Book Title: Swar Bhasha Ke Swaro Me
Author(s): Chandanmuni, Mohanlalmuni
Publisher: Pukhraj Khemraj Aacha

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गीतिका प्राणी ! तू परभावों में आसक्त हुआ निरन्तर अनेक प्रकार के दुखों का पात्र बनता है । इसलिए अब तू ज्ञान स्वरूप आत्म-मन्दिर में रमण कर। अपने स्वरूप में रमण कर, रमणकर ! १. जब तेरा जन्म हुआ तब क्या साथ लेकर के आया था? और महाप्रयाण के समय आगे के लिए क्या साथ लेकर जाएगा? प्रत्युत्तर स्पष्ट है'कुछ भी नहीं' ! फिर भवदावानल में क्यों तू अपने आप को संतप्त बना रहा है ? २. कहाँ से आया ? और कहां जाना है ? यह तुझे विदित नहीं है। केवल ___ बीच-बीच में ही विभावों में मूढ़ बना फिर रहा है । ३. धन और यौवन क्षण भंगुर होने के कारण नहीं के बराबर है। अतः जिस पर तू गर्व करे, ऐसा मुझे कुछ भी प्रतीत नहीं होता। शरीर तो एक कच्चे सिकोरे जैसा है, जिसमें किसी प्रकार को स्थिरता नहीं है । ४. ज्ञान रूप धन से तेरा भवन भरा हुआ है, तू उसका परद्रव्यों में क्यों अन्वेषण कर रहा है ? भव-समुद्र में नौका का काम देने वाला स्व-धन [ज्ञान-दर्शनादिरूप] हो है उसे तू नमस्कार कर । For Private And Personal Use Only

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