Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ (सुखी होने का उपाय भाग - ५ अपनी बात प्रस्तुत पुस्तक “सुखी होने का उपाय" भाग-५ है । इसके पूर्व प्रथम भाग सन् १९९० में, द्वितीय भाग सन् १९९१ में, तृतीय भाग सन् १९९२ में तथा चतुर्थ भाग सन् १९९४ में प्रकाशित हुआ था। पुस्तक लिखना प्रारम्भ करते समय ऐसा संकल्प था कि आत्मानुभूति तक का सम्पूर्ण विषय तीन भागों में पूर्ण हो जावे; लेकिन लेखन प्रारम्भ करने के पश्चात् जैसे-जैसे विषय की गम्भीरता अनुभव में आती गई, उसीप्रकार उसका स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता अनुभव हुई, अत: विषय बढ़ता ही गया। चतुर्थ भाग समाप्त करते समय ऐसा अनुमान था कि पाँचवें भाग में “यथार्थ निर्णय द्वारा सविकल्प आत्मज्ञान” एवं “सविकल्प आत्मज्ञान पूर्वक निर्विकल्प आत्मनुभूति” इसप्रकार सम्पूर्ण विषय का समावेश होकर इस विषय का समापन हो जायेगा; लेकिन जब इस विषय को समयसार की गाथा १४४ के आधार पर लिखना प्रारम्भ किया, तो ऐसा लगा कि यह विषय तो अत्यन्त महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ बहुत गम्भीर एवं सूक्ष्म भी है, इसलिए इस विषय पर गम्भीर चिंतनपूर्वक विस्तृत स्पष्टीकरण आवश्यक है। अत: सम्पूर्ण विषय को पंचम भाग में पूर्णकर समाप्त करने का आग्रह मैंने छोड़ दिया ; क्योंकि जो अत्यन्त आवश्यक महत्वपूर्ण विषय है और जिस पर चिन्तन मेरे स्वयं के लिए बहुत प्रयोजनभूत है, वही रह जाता ; जो कि मझे इष्ट नहीं था। अत: अब मैंने संकल्प कर लिया है कि विषय को संकुचित नहीं करके विषय की विस्तार से चर्चा की जावे, ताकि विषय स्पष्ट हो सके और भागों की संख्या का भी विकल्प छोड़कर जैसे-जैसे प्रकरण तैयार होता जावे, उसे अगले भाग के रूप में प्रकाशित कर दिया जावे। इसही के फलस्वरूप इस भाग में सविकल्प आत्मानुभूति प्राप्त करने तक का विषय पूर्ण करना था लेकिन वह भी पूर्ण नहीं हो सका, अत: निर्विकल्पदशा प्राप्त करने योग्य सविकल्प आत्मानुभूति का विषय भाग-६ में आवेगा। मैने उक्त सभी रचनाएँ मात्र स्वयं के कल्याण के लिए अपने उपयोग को सूक्ष्म एवं एकाग्र कर जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करने की दृष्टि से की है। किसी भी विषय पर कुछ भी लिखने की जिम्मेदारी के आधार पर जितनी गृढ़तापूर्वक चिन्तन होता है, उतना अन्य माध्यमों से नहीं हो पाता है। विषय समझ में आ जाने पर भी उसको संकुचित करके अस्पष्ट छोड़ देने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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