Book Title: Stuti Tarangini Part 01
Author(s): Bhadrankarsuri
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan

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Page 462
________________ पू. मु. श्रीमेरुविजयजी म. प्रणीता-स्तुतिचतुर्विंशतिका पू. मुनिराज श्री मेरुविजयजीमहाराज - प्रणीता - यमकबद्ध स्तुतिचतुर्विंशतिका + १ ( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) ऋषभदेवमहं महिमाऽऽलयं, हृदि धरामि धराघवमाऽऽदिमम् । महति मानवमानसमानसे, कलमरालमरातितरुद्विपम् ॥ १ ॥ भजत तं जगतीजनबान्धवं मनुजवारिजवारिजबान्धवम् । यमजितं जिनराजमपूजयत्, सुरविभूरविभूरगभूषणम् अतुलजन्तुमलक्षयकारिणी, विबुधवृन्दमुदं प्रवितन्वती । तवक शम्भव ! कीर्तिततिर्नभः- सरिदिवारिदिवाकरजार्जन ! ॥ ३ ॥ भवतु भावजुषामभिनन्दनः, शिवसुखाय सुधाशननन्दनः । ॥ २ ॥ ॥ ५ ॥ यमुपलभ्य जयन्ति नमन्नरा - वनिधनं निवनं मुनिमानवाः ॥ ४ ॥ श्रयति यः सुमतीशपदद्वयं मधुलिहां पटलीव सरोरुहम् । श्रितवतां सुकृताभ्यतिदुर्लभा, समरसामरसामजता भजेत् धरधराऽधिपवंशमबोधयत्, विबुधपद्धतिकेतुरिवाऽम्बुजम् । हरतु मे सजिनः कमलासरो- रुहसरोह सरोगमतिभ्रमम् जिन ! सुपार्श्व ! पुनन्तु पुनर्भवाः, पदभवा भवतश्चयमङ्गिनाम् । जनमनोऽम्बुजवाञ्छितसाधने, सुरतरो ! रतरोग भिषग्वर ! ॥ ७ ॥ दिशतु नित्यसुखं शशिलान्छन:, स महसेननरेशसुतो जिनः । मनसि यस्य सरोरुहलोचना, न पदमाप दमाऽमृतसागरे ॥ ८ ॥ ॥ ६ ॥ १ सूर्यम् । २ कान्तिः । Jain Education International ४२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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