Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ अपनी बात ) लिए मेरी आत्मा सहमत नहीं थी । साथ ही जितना भी विस्तार होगा, मेरा उपयोग भी उतने काल तक जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों के चिन्तन-मनन में ही लगा रहेगा और यह मेरे जीवन की महान उपलब्धि होगी, इसलिए मैंने विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण करने का संकल्प कर लिया है। अतः यह विषय आगामी कितने भागों में पूर्ण होगा, यह अभी निर्णय नहीं हो सकता । उपरोक्त सभी रचनाओं में पुनरावृत्ति बहुत हुई है, क्योंकि ये रचनाएँ अलग-अलग समयों पर जब भी उपयोग खाली हुआ टुकड़ों- टुकड़ों में की गईं हैं, लगातार नहीं । मुझे भाषा एवं व्याकरण का ज्ञान अधिक नहीं होने से वाक्य- विन्यास तथा वाक्यों का जोड़-तोड़ भी सही नहीं है । अत: पाठकगणों को उपरोक्त सभी पुस्तकों में इसप्रकार की कमी अनुभव में आयेगी, सम्भव है पढ़ने में रुचिकर भी नहीं लगे, इसके लिए पाठकगण क्षमा करें। कृपया इन कमियों को गौण करके विषय के भाव को ग्रहण करने की चेष्टा करें— यही मेरी नम्र प्रार्थना है । अध्यात्म के कथन तो भावना दृढ़ करने के लिए होते हैं, अतः उसमें पुनरावृत्ति दोष नहीं मानना चाहिए । इसही पुस्तक के विषय प्रवेश में चारों भागों के विषयों का संक्षेप में ज्ञान कराते हुए इस पाँचवें भाग का भी संक्षिप्त सार भी दिया गया है। कृपया वहाँ से जान लेवें । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तिका में प्रकाशित मार्ग ही संसार में भटकते प्राणियों को संसार भ्रमण से छुटकारा प्राप्त करने का यथार्थ मार्ग है । मैं स्वयं अनादिकाल से भटकता हुआ दिग्भ्रमित प्राणी था, यथार्थ मार्ग प्राप्त करने के लिए दर-दर की ठोकरें खाता फिरता था, सभी अपने चिंतन को ही सच्चा मार्ग कहते थे; लेकिन किसी के पास रंचमात्र भी शान्ति प्राप्त करने का मार्ग नहीं था । ऐसी कठिन परिस्थितियों में मेरे सद्भाग्य का उदय हुआ और न जाने कहाँ-कहाँ भटकता हुआ सन् १९४३ में मुझे प्रातः स्मरणीय महान उपकारी गुरुदेव पूज्यश्री कानजीस्वामी का समागम प्राप्त हो गया ; कुछ वर्षों तक तो उनके बताये मार्ग पर भी पूर्ण निशंकता प्राप्त नहीं हुई, तब तक भी इधर-उधर भटकता रहा । अन्ततोगत्वा सभी तरह से परीक्षा कर यह दृढ़ निश्चय हो गया कि आत्मा की शान्ति प्राप्त करने का यदि कोई मार्ग हो सकता है तो एक यही मार्ग हो सकता है, अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं हो सकताऐसे विश्वास एवं पूर्ण समर्पणता के साथ उनके सत्समागम का पूरा-पूरा लाभ Jain Education International ( ९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 246