Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 03 Author(s): Suparshvamati Mataji Publisher: Suparshvamati MatajiPage 10
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 25 * सूत्र 16 : में मतिज्ञान के विशेष प्रभेदों का 42 वार्तिकों में निरूपण है। पूर्व सूत्र में कहे गये ज्ञानों के ये बहु आदिक बारह पदार्थ विषय हैं। सूत्र 17 : बहु-बहुविध आदि धर्मों के आधारभूत धर्मी को समझाने के लिए यह सूत्र है। इसकी व्याख्या टीकाकार ने 5 वार्त्तिकों में की है। वस्तुभूत अर्थ के बहु आदिक धर्मों में अवग्रहादि ज्ञान प्रवर्तते सूत्र 18 : यह सूत्र निर्देश करता है कि अव्यक्त पदार्थ का अवग्रह ही होता है। ईहा, अवाय, धारणा, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान नाम के मतिज्ञान ये अव्यक्त अर्थ में नहीं प्रवर्तते हैं। इसकी विशद व्याख्या 9 वार्तिकों में हुई है। सूत्र 19 : चक्षु इन्द्रिय और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है। शेष चार इन्द्रियों से होता है। विषय के साथ चक्षु की अप्राप्ति से मन इन्द्रिय की अप्राप्ति भिन्न जाति की है। अभिमुख हो रहे अप्राप्त अर्थ को चक्षु जानती है और मन अभिमुख, अनभिमुख, प्राप्त, अप्राप्त अर्थों को भी जान लेता है। अभाव भी भाव कारणों के समान कार्य की उत्पत्ति में सहायक हो जाते हैं। टीकाकार आचार्यश्री ने वैशेषिकों द्वारा मानी गयी स्फटिक की उत्पाद विनाश प्रक्रिया पर अच्छा आघात किया है। मीमांसक और वैशेषिकों ने शब्द को भी पुद्गल नहीं माना है, उनकी इस मान्यता का भी आचार्यश्री ने सतर्क खण्डन किया है। मीमांसकों का शब्द को अमूर्त और सर्वगत कहना प्रमाणों से बाधित है। आचार्यश्री ने श्रोत्र का प्राप्यकारित्व पुष्ट किया है। यह विवेचन 98 वार्त्तिकों में समाविष्ट हुआ है। यहाँ तक आचार्यश्री विद्यानन्दजी ने मतिज्ञान के भेद-प्रभेदों का युक्तिसाध्य वर्णन किया है। सूत्र 20 : इस सूत्र के अन्तर्गत 128 वार्तिकों में श्रुतज्ञान व उसके भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में विस्तार से विमर्श किया गया है। श्रुतज्ञान के अंग बाह्य और अंग प्रविष्ट आदि भेदों का प्रतिपादन करते * हुए श्रुतज्ञान की प्रामाणिकता को बहुत ही सुन्दर ढंग से सिद्ध किया गया है। ___ इस प्रकरण के साथ तृतीय आह्निक सम्पूर्ण होता है। इस प्रकार इस खण्ड में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रकरणों की व्याख्या है। संक्षेप में कहें तो 1066 वार्तिकों से युक्त इस तृतीय खण्ड में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ही विचार है। इससे वार्तिककार और टीकाकार की अगाध विद्वत्ता का पता लगता है। सूत्रकार ने तो गागर में सागर भरा ही है। परिशिष्ट में श्लोकानुक्रमणिका दी गई है। आभार : पूज्य गणिनी आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी के श्रीचरणों में सविनय वन्दामि निवेदन करता हूँ जिन्होंने अपनी अभीक्ष्ण ज्ञानाराधना और तप:साधना के फलस्वरूप इस गुरुगम्भीर ग्रन्थ का .. मूलानुगामी अनुवाद किया है और इसके सम्पादन प्रकाशन कर्म से मुझे संयुक्त कर मुझ पर अतीव अनुग्रह किया है। मैं आपका कृतज्ञ हूँ।Page Navigation
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