Book Title: Terapanth Maryada Aur Vyavastha Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ सम्पादकीय आज से करीब ५७ वर्ष पूर्व जयपुर में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तेरापंथ धर्म संघ की व्यवस्था की परिचय पाकर अणुव्रत-अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी से कहा था-'महान् आश्चर्य है कि जिस समाजवादी व्यवस्था को हम देश में लाना चाहते हैं वह आपके श्रमण संघ में दो सौ वर्षों से चल रही है।' इस व्यवस्था का इतिहास भी बड़ा अनूठा है। इतिहास साक्षी है कि सामाजिक स्तर पर ऐसी व्यवस्था कभी नहीं रही जिसमें जीवनोपयोगी सभी साधन सब को समान रूप से उपलब्ध हुए हों और सब का पारस्परिक स्तर समान रहा हो, यद्यपि इस प्रकार की परिकल्पना तो अनेक बार होती रही है। अतीत में महान् दार्शनिक प्लेटो ने समाजवादी व्यवस्था का प्रतिपादन करते हुए अपनी 'रिपब्लिक' पुस्तक में ऐसे समाज की रूपरेखा प्रस्तुत की थी, लेकिन यह व्यवस्था अधिकार-सम्पन्न वर्ग के लिए ही थी। उसमें दासों के लिए शूद्र जैसा ही स्थान था। वे उस व्यवस्था से अछूते ही थे। इससे पूर्व प्रिंस क्रोपोकिन आदि कुछ विचारकों ने सामाजिक स्तर पर कई बातें रखी थीं, किन्तु वे भी यथार्थ की अपेक्षा कल्पना पर ही आधारित थी अतः सामाजिक जीवन का माध्यम नहीं बन सकी थीं। हां, जर्मन में मार्क्स ने जरूर एक योजना प्रस्तुत की थी जिसे वैज्ञानिक समाजवाद का नाम दिया गया, किन्तु वह भी वहां पर फलीभूत नहीं हो सकी। यह भी एक आकस्मिक संयोग था कि ठीक इसी समय भारत के राजस्थान प्रान्त में समाजवादी व्यवस्था का सामूहिक प्रयोग श्रीमद् जयाचार्य ने अपने तेरापंथ संघ में प्रारम्भ किया। अब से २४३ वर्ष पूर्व वि० स० १८१७ में आचार्य भिक्षु ने धार्मिक जगत् में एक नई क्रान्ति की थी। उस क्रान्ति के संवाहक के रूप में प्रारम्भ में १३ साधु तथा १३ ही श्रावक थे। उसी संख्या के आधार पर एक सेवक कवि के द्वारा इसका तेरापंथ नामकरण श्रवण कर आचार्य भिक्षु ने इसका अर्थ किया-'हे प्रभो ! यह तेरापंथ'- प्रभो ! यह तम्हारा पंथ हैं. हम तो इसके पथिक हैं। और उसी निश्चय के आधार पर उनके कदम मंजिल की ओर बढ़ चले। धीरे-धीरे विविधमुखी विरोधों के बावजूद परिस्थितियां बदली और संगठन वृद्धिंगत होने लगा। तब दूरदर्शी आचार्य भिक्षु के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा। उन्होंने संगठन को अनुशासित एवं व्यवस्थित बनाने के लिए सर्वप्रथम सं० १८३२ मृगसर कृष्णा २ के दिन एक लिखित लिखा। लिखित क्यों लिखा, इसका स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने कहा-'मैंने यह उपक्रम शिष्यादिक के ममत्व-परिहार के लिए, संयमविशुद्धि के लिए तथा सभी अनुशासन एवं न्यायमार्ग पर चलते चलें, इसलिए किया है।'Page Navigation
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