Book Title: Subhashit Ratna Sandoha Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur View full book textPage 5
________________ प्रस्तावना आचार्य अमितति आचार्य अमितगति एक समर्थ ग्रन्थकार थे। उनका संस्कृत भाषापर असाधारण अधिकार था। उनकी कवित्वशक्ति अपूर्व थी। उनकी जो रचनाएं उपलब्ध हैं उनसे उनकी प्रांजल रचनाशैली प्रस्पष्ट अनुभवमें आती है। प्रसाद गुणयुक्त मनोहारी सरल सरस काव्यकौमुदीका पान करके हृदय आनन्दसे गद्गद हो जाता है। वे माथुर संघके जैनाचार्य थे। अतः उनकी सब रचनाएँ उद्बोधन प्रधान है। उन्होंने अपनी रचनाओंके द्वारा मनुष्यको असत्प्रवृत्तियोंकी ओरसे सावधान कर सत्प्रवृत्तियोंको अपनानेकी ही प्रेरणा की है। __आचार या सदाचारको मनुष्यका प्रथम धर्म कहा है। उस सदाचारके दो रूप हैं आन्तरिक और बाह्य । आन्तरिक सदाचारमें काम क्रोध-लोभ आदिका त्याग आता है और बाह्य सदाचारमें मांस, मदिरा, परस्त्रीगमन, वेश्या सेवन आदिका परित्याग आता है। कविने अपनी रसमयी कविताके द्वारा इन सबकी बुराईका चित्रण किया है। और श्रावकाचार रचकर श्रावकके आचारका विस्तारसे निरूपण किया है। जैनसिद्धान्तमें कर्म सिद्धान्त अपना विशेष स्थान रखता है। जीव कमसे कैसे बद्ध होता है, कर्म क्या वस्तु है। उसके कितने भेद-प्रभेद हैं, वे क्या-क्या काम करके जीवको शक्तिको कुण्ठित करते हैं। जीव कैसे उन कर्मोंपर विजय प्राप्त करता है, ये सब विषय कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध है। आचार्य अमितगति जैनकर्मसिद्धान्तके भी विद्वान थे। उनकी उपलब्ध सभी रचनाएँ प्रकाशमें आ चुकी हैं। इस शताब्दीके प्रारम्भमें ही यूरोपके विद्वानोंका ध्यान उनकी रचनाओंकी बोर आकृष्ट हो गया था। स्व. डा० ए० एन० उपाध्येके लेखके अनुसार बेवर, पिटरसन, भण्डारकर, ल्यूमन, आफैट जैसे विद्वानोंके द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ सूचियोंमें सन् १८८६ से लेकर १९०३ तक अमितगतिकृत रचनाओं का निर्देश हो गया था। अमितगतिने अपना सुभाषितरलसन्दोह सम्वत् १०५० में, धर्मपरीक्षा सम्बत् १०७० में और पंचसंग्रह सम्वत् १०७३ में रचकर समाप्त किया था। धर्मपरीक्षाकी अपनी प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी पूरी गुर्वावली इस प्रकार दी है-वीरसेन, देवसेन, अमितगति (प्रथम), नेमिषेण और माधवसेन । किन्तु सुभाषितरलसन्दोह और श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें वीरसेनका नाम नहीं है। तथा पंचसंग्रहको प्रशस्तिमें केवल माधबसेनका ही नाम है। वही उनके गरु थे। उसमें उन्होंने स्पष्टरूपसे अपनेको माधवसेनका शिष्य उसी प्रकार बतलाया है जैसे गौतम गणधर महावीर भगवानके शिष्य थे। इसकी रचना मसत्तिकापरमें हुई थी। अन्य रचनाओं के अन्तमें उनके रचना स्थानका निर्देश नहीं है। केवल सु० र० स० की प्रशस्तिमें इतना है कि उस समय राजा मुंज पृथिवीका शासन करते थे। धारा नगरोसे सात कोसपर चगड़ीके पास मसीद विलोदा नामक गाँव मसूतिकापुर था ऐसा किन्हीं विद्वानोंका मत' है। निर्णय सागरसे प्रकाशित (१९३२) सु० २० सं० की भूमिकामें पं० भवदत्त शास्त्रीने वापतिराज और मुंजकी एकता सिद्ध करके उज्जैनीको राजधानी बतलाया है और लिखा है कि धारामें राजधानी भोजने स्थापित की थी। इससे आचार्य अमितगतिका आवास क्षेत्र उक्त प्रदेश तथा रचनाकाल विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका तृतीय चरण सुनिश्चित है। १. देखो बैन माहित्य और इतिहास, पृ० २८० का फुटनोट ।Page Navigation
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