Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 7
________________ [6] अध्ययन में निरूपण किया गया है। जो साधु साधना जीवन अंगीकार करके दोष युक्त आहार पानी से, संयम विपरीत प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं, वे कुशील हैं। जो अपने ग्रहण किये हुए महाव्रतों का यथावत पालन करते हैं, वे सुशील हैं। आठवां अध्ययन 'वीर्य' प्रस्तुत अध्ययन में भाव वीर्य (शक्ति) का निरूपण किया गया है। भाव वीर्य के अन्तर्गत पण्डित वीर्य, बाल पंडित वीर्य और बाल वीर्य । पण्डित वीर्य संयम में पराक्रमी साधनामय जीवन होता है। बाल पण्डित वीर्य व्रतधारी संयमासंयमी देशविरति श्रावक होता है । बालवीर्य असंयमी, अविरति, हिंसा आदि में प्रवृत्त या व्रत भंग करने वाला होता है। साधक को 'सकर्म वीर्य' से हटकर 'अकर्म वीर्य' की ओर मुड़ने का पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी गई है। नववा अध्ययन 'धर्म' इस अध्ययन में सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्पन्न साधु . के लिए वीतराग प्ररूपित लोकोत्तर धर्म ( आचार-विचार का निरूपण किया गया है। छह काय जीवों के आरम्भ परिग्रह में फंसा हुआ व्यक्ति इस भव और परभव में दुःखी होता है। अतएव मोक्ष मार्ग के साधक को इनसे निवृत होना चाहिए । दसवाँ अध्ययन 'समाधि' - इस अध्ययन में भाव समाधि का स्वरूप समझाया गया है । जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की विशुद्ध आराधना से भाव समाधि प्राप्त होती है। साधक अपनी आत्म समाधि के लिए समस्त प्रकार से आरम्भ परिग्रह से निवृत्त, इन्द्रियों - मन को वश में करना, क्रोधादि कषाय आदि पर विजय प्राप्त करने से ही भाव समाधि प्राप्त हो सकती है। साधक को सभी प्रकार के असमाधि उत्पन्न करने वाले स्थानों से का भी इस अध्ययन में निर्देशन किया गया 1 दूर रहने ग्यारहवाँ अध्ययन 'मोक्षमार्ग' इस अध्ययन में दो प्रकार के भाव मार्ग बतलाए गए हैं। एक प्रशस्त, दूसरा अप्रशस्त । सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र, रूप मोक्ष मार्ग प्रशस्त भाव मार्ग है। इसके विपरीत मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान के द्वारा की गई प्रवृत्ति अप्रशस्त भाव मार्ग है। तीर्थंकर, गणधरादि द्वारा प्रतिपादित ही सम्यग् मार्ग अथवा सत्य मार्ग कहा गया है। यही मार्ग जीव के लिए हितकर और सुगति फलदायक है। बारहवाँ अध्ययन 'समवसरण' - सामान्य रूप से समोसरण का अर्थ तीर्थंकर देव की परिषद् से लिया जाता है। किन्तु यहाँ समोसरण से आशय विविध प्रकार के मतोंमतप्रर्वतकों के सम्मेलन से है । भगवान् के समय कुल ३६३ मत प्रचलित थे । क्रियावादी के १८० अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२, यों कुल ३६३ भेद Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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