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गोतिका
वस्तु समूह में अर्थात् पदार्थों में न सुख है और न दुःख, किन्तु सुख-दुःख तो ममत्त्व भाव में है । जो ममत्व को त्याग देता है, वह पूर्ण सुखी बन जाता है ।
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चेतन ! तू ममत्व भाव में अनेक शान्ति रूपी सरिता तो सदा
दुःखों का अनुभव करता है, किन्तु समता में ही बहा करती है ।
१. " यह मेरा सुन्दर शरीर है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरी संतान है, यह मेरा घर है और ये मेरे परम प्यारे मित्र हैं ।"
२.
- इनके सुख तू सुखानुभूति करता है, वैसे ही इनके दुःख में तू अपने आपको दुखी मानता है । इस प्रकार भौतिक साधनों में व्याकुल बना हुआ तू सही शान्ति को नहीं प्राप्त कर पाता ।
उसे
३. रे आत्मन् ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रयी तेरी निज सम्पत्ति है, तू भूल बैठा है । पर स्वरूप को अपना स्वरूप मानता हुआ सोया पड़ा है।
४. क्या तू संसार में भ्रमण करता हुआ अभी भी खिन्न नहीं हुआ ? 'चन्दन !' आत्मा में विश्राम कर और अध्यात्म दशा में अन्तर्मुख बनता हुआ साक्षात्कार कर ।
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