Book Title: Terapanth Maryada Aur Vyavastha
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Madhukarmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 10
________________ उस लिखित को तत्कालीन साधुओं को एकत्र कर सुनाया। सभी साधुओं ने सहर्ष इस पर सहमति प्रदान करते हुए अपने-अपने हस्ताक्षर कर दिए। वह हस्ताक्षरांकित पत्र आज भी हमारे संघीय पुस्तकागार में सुरक्षित है । इस प्रकार सामूहिक सहमति प्राप्त होने पर आपने उसे लिखित 'संविधान' का रूप दे दिया। उसके बाद समय-समय पर अनेक लिखित बने। सबसे अंतिम लिखित सं० १८५९ का है । वही तेरापंथ का मौलिक संविधान है। उसके आधार पर प्रति वर्ष मर्यादा महोत्सव मनाया जाता है। उसकी कुछ धाराएं ये हैं : १. समस्त संघ एक आचार्य की आज्ञा में रहे । २. सभी साधु-साध्वियां विहार, चातुर्मास, आदि आचार्य की आज्ञा से करें। ३. दीक्षा आचार्य के नाम पर हो, कोई अपना शिष्य-शिष्या न बनायें । ४. आचार्य योग्य व्यक्ति को ही दीक्षित करे। दीक्षित करने पर भी अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दे। दीक्षार्थी को नवपदार्थ का प्रारम्भिक ज्ञान अवश्य कराया जाये। ५. वर्तमान आचार्य अपने गुरु-भाई या शिष्य को उत्तराधिकारी नियुक्त करे तो समस्त संघ उसकी आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य करे। ६. संयोगवश एक या अधिक साधु संघ से पृथक् हो जाये तो उन्हें साधु न सरधा जाये और उनसे सम्पर्क न रखा जाये। ७. कर्मवश कोई संघ से पृथक् हो जाये तो संघ के साधु-साध्वियों के अंशमात्र भी अवर्णवाद न बोले । ८. किसी भी साधु-साध्वी के प्रति शंका पैदा हो, उस ढंग से न बोले। ९ श्रद्धा, आचार या सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई नया प्रश्न उठे तो आचार्य तथा बहुश्रुत साधु मिलकर विचार- पूर्वक उसका समाधान करें। अगर समाधान न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दें, पर अंशमात्र भी खींचतान न करें। संगठन की दृष्टि से इतना सुदृढ़ संविधान आचार्य भिक्षु की अलौकिक देन है। यह संविधान उन्होंने उस वातावरण में दिया था जब सम-सामयिक सम्प्रदायों में एक ही संघ में अनेक आचार्य हो जाते थे और आचार्य के अधीनस्थ साधु भी अपने अलग-अलग शिष्य बनाते थे, वैसी स्थिति में चालू प्रवाह को मोड़ देकर उन्होंने जो कार्य किया, वह इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है। छोटे से समूह में प्रारम्भ किया हुआ वह प्रयोग आज लगभग ७०० साधु-साध्वियों में भी उसी प्रकार चल रहा है। इस प्रयोग के ठीक एक शताब्दी बाद जयाचार्य ने इसे और अधिक विस्तार दिया। संविधान के अनुसार व्यक्तिगत शिष्य बनाने की प्रथा तो अपने आप समाप्त हो गई थी किन्तु व्यक्तिगत पुस्तकों की परम्परा चालू थी । अतः किसी के पास आवश्यकता से

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