तिरूप होता है और ज्ञान निवृत्तिरूप । प्रवृत्ति और निवृत्तिकी यह परम्परा साधनाकालमें मिली-जुली जैसी चलती है किन्तु ज्यों-ज्यों निवृत्ति बढ़ती जाती है प्रवृत्तिका स्वतः ह्रास होता जाता है । इसीको आत्मसाधना कहते हैं। यथार्थमें विचार कर देखें-प्रवृत्तिके मूल मन, वचन और काय हैं । किन्तु आत्माके न मन है, न वचन है और न काय है । ये सब तो कर्मजन्य उपाधियाँ है । इन उपाधियों में जिसे रस है वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो आत्मज्ञानी हो जाता है उसे ये उपाधियाँ व्याधियाँ ही प्रतीत होती हैं । ___ इनका निरोध सरल नहीं है। किन्तु इनका निरोध हुए बिना प्रवृत्तिसे छुटकारा भी सम्भव नहीं है । उसीके लिए भगवान महावीरने सब कुछ त्याग कर वनका मार्ग लिया था । संसार-मागियोंकी दष्टि में भले ही यह 'पलायनवाद' प्रतीत हो, किन्तु इस पलायनवादको अपनाये बिना निर्वाण-प्राप्तिका दूसरा १० : तीर्घकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्पराPage Navigation
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